इन्द्रजाल बने तेरे नेत्र, मैं बनूँ मृगतृष्णा ।
तू जो बने ताप सूर्य का, मैं जलूँ उसमें बन वेदना ।।
अधरों पे वास तेरे हलाहल, मैं लालसी विषपान की संवेदना ।
तेरे कर्णपास पे श्वास मेरे, मेरे हृदय में वास करती कामना ।१।
काले कुंतल तेरे वायु में नागिनी से लहरा रहे, मानो सबकी हो योजना ।
तेरी मनोहर छवि देखने की जैसे हो संसार को भी वासना ।।
निकट खड़ा तू पर है, भटक रही कहीं दूर तेरी भावना ।
ग्रीवा में तेरे उमड़ रही लहरें, मानो हिमांशु के प्रभाव में अर्णव की रचना ।२।
तू सौम्य मेरे महादेव सा, पर सताए मुझे बन कोई असुर की चेतना ।।
रहस्य कौन-सा अपने भीतर छिपाए हो, प्रियतम, बताओ! इतना भी सताओ ना ।।
विरह की ये वेदना ना संभले मुझसे, ये कैसी विप्रलंभ की ली है तुमने प्रेरणा ?
समीप आओ, मिटाओ यह विषाद मेरे स्पंदन से, समाप्त करो यह तड़पाना ।३।
योगिनी बन योग में करूँ, साध लूँ तुम्हें बन कोई साधना ।
क्षणभंगुर इस शरीर से मोह नहीं, तुम बनो मेरे घनश्याम,
मैं बन जाऊँ राधा रमणा ।।
रोम-रोम में वास तेरा, त्वया विना स्वर्गम अपिना रोचये, मेरे कृष्णा ।
बसो तुम मेरे मंदिर में बन वंदनिया, मैं करूँ रात-दिन तुम्हारी वंदना ।४।