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आज हम सब एक अजीब भूल-भुलैया में फंसकर रह गए हैं- जिसे कहते है दिखावा। दिखावा करने की इच्छा से हम इस कदर ग्रसित हो चुकें हैं कि हमारे जीवन के अधिकतर निर्णय का मूल उद्देश्य चाहे अनचाहे दिखावा करना ही है। कर्म जीवन हो या नीजी जीवन दिखावा करने की अनावश्यक जो दवाब हम अपने ऊपर लेते हैं उसका परिणाम हमारे लिए ही घातक सिद्ध हो रहा है।

गौर करने की बात यह है कि इस दिखावे का सीधा असर बच्चों और युवाओं पर अधिक हो रहा है। आज के युग में माता-पिता भी दिखावा करके जीवन का जंग जीतने की कोशिश करते हैं। विवाह जैसे पवित्र रिश्ते की शुरुआत में भी आजकल युवक-युवतियों सहित माता-पिता दुसरो को देखकर चाहें-अनचाहे दिखावे का दवाब एहसास करते हैं। विवाह के कार्यक्रम को सोसियल मीडिया में देने हेतु परिकल्पना, खान-पान में विविधता लाने की कोशिश भी अक्सर पैसा, क्षमता को दिखाने का एक प्रयास हो सकता है। विवाह में आजकल दो परिवारों के बीच आपसी तालमेल से ज्यादा लोगों की प्रतिक्रिया पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। घर को सजाने से लेकर, खरीदारी तक हर पल-पल दिखावे से बचना आजकल तो काफ़ी कठिन हो गया है। अपने देश में विवाह से जुड़े परंपराओ की जानकारी चाहे कम रखेंगे पर डेस्टिनेशन वेडिंग, प्री वेडिंग फोटोशूट, बैचलर पार्टी आदि विदेशी परंपराओं के संबंध में आज की युवा पीढ़ी ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। दिलचस्पी होने में दिक्कत नहीं है जब तक हम अंधानुकरण नहीं करें। कई लोग ऐसे कार्यक्रम इसलिए आयोजन करते हैं क्योंकि उनके पास धन है और समाज के लिए चुनौतीपूर्ण स्थिति इसलिए बढ़ रही है कोई अधिकतर लोग अब उधार लेकर भी विवाह का भव्य आयोजन चाहते हैं। कारण पूछने पर ज्यादातर जवाब यही आएगा कि जब अन्य लोग विवाह आयोजन भव्य रूप से कर रहे हैं हम भी अपने सम्मान हेतु वहीं चाहते हैं। रिश्तों के प्रारंभिक सोच में भी दिखावे की परत साफ झलकता है। विवाह संपन्न होने के बाद घूमने जाने के लिए आज कई लोग विदेश यात्रा का मन बनाते हैं चाहे उपार्जन सीमित ही क्यों न हो।

अब ज़्यादातर लोग अपने रिश्ते पर काम करना बंद कर सूके है। सोसल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं पर अपने रिश्तों को विश्वास और प्रेम से बांधटकर नहीं रख पा रहे हैं। कई शादियां आजकल भव्य आयोजन के बाद भी दीर्घ समय के लिए कायम नहीं रहा है। मतभेद जीवनसाथी से कभी ना कभी होता ही है; लेकिन अब ज़्यादातर लोग रिश्तों को निभाने से ज्यादा आसानी से तोड़ने को ही सहज विकल्प मानते हैं। रिश्तों को निभाने के लिए जो संयम और धैर्य आवश्यक है आज की पीढ़ी उस से अनभिज्ञ हैं क्योंकि शायद उस दिशा में कम ही मार्गदर्शन उन्हें मिल रहा है।

बड़ी-बड़ी हस्तियों की भव्य शादियों से प्रेरित होकर अधिकतर युवा अपने लिए वैसा ही शादी और जीवनशैली चाहते हैं जबकि वास्तविकता उसके विपरीत है। रिश्तों को निभाने के लिए एक तरह का सादगी भी जरूरी है, जो दिखावे के मानसिकता को मन में रखकर विकसित नहीं किया जा सकता है। इस सवाल का जवाब भी हमें तलाशने की आवश्यकता है अपने इच्छा से विवाह का भव्य आयोजन करने के बाद भी कई दंपतियों में मत भेद क्यों बढ़ने लगा है? मन के अनुसार न होने पर अनावश्यक प्रतिक्रिया दोनों ही कभी ना कभी ऐसी बातें कहते हैं की तनाव बढ़ता है। इन बातों के पीछे कई बार खुद को सही दिखाने की सोच रहता है।

सोसल मीडिया पर कभी-कभी तो हमें तस्वीरें देना ही होगा। कई लोग सोसल मीडिया से जुड़े कामों से जीविका चलाते हैं आजकल तो जिन क्षेत्रों में आवश्यकता होती है सोसल मीडिया पर पोस्ट, विज्ञापन आदि देना होगा। पर समस्या इसलिए आज गंभीर हो गया है हम जब किसी अन्य को सोसल मीडिया पर अपनी किसी उपलब्धि के बारे में बातें करते हुए देखते हैं हमारे मन में असुरक्षा की भावना आती है जो तनाव पैदा करता है। किसी की खरीदारी, होटलों में खाना तथा भ्रमण करना आज जाने अनजाने दुसरो के लिए प्रतिस्पर्धा का विषय बन गया है।

ऐसे माहौल में जब हमें बच्चों को परवरिश देने की बात आती है हम भी कहीं न कहीं दिखावे के कीड़े के कारण विवशता महसूस करते हैं! विद्यालय महाविद्यालय का चयन करते समय भी मानो पैसे के रूतबे को दिखाकर चलना निजी प्रतिष्ठा हेतु जरूरी है। कला, वाणिज्य और विज्ञान में से जब दसवीं कक्षा के बाद चयन करना जरूरी होता है तब भी कुछ माता-पिता अपने बच्चों को बुद्धिमान दिखाने हेतु विज्ञान पढ़ने को बाध्य करते हैं लेकिन भुल जाते हैं कि कला और वाणिज्य में अध्ययन करनेवाले बच्चे भी होनहार होते हैं। अब शिक्षा ग्रहण का उद्देश्य सीखना नहीं है है बल्कि दुसरो को कुछ ना कुछ दिखाना या प्रमाणित करना है । अर्थात ज्ञान अर्जित करने का जो मूल उद्देश्य पहले समाज में होता था अब वो उद्देश्य से हम दूर आ गए हैं।

हमारा सोच विचार अब संकीर्ण हो चुका है। परिवार से पहले कई बार हम अपने आप को ऐसे रखते हैं कि समाज के हित को भी भुल जाते हैं। कर्म संस्थापन तलाश रहे बच्चों को जहां पैसा अधिक मिले वहां काम करने की सलाह हम देते हैं? पर क्या सिर्फ पैसे के लिए काम करने की सोच रखना उचित है? यह सोच ग़लत साबित हो चुका है क्योंकि हम देख रहे हैं जो लोग ज्यादा ज्यादा वेतन में काम कर रहे हैं वो चाह कर भी अपने आप और परिवार को समय नहीं दे पा रहे हैं। आजकल घरों में कीमती सामान आप देखेंगे लेकिन कई परिवारों में भावनात्मक जुड़ाव और बात-चीत हेतु समय की कमी आम बात है।

दिखावे की दलदल ने लोगों को तनावग्रस्त कर दिया है। अपने जरूरत अनुसार चीजें खरीदने और भ्रमण करने में हम जान नहीं पाते कब-कब हम दिखावा करते हैं। एक समस्या यह भी है कि हम में से कई लोगों को यह स्वीकार करना पसंद नहीं है कि वो दिखावे में जीना पसंद करते हैं। हम बचपन से ही अब सीखा रहे हैं नौकरी या व्यापार जो भी करो पैसे को ही केवल प्राथमिकता दो; नैतिक मूल्यों की सीख देना अधिकतर लोग जरूरी नहीं समझते बिना पैसे के कोई किसी को महत्व देता है! सच भी तो है बिना पैसे के किसी को सम्मान की भावना से नहीं देखा जाता है। अगर कोई व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुरूप वेतन पाकर खुश भी हैं; अक्सर आस-पास के लोग उन्हें उनका बेतन पूछ-पूछकर उनको यही एहसास दिलाते हैं किसी की तुलना में कम वेतन मिलना मानों एक गुनाह है। माता-पिता अपने बच्चों की उपलब्धियां रिश्तेदारों को ऐसे जताते बच्चों को को भी असफलता के डर से दिखावे का सहारा लेना पड़ता है।

समाज में प्रचलित कुछ विचारधाराओं में बदलाव की कामना हम करते हैं ताकि दिखावे का चलन कुछ कम हो। जिन लोगों को दिखावा करना पसंद है हम उनको शायद न बदल पाएंगे लेकिन उनको देखकर अनुसरण करने की अपने प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने का प्रयास हम जरूर कर सकते हैं। ईश्वर ने हमें अलग-अलग गुणों से नवाजा है इसलिए असुरक्षा के चलते दिखावा करने से बचना चाहिए। वास्तव जीवन में हमें जो भी मिला है उसको स्वीकार करते हुए हमें अपने लिए खुद को निखारना है दिखावे के मकसद को त्यागना है।

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