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अब युवाओं के लिए शिक्षा ग्रहण ही केवल एक चुनौती नहीं है, कर्म जीवन को आगे बढ़ाना भी कठिन है । कोई एक तलवार उनके गले में लटकने हेतु तैयार है – नौकरी नहीं रहेगा तो क्या होगा? पहले नौकरी हासिल करने की चिंता और उसके बाद उसे खो देने का दु:सप्न! याद रखें यह हमारे देश में ही नहीं पूरे विश्व में हो रहा है ।

सोचनेवाली बात है कि शिक्षित लोगों में असुरक्षा, चिंता आदि विचार बढ़ रहा है । अशिक्षित लोग अपने जीवन में उपलब्ध सीमित साधनों का सदुपयोग करने में सफल हो रहें हैं पर अधिकतर शिक्षित लोग सिर्फ नौकरी ही चाहते हैं । बेहतर बेचन अर्थात बेतन में बढ़ोतरी ही सबको चाहिए । पर हमें यह विचार करने की जरुरी है कितनी बार एक ही व्यक्ति को अधिक बेतन कोई बेतन दे पाएंगा ?

उसी प्रकार जब कंपनियां लोगों को जब काम करने के लिए नियुक्त करती है ऐसे लक्ष्य पदोन्नति के लिए पूर्व निर्धारित करती है जिनको पूरा करते हुए वो जीवन की छोटी-छोटी खुशियों से दूर होने लगते हैं और वही कंपनियां जब अर्थनैतिक मंदावस्ता के चलते जब कर्मचारियों को निकाल देते हैं वो भी एक अनुचित बात ही है; क्योंकि हर कर्मचारी उम्मीद के साथ काम करना प्रारंभ करता है और किसी भी स्थिति में निकाले जाने पर निराश होना स्वाभाविक है।

मैंने कंपनी और कर्मचारियों के पक्ष को उजागर किया। अब सवाल यह भी है हमारे समाज में सेलरी पैकेज ज़्यादा है या नहीं उस पर इतना चर्चा करना क्या जरूरी है? जिसका पैकेज अच्छा उसका सम्मान ज्यादा, क्या यह ग़लत नहीं है? यही सोच बचपन से हमें सिर्फ पैसे के लिए काम करना सीखा रहा है। कंपनियां भी जानती है आजकल इस बात को, तो वो भी कर्मचारियों से भावानात्मक रूप से जुड़ने से पीछे हट जाता है। हम कितने ही बरिष्ठ कर्मचारियों में से एक हो अगर हम ऐसा बेतन मांगते हैं जिसमें २०-३० कर्मचारियों का बेतन आए वो किसी भी कंपनी को दुविधा में डालेगा। सच तो यह है ज़्यादातर अधिक बेतन हमें अपने लिए नहीं दुसरो को दिखाने के लिए चाहिए स्टेटस सिंबल।

अब बात करते हैं कंपनियों की - क्या व्यापार मानवीय दृष्टिकोण से नहीं हो सकता है? जो खरीदारी करते हैं वो भी इंसान है, कंपनियां अलग अलग स्तर पर व्यापार ही करती है। अगर कर्मचारियों को काम करते समय परिवार के साथ समय बिताने को मिले, काम ग़लत होने पर गालियां नहीं बल्कि गलती सुधारने का प्रक्रिया सीखाने वाला मिले तो काम करने में सभी को सहज होगा। विशेषकर एक कंपनी में अगर सामुहिक पदोन्नति की व्यवस्था किया जा सके तो यह सबको एकजुट रखने में मदद करेगा जिससे सभी के दक्षता के अनुसार एक ही समय एक जैसा पदोन्नति होगा। वैसे भी कंपनियां पैसों को बचाने के लिए कर्मचारियों को काम से जाने देते हैं तो अधिक बेतन को अब पदोन्नति से मात्राधिक जोड़ना सही नहीं होगा। कंपनियों को इस बात पर पहले ही ध्यान रखने की जरूरत है कि उच्च अधिकारियों और निम्न वर्ग के कर्मचारियों के बेतन तथा सम्मान में ऐसे अंतर न हो कि अर्थनैतिक मंदावस्ता में किसी को भी निकालने की जरूरत हो। हमें ऐसे अलग विचार से कामों को एक नया नजरिया देने की ओर विचार करना होगा क्योंकि हर साल पूरे विश्व में नये लोग काम करने को तैयार बैठे हैं।

बिड़म्बना यह है कि माता-पिता आज भी बच्चों को गिनें-छूने पेशे में देखना चाहते हैं -शिक्षक, इंजीनियर, सरकारी नौकरी और एम् एन सी आदि में नियुक्ति। लेकिन सच तो यह है कि इन क्षेत्रों में जितनी नियुक्ति संभव है उससे उम्मीदवार ज्यादा है। डाक्टरों की डिमांड है पर जो भी चाहे इस पेशे को चयन नहीं कर सकता। सभी बच्चे एक ही पाठ्यक्रम सीखते हैं शिक्षा के बाद नौकरी की तैयारी में लग जाते हैं। पर एक जैसे जानकारी वालें लोगों को क्यों कंपनियां नौकरी देगी? आजकल हर पल नयी चुनौती सामने आती है और अक्सर नौकरी मिलने पर भी उनका समाधान दे नहीं पाते और दवाब का सामना करते हैं। ज़्यादातर लोग एक बार पढ़ाई पूरा करने के बाद नयी बातों को सीखने की कोशिश नहीं करते हैं ।

शिक्षित होकर हम आज भी अपने बच्चों को अपना निजी काम असफलता के डर से करने नहीं देते हैं। पर भुल जाते हैं नौकरी में भी बच्चों से गलतियां बार-बार होगी। सवाल यह है गलती करने के डर से हम क्या कुछ करना छोड़ दें। जब हम किसी के लिए कुछ साल काम करने के बाद छोटा-मोटा कुछ भी करेंगे हम जिम्मेदारी लेना सीखेंगे, अपने ग़लत फैसलों को खुद सुधारेंगे। जितना हम सर्जनात्मकता से कुछ करेंगे हमें नौकरी खोने से डर नहीं होगा।

क्या आप ने सूना मार्क जुकरबर्ग ने कहा है मुझे अपनी कंपनी खोने का डर है, नहीं न क्योंकि वो अलग सोच से कुछ कभी भी बना देंगे। लेकिन हमारे साथ दिक्कत यह है हम नौकरी इंष्ट्राकसन मेनुअल की तरह करते हैं! जब तक कोई न बोलें क्या करना है हम सोच तक नहीं पाते।


नौकरी देनेवाले और लेनेवाले दोनों पक्षों को सावधानी से विचार करना होगा क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे के पूरक है। नौकरी देनेवाले लोगों को भी नौकरी के उम्मीदवारों को सही परिवेश देना चाहिए ताकि परिवारों को भी वो समय दे सकें; अर्थनैतिक मंदावस्ता को कारण दिखाकर कर्मचारियों को निकालने से अच्छा है ऐसे उनके बेतन का निर्धारण किया जाएं कंपनी कर्मचारी दोनों फ़ायदे में रहें। जब भी नौकरी लगती है या पदोन्नति होता है हम अचानक खर्चे बढ़ाते हैं तो कंपनियों को सभी कर्मचारियों को इस विषय पर सीखाने का प्रयास करना चाहिए।

हर कंपनी का वार्षिक लक्ष्य होना स्वाभाविक है लेकिन समस्या यह है हमने इसे कभी न ख़त्म होनेवाला एक दौड़ बना दिया है... आज जीवन का तो अंत है पर हर दिन कामों का जो लक्ष्य कंपनियां देती रहती है क्या उसका अंत है। स्वास्थ्य बिगड़ जाए फिर भी पेशेवर दिखाने के लिए कार्यस्थल में उपस्थिति की आशा करना भी कार्यक्षेत्र के समस्या की ओर इशारा करता है।

इस लेख में सरकारी नौकरी के संदर्भ विशद रूप में मैंने नहीं लिखा है। क्योंकि सरकारी नौकरी पाना और काम करने में कई और मूद्दें हैं, जिसके लिए और गहन विचार से लिखूंगी। इस लेख में व्यक्तिगत नौकरी और व्यवसाय पर ही आलोचना को आगे बढ़ाया है।

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