Image by svklimkin from Pixabay विडंबना तो सृष्टि का सत्य है,
हकीकत से दूर एक माया है,
कभी इतिहास के पन्नों में बसी,
यह कहानी शाही व्यवस्था की साया है।
जितना समझते थे हम उसे,
उतना ही उलझता गया हर पक्ष,
कभी न्याय की उम्मीदें पनपीं,
तो कभी प्रजा की आवाज़ में विडंबना आई।
(इतिहास में विडंबना)
राजमहलों में हुए उत्सव,
जब अन्न था कमी, रोग था फैल,
राजा गाए करते थे गीत,
और प्रजा थी भूखी, प्यासे जल।
तभी तो कहा था एक विद्वान ने,
"इतिहास को पढ़ो, पर समझो नहीं।"
हर शासन, हर नीति की छांव में,
कभी सुख था, तो कभी दुख सीन।
(समाज में विडंबना)
महलों में बसी ममताओं की बातें,
जब देश जल रहा था आग में,
समाज की जो उच्च-नीच की परिभाषाएँ थीं,
वो सब झूठी थीं, मिथ्या दीवारें।
शासन था धर्म का, धर्म था शासन का,
लेकिन चुप थे वह लोग जिनके पास था काम,
कभी राजा की सवारी सड़कों पर होती थी,
तो आम आदमी रोटी के लिए भूखा था शाम।
(विडंबना के रंग)
इन्हीं रंगों में डूबी हुई थी,
विडंबना की यह स्याही,
जिसे इतिहास ने कभी नहीं पढ़ा,
कभी महलों ने ना इसे देखा।
जो सृजन हुआ था राजा के कानों में,
वो कभी काम न आया प्रजा के गान में।
फिर क्यों न यह सोचा जाए,
कि हर सत्ता का अंत होता है,
जैसे हर रात के बाद दिन की धूप,
और हर सृजन के बाद मिट्टी का रूप।
विडंबना यह तो शाश्वत है,
कभी न समझने की एक भूमिका है,
समझते हैं हम खुद को पवित्र,
पर हर सत्ता में कुछ न कुछ है गलत।
इतिहास के पन्नों में यह विडंबना छिपी,
जो हर समय हमें दिखा जाती है,
कि कभी-कभी सच यही होता है,
जो नज़र आता नहीं, वह सबसे बड़ा सच होता है।
. . .