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इस समाज की उत्पत्ति बेशक व्यक्ति से, उसके वातावरण के साथ मिलकर हुई है। व्यक्ति ने आरंभ से लेकर वर्तमान तक बहुत तरक्की की, बदलाव किए — अपने रहन-सहन, खान-पान की आदतें, मनोरंजन, शादी, तथा अपनी पीढ़ी को आगे बढ़ाने जैसे अनेक पहलुओं में। और अंत में इस शरीर का परित्याग भी, जो कि जन्म की तरह ही एक प्राकृतिक एवं सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
किन्तु जब मनुष्य ने हर चीज़ अपने-अपने तरीके से करनी शुरू की — अपनी भौगोलिक दशाओं से परे जाकर अपने खाने-पीने, रहने की आदतें, विवाह तथा वंशवृद्धि तक — तब उसने यह भी समझ लिया कि हर कुछ उसके द्वारा किया जा सकता है, उसका अपने वातावरण पर पूर्ण नियंत्रण है। और इसी प्रकार, उसका अपने शरीर पर भी।
यहीं से एक बात और उत्पन्न हुई कि मनुष्य को यह भी आभास हो गया कि वह अपना जीवन स्वयं समाप्त भी कर सकता है।
प्राचीन काल में ऋषि-मुनि योग-साधना या समाधि में चले जाया करते थे और इस प्रक्रिया में अगर उनके प्राण चले जाते, तो उसे मोक्ष या फिर परमसमाधि कहा जाता था — जो एक प्रकार की आत्महत्या ही कही जा सकती है, लेकिन नहीं कही जा सकती क्योंकि वे यह जान नहीं करते हैं कि वे अंततः मृत्यु को ही प्राप्त होंगे।" थे, उनका उद्देश्य आत्महत्या नहीं था। वहीं दूसरी तरफ जब कोई व्यक्ति सामान्य जीवन जी रहा होता है लेकिन अचानक से उसका अपने प्राण ले लेने का विचार आ जाए, यह सोचना और समझना एक गंभीर विषय है। ऐसा क्यों हुआ होगा? क्या अवसाद, या समाज से कटकर, अपनी परिस्थितियों से भागने के लिए जानबूझकर अपने हाथों से जीवन का अंत कर लेता है, तो यह आत्महत्या कहलाती है।
जो कि वर्तमान में किसी भी देश के लिए, उसके नागरिकों के लिए, किसी भी परिवार में उसके सदस्यों तथा सहयोगियों के लिए यह सोचने का विषय बन जाती है
इस लेख में हम आत्महत्या, उसके कारणों तथा सोशल मीडिया की आत्महत्या में भूमिका का उल्लेख करेंगे।
उससे पहले हम आत्महत्या को फ्रांसीसी समाजशास्त्री एमिल दुर्खाइम (Émile Durkheim) द्वारा दिए गए आत्महत्या के सिद्धांत से समझेंगे, जो उन्होंने 1897 में अपनी पुस्तक "Le Suicide" में प्रस्तुत किया था।
इसमें व्यक्ति खुद को समाज से कटा हुआ महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि सभी उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, जिससे वह इस समाज से अलग होना चाहता है। उसे अपने अहम को बचाने का एकमात्र रास्ता यही नज़र आता है।
इसमें व्यक्ति का अपने समाज से बहुत अधिक मेल रहता है, जिससे उसमें उनके लिए कुछ भी करने की इच्छा रहती है। वह दिखाना चाहता है कि वह उनसे कितना जुड़ा हुआ है और फिर वह अपने लोगों के लिए आत्महत्या भी कर सकता है, जिसे वह अपने लिए नहीं बल्कि उनके भले के लिए करना चाहता है। इसमें आते हैं सैनिक और कुछ अलग-अलग धर्मों के लोग, जो अपने बलिदान को अपने समाज की उपलब्धि का हिस्सा मानते हैं।
इसमें आते हैं वे लोग जो अचानक से किसी समस्या में फँस जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब इससे बाहर नहीं निकला जा सकता, बल्कि समय के साथ स्थिति और कठिन हो सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए ये लोग आत्महत्या का सहारा लेते हैं। इसके अंतर्गत आते हैं व्यापारी और जल्दी निराश होने वाले लोग।
इसमें आते हैं वे लोग जो बहुत समय तक किसी समस्या से ग्रसित होते हैं। पहले शायद ये लोग अपनी समस्या से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं, लेकिन जब स्थिति वैसी ही बनी रहती है, तो निराशा के अलावा कुछ नहीं मिलता। फिर ये लोग खुद को ही अपनी समस्या का कारण मान बैठते हैं कि "समस्या हमारे ही जीवन में है," और सोचते हैं कि ऐसे निरर्थक जीवन का क्या होगा। इसके चलते वे आत्महत्या को ही एकमात्र हल मानते हैं।
इन सभी प्रकार की आत्महत्याओं द्वारा व्यक्ति के जीवन और उसकी छवि पर प्रभाव पड़ता है। लेकिन केवल व्यक्ति विशेष ही इसकी जिम्मेदारी नहीं होता — समाज का भी बड़ा योगदान होता है।
अगर किसी ने अहमवादी आत्महत्या की है, तो उसके पीछे यह हो सकता है कि समाज से जुड़ी उसकी कोई पहचान टूट रही हो।
अगर कोई परोपकारी आत्महत्या करता है, तो उसे समाज ने ही यह विश्वास दिलाया होगा कि उसका बलिदान किसी बड़े उद्देश्य का हिस्सा बन सकता है।
आदर्शहीन आत्महत्या करने वाले को भी समाज का डर हो सकता है — कि अगर वह असफल हुआ तो समाज उसका मज़ाक उड़ाएगा या उसे गिरा हुआ मानेगा।
भाग्यवादी आत्महत्या में भी व्यक्ति को लगता है कि समस्या सिर्फ मेरे ही भाग्य में है तो मेरी दशा कौन समझेगा? यह समाज उन्हीं लोगों के लिए है जो सफल और संपन्न हैं।
आज का युग डिजिटल समाज का है, सोशल मीडिया ने एक नया समाज बना दिया है, जो दिखता तो "वर्चुअल" है, लेकिन उसका प्रभाव वास्तविक जीवन पर गहरा होता है।
व्यक्ति इस समाज में अपने ही नहीं, बल्कि अलग विचारधारा के सामाजिक व्यक्तियों के संपर्क में भी आता है, जिसमें से कुछ की तरफ वह खुद आकर्षित होता है और कुछ उसकी तरफ। फिर यह डिजिटल समाज भी उसी तरह काम करता है जिस तरीके से पारंपरिक समाज काम करता आ रहा है।
इस डिजिटल समाज में व्यक्ति अपनी ही नहीं, दूसरों की विचारधारा और व्यवहार से भी प्रभावित होता है। यहाँ लोग आपकी उपलब्धियों पर ताली बजाते हैं, लेकिन एक गलती होते ही आलोचना या ट्रोलिंग शुरू कर देते हैं।
कई बार व्यक्ति अपनी गलतियों का खुद जिम्मेदार होता है, लेकिन कई बार यह समाज — विशेषकर नकारात्मक सोच वाले लोग — व्यक्ति को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देते हैं।
सोशल मीडिया पर कुछ लोग दूसरों की निजी ज़िंदगी में इस तरह दखल देने लगते हैं जैसे उन्हें पूरा अधिकार हो। पहले यही लोग उसकी सफलता का जश्न मनाते हैं और फिर वही लोग सबसे पहले उसकी नाकामी पर उसे नीचा दिखाते हैं।
कुछ लोग तो शुरू से ही व्यक्ति को पसंद नहीं करते और जैसे ही कोई गलती होती है, तुरंत उसे मानसिक रूप से तोड़ने के लिए तैयार रहते हैं।
सोशल मीडिया पर अपराध भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं जितनी तेजी से इसके फीचर्स और इसकी सुलभता बढ़ी है। साइबर बुलिंग, उत्पीड़न, धोखाधड़ी, स्कैम्स, स्टोकिंग आदि जैसे मामलों ने व्यक्ति को मानसिक, भावनात्मक और वित्तीय तनाव का शिकार बना दिया है।
और कई बार इन सभी चीज़ों का ही अंजाम यह होता है कि एक जीवित व्यक्ति का उसी के हाथो द्वारा उसका जीवन नष्ट हो जाता है
ऐसा नहीं है कि समाज हमेशा ही आत्महत्या का कारण बनता है। कई बार यही समाज व्यक्ति को जीने की प्रेरणा भी देता है, उसे संघर्ष करने की ताक़त देता है।
इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि समाज व्यक्ति से हमेशा जुड़ा रहता है — चाहे वह उसे ऊपर उठाए या नीचे गिराए।
आज जब आधुनिकता के साथ डिजिटल युग भी है, तो व्यक्ति पर चारों ही प्रकार का भार रहता है और यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह कैसे अपनी परिस्थितियों व समस्याओं का सामना करता है। लेकिन कई बार समाज की भी इसमें अहम भूमिका होती है।
आज की भागदौड़ और ज़िंदगी जीने के ढंग ने जीवन में निजता ला दी है, जिससे यह हुआ है कि व्यक्ति सोशल मीडिया पर तो खुद को "कूल" दिखाता है — क्योंकि यह वर्चुअल समाज किसी हद तक दिखावे का भी समाज है... लेकिन अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को लेकर अंदर ही अंदर घुटता रहता है या अपनी शक्ति क्षीण होने तक खुद को इस स्थिति से निकालने का अकेले ही प्रयास करता है।
कई बार व्यक्ति सफल भी हो जाता है, यह भागदौड़ भरी ज़िंदगी उसे एक पल के लिए इस स्थिति से "एस्केप" यानी मुक्ति भी देती है, किन्तु बहुत से लोग ऐसा नहीं कर पाते या यह तरीका उन पर काम नहीं करता। ऐसे में कुछ संस्थाएं होती हैं जो उनका मनोबल बढ़ाने में काम आती हैं।
इसी उद्देश्य से विशेष हेल्पलाइन नंबर जारी किए जाते हैं और यही कारण है कि आजकल मनोचिकित्सकीय थैरेपी (psychiatric therapy) बहुत प्रचलित हो गई है, इसके साथ ही विशेष “साइबर सेल्स” की भी व्यवस्था की गई है, जो ऑनलाइन उत्पीड़न से प्रभावित व्यक्तियों को सुरक्षा और सहायता प्रदान करती हैं।
हम सभी इस समाज का हिस्सा हैं, और इसी नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपने आसपास के लोगों के प्रति संवेदनशील रहें — चाहे वे हमारे परिजन हों, मित्र हों या सिर्फ जान-पहचान वाले। बहुत बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति किसी मानसिक या भावनात्मक परेशानी से गुज़र रहा होता है, लेकिन वह उसे किसी से कह नहीं पाता। हो सकता है हमारे पास उसकी समस्या का कोई ठोस समाधान न हो, लेकिन केवल उसकी बात सुन लेना ही उसके लिए बड़ा सहारा बन सकता है।
कई समस्याएं ऐसी होती हैं जो व्यक्ति ने अपने मन में ही उलझन के रूप में पाल रखी होती हैं, और जब वह उनके बारे में खुलकर बात करता है, तो वे बातें स्वतः ही हल होती प्रतीत होती हैं। एक संवेदनशील समाज की यही पहचान होती है — जहाँ लोग एक-दूसरे की सुनते हैं, समझते हैं, और उन्हें यह एहसास दिलाते हैं कि वे अकेले नहीं हैं।
समाज का आत्महत्या पर सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही प्रभाव पड़ता है, और आत्महत्या के अध्ययन में यह महत्वपूर्ण बात है। दुर्खाइम का आत्महत्या का सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है, खासकर जब हम इसे आधुनिक डिजिटल समाज से जोड़कर देखते हैं। व्यक्ति की आत्महत्या को केवल उसकी व्यक्तिगत कमजोरी मान लेना उचित नहीं है, समाज की भूमिका को समझना और उस पर जिम्मेदारी लेना भी उतना ही जरूरी है।