enter image description here

ये कथा महाभारत के भीष्म पर्व से ली गई है. युद्ध में कौरवों के सेनापति भीष्म का पराक्रम कल्पना से परे था. पाण्डव पक्ष में हाहाकार मच गया. भीष्म के धनुष से असंख्य बाण छूट रहे थे. पाण्डवों की सेना धराशयी हो रही थी. तभी भीष्म के पास दुर्योधन आता है और कहता है पितामह हमें पाण्डवों का वध चाहिए, क्योंकि जब तक वे जिंदा हैं, हम जीतने से रहें.

दुर्योधन भीष्म से कहता है "कभी-कभी मुझे लगता है कि आप उन्हें मारना ही नहीं चाहते. हैं तो आप हमारे पक्ष में पर, आपकी कृपादृष्टि पाण्डवों पर ही है".
दुर्योधन की इन बातों को सुनकर भीष्म आहत होकर पांडवों के वध की प्रतिज्ञा करते हैं. आजीवन निष्ठा की डोर से बंधे उनपर कोई प्रश्न उठाए ये उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं था. जब उनसे नहीं रहा गया तो भीष्म ने तरकस से पांच स्वर्ण तीर निकालते है और उसे मंत्रों से अभिमंत्रित करने के बाद दुर्योधन से कहते हैं " कल इसी से पांचों पांडवों का वध होगा".

भीष्म के इस प्रतिज्ञा की ख़बर जानकार पाण्डव पक्ष में मायूसी छा जाती है. सब चिंतित हो जाते हैं. तब द्रौपदी सीधे श्रीकृष्ण के शिविर में जाती है और सारी बातें बताती है. योगेश्वर श्रीकृष्ण ये सब बातें पहले से ही जानते थे. फिर भी न जानने का बहाना बनाते हुए उदासीन स्वर में कहते हैं- "जब पितामह ने प्रतिज्ञा कर ली है तो मैं उसे अन्यथा करने में असमर्थ हूं".

द्रौपदी इस पर झल्ला जाती है. उसे श्रीकृष्ण से इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी. तब पांचाली रुंधे गले से बोली- 'तब तुम मेरी थोड़ी सहायता कर दो माधव! मैं विधवा होकर मरने की बजाय अपना शरीर चिता में भस्म करना ज्यादा पसंद करूंगी. मेरे लिए चिता सजवा दो माधव और अपने हाथों से मुखाग्नि दे दो'.

श्रीकृष्ण की लीला तो अपरंपार है. उनकी लीला तो बस वहीं जाने. वे सचमुच उठ खड़े हुए- 'याज्ञसेनि! तुम्हारा निर्णय तुम्हारी जैसी पतिव्रता एवं सती के योग्य है. मैं तुम्हारी यह सहायता अवश्य करूंगा. पहले तुम अपने पतियों से आज्ञा ले लो'.
द्रौपदी ने उसी क्षण कह दिया- ' हे केशव! जब तुम सामने हो तो मुझे किसी से आज्ञा लेने की क्या जरूरत है?

श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा- 'ठीक है मैं चिता सजवा देता हूं, परंतु एक सती को सम्पूर्ण श्रृंगार करके चिता में अपनी शरीर त्यागना चाहिए, पहले तुम तैयार हो जाओ'.

श्रीकृष्ण सेवकों को चिता सजाने का आदेश देते हैं. उसी अर्धरात्रि में चिता सजाई जाती है. श्रृंगार करके द्रौपदी भी आ जाती.
द्रौपदी चिता की ओर बढ़ती है, तभी श्रीकृष्ण रोकते है- ' ठहरो पांचाली! पहले तुम सभी गुरुजनों को प्रणाम कर आओ, उनकी आज्ञा के बिना यह करना अनुचित होगा'.

पांचाली ने तुरंत जवाब दिया- 'हे केशव! मैं इस अर्धरात्रि में कहीं नहीं जाऊंगी. तुम्हीं सर्वरूप हो और यहां हो ही'.

तब योगेश्वर केशव बोले- 'अच्छी बात, किन्तु तुमको चिता की महापरिक्रमा अवश्य करनी चाहिए'.

द्रौपदी चौंक गयी- 'यह क्या होता है? मैंने तो बस साधारण परिक्रमा सुनी है. 'हे माधव! जो तुम कहो उतनी परिक्रमा कर लूं'.

श्रीकृष्ण ने कहा- 'तुम जानती ही हो कि तीर्थों की एक अन्तर्वेदी परिक्रमा होती है, एक पंचक्रोशी परिक्रमा और एक वहिर्वेदी बड़ी परिक्रमा. ऐसे ही चिता की भी एक सामान्य परिक्रमा, एक मध्यम परिक्रमा तथा एक महापरिक्रमा होती है. साधारण चितादाह में सामान्य परिक्रमा उचित है. सती यदि पति के साथ चितारोहण करती हो तो उसे मध्यम परिक्रमा करनी चाहिए; किन्तु तुम अभी जिस स्थिति में हो, उसके लिए 'महापरिक्रमा' ही धर्म संगत है'.

द्रौपदी अधीर होकर बोली- 'मैं नहीं जानती कि यह महापरिक्रमा कितनी बड़ी होती है'.

इसपर केशव बोले- ' पांचाली! तुम चिंता मत करो, मैं आगे-आगे चलता हूं. तुम बस मेरे पीछे-पीछे चलती रहो'.

कुछ दूर चलकर श्रीकृष्ण बोले- 'तुम्हारे पैरों में पांचाल के बने पादुका हैं. इससे तुम आसानी से पहचान ली जाओगी. इधर रणभूमि में लोगों के शिविर हैं. इसलिए इसे उतार दो'.

द्रौपदी अपने जूते उतार देती है. श्रीकृष्ण आगे-आगे चलते रहें और द्रौपदी उनके पीछे-पीछे चलती गई. कितनी देर, कितनी दूर चलना पड़ेगा- यह पूछना व्यर्थ था. महापरिक्रमा करनी है तो वह मामूली दूरी तो होगी नहीं जरूर बड़ी ही होगी.
चलते-चलते सहसा श्रीकृष्ण एक शिविर के सामने रूक जाते हैं और द्रौपदी की ओर स्नेहपूर्ण नज़र से देखते हुए बोले- 'सखि! यह तुम्हारे कुल के सबसे बड़े, सम्मानीय एवं पूजनीय पितामह भीष्म का शिविर है. तुम यहां तक आ ही गई हो तो शिविर में जाकर उन्हें प्रणाम कर आओ. सौभाग्यवती महिलाओं तथा ब्राह्मणों के प्रवेश पर इस शिविर में कोई प्रतिबन्ध नहीं है.'

द्रौपदी को कुछ पता नहीं चल पा रहा था कि माधव उसके साथ ये कैसा लीला कर रहे हैं. परंतु हां उसने अब अनुमान लगा लिया कि केशव कोई न कोई प्रयोजन से ही यहां ले आये होंगे.

द्रौपदी शिविर की ओर बढ़ती है, तभी श्रीकृष्ण उसे सावधान करते हुए कहते हैं- 'पितामह इस समय ध्यान करने बैठे होंगे. तुम इतनी सावधानी रखना कि प्रणाम करते समय अपने आभूषणों की झंकार जरूर कर देना ताकि उन्हें पता चल सके कि कोई नारी प्रणाम कर रही है'.

द्रौपदी शिविर के भीतर चली गई. श्रीकृष्ण बाहर ही खड़े रहें. द्रौपदी ने प्रणाम करते समय श्रीकृष्ण के बताए अनुसार आभूषण को झंकृत कर दिया. ध्यानस्थ पितामह को लगा कि कल के युद्ध में सम्मिलित होने वाले किसी शूर की पत्नी उनसे आशीर्वाद लेने आई है. उन्होंने आशीर्वाद दे दिया- 'पुत्री! सौभाग्यवती भव!'

अब द्रौपदी बोल उठी- 'पितामह! जिसके सौभाग्य को कल ही समाप्त कर देने की आपने प्रतिज्ञा कर ली है उसे आपका यह आशीर्वाद कैसे मिलेगा?'

भीष्म चौंककर आंखे खोलते हैं- 'याज्ञसेनि तुम! तुम इस मध्यरात्रि में यहां कैसे? तुम्हें लाने वाला कहां है?

तब द्रौपदी भीष्म से कहती है- पितामह! मुझे यहां माधव लाए हैं. वे बाहर रूके हुए हैं.

भीष्म द्रौपदी से कहते है- पुत्री! मैं सब जान गया. तुम यहां अकारण नहीं लाई गई हो. वह छलिया जिसकी रक्षा करने वाला है, उसे कौन मार सकता है. भला वासुदेव के सामने किसी का क्या मोल? होगा वहीं जो वासुदेव चाहते है. तनिक मुझे उसके दर्शन तो करा दो!

भीष्म जल्दीबाजी में उठते हैं और तेज कदमों से शिविर के बाहर खड़े श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर पड़ते हैं' भक्तवत्सल! मैं आपका ही ध्यान कर रहा था. भीष्म शिकायत भले लहजे में माधव से कहते है- क्या मैंने थोड़ा भी पुण्य नहीं किया है जो आप यहां तक आकर बाहर खड़े रहें?

भीष्म श्रीकृष्ण को अपने शिविर के अंदर ले आते है और उनकी पूजा अर्चना करते हैं. जब केशव द्रौपदी को साथ लेकर जाने की अनुमति मांगते है तो भीष्म ने वे पांच बाण पांचाली को दे दिए. इसप्रकार श्रीकृष्ण ने पाण्डवों की रक्षा के लिए इस लीला को रचा.

Discus