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अजीब कशमकश का माहौल है. मानो पूरी दुनिया बदल सी गई हो. लोग घर के अंदर सेफ हैं और बाहर अनसेफ. कुदरत चीख-चीखकर इंगित कर रही है कि अभी वक्त है सुधर जाओ. अन्यथा तिनके की तरह नष्ट हो जाओगे. सही मायने में कोरोना काल 'आत्म दीपो भव', जिसका अर्थ होता है 'अपना दीपक स्वयं बनो' का है. यह वक्त है आत्ममंथन का, खुद को तलाशने का और पहले की गई ग़लतियों से सबक लेकर सुधर जाने का.

दरअसल, ये प्रसंग महात्मा बुद्ध और उनके प्रिय शिष्य आनन्द के बीच का है. जब आनन्द भगवान बुद्ध से यह सवाल करते है कि आपके अनुपस्थिति में हमें सत्य का मार्ग कौन दिखलाएगा? जब सच्चाई का राह दिखाने के लिए आप जैसा इस धरती पर कोई नहीं होगा तब हम कैसे अपने जीवन को दिशा दे सकेंगे? इसपर भगवान बुद्ध जवाब देते हुए कहते है “अप्प दीपो भव” अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो.

भगवान बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाओ. इससे तुम मुझपे आश्रित हो जाओगे. तुम मेरी बैसाखी के सहारे कितनी दूर चल लोगे? हां, कुछ दुर तक तो जरूर चल लोगे लेकिन इससे मंजिल तक न पहुंच पाओगे. आज मैं साथ हूं, कल मैं साथ न रहूंगा. फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना होगा. मेरी साथ की रोशनी के भरोसे से मत चलना, क्योंकि थोड़ी देर संगत से पूरे सफर को तय नहीं कर पाओगे. तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन तो हो जाओगे, फिर उसके बाद हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे. मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा. अपना प्रकाश उत्पन्न करो. अप्प दीपो भव!

भगवान बुद्ध के कहने का आशय यह है कि किसी दूसरे व्यक्ति से आस लगाने के स्थान पर खुद आत्मनिर्भर बनो. अपना मार्ग स्वयं पहचानो. खुद से प्रेरणा लेकर जीवन की समस्याओं से फाइट करो. ऐसा करके स्वयं तो प्रकाशित होंगे ही, साथ-ही-साथ दूसरों के लिए भी एक प्रकाश पुंज बन जाओगे.

कोरोना काल की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रहा कि लोग अंदर से मजबूत हुए हैं. याद कीजिए पिछले सालों के हालात जब इस महीने में करोड़ों लोग वायरल फीवर से बीमार पड़ जाते थे. हॉस्पिटल और डॉक्टरों के क्लिनिक्स मरीजों से भरे रहते थे. लोगों को वायरल फिवर, जुकाम, खांसी और अन्य सीजनल बीमारियां घेरे रहती थीं. परंतु इस साल हाल बिलकुल अलग दिखाई पड़ रहा है. इसकी वजह ये है कि कोराना के आते ही लोगों ने अपने आपका ध्यान रखना शुरू कर दिया हैं.

लोग पहले से कही अधिक सतर्क, सजग, सावधान और आत्मानुशासित हो गए हैं. उन्होंने अपनी आत्मशक्ति और अंतः प्रेरणा का विस्तार किया है. लोगों ने डर से ही सही भगवान बुद्ध के विचारों को आत्मसात किया हैं. वैसे भी ये कहावत तो काफी प्रचलित है 'बिन भय होय न प्रीत'. खैर, ये कहावत बाद में बना. असल में यह रामचरित मानस में तुलसीदास जी द्वारा लिखा गया एक दोहा है. पूरा दोहा कुछ इस तरह से है:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत.
बोले राम सकोप तब, बिन भय होय न प्रीत.”

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