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राज्य सभा सांसद अमर सिंह का लंबी बीमारी के बाद शनिवार 1 अगस्त को सिंगापुर के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे 64 वर्ष के थे. उनके निधन से सियासत, सिनेमा और बिजनेस जगत शोकाकुल हो गया. पीएम नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के जरिए अमर सिंह के निधन पर शोक व्यक्त किया.

पीएम मोदी ने लिखा, "वह काफी ऊर्जावान नेता थे और उन्होंने पिछले कुछ दशकों में देश की राजनीति के अहम उतार-चढ़ाव काफी करीब से देखे थे.वो अपने जीवन में दोस्ती के लिए जाने जाते रहे हैं. उनके निधन की खबर सुनने से दुखी हूं. उनके परिवारजनों और दोस्तों के प्रति गहरी संवेदनाएं व्यक्त करता हूं."

चाहे राजनीति हो या उद्योग या फिर बॉलीवुड. सभी क्षेत्रों में अमर सिंह की समान धाक बनी रही. तीनों क्षेत्रों में अमर सिंह ने ख़ूब दोस्त बनाए. सभी दलों के बड़े नेताओं से दोस्ती रही. सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के दाहिने हाथ के रूप में उनकी पहचान रही. खास इतने कि मुलायम बिना अमर के कोई फैसला नहीं लेते थे. इसी वजह से यह सवाल हमेशा उठता रहा कि 'आख़िर अमर सिंह में ऐसा क्या है जिसके चलते मुलायम सिंह का उन पर भरोसा हमेशा बना रहा?'

दरअसल, अमर अपनी खूबियों के कारण हर राजनीतिक दल के जरूरत बने रहें. सियासत में संसाधनों की बहुत ज़रूरत होती है और अमर सिंह इन्हें जुटाने में 'मास्टर' थे. अमर का स्वभाव पानी की तरह था, जल्दी ही वे लोगों से घुलमिल जाते और उसे अपना बना लेते थे. मुलायम-अमर के रिश्ते की नींव एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुई थी. देवेगौड़ा हिंदी नहीं बोल पाते थे और मुलायम अंग्रेजी. ऐसे में देवेगौड़ा और मुलायम के बीच दुभाषिए की भूमिका अमर सिंह ही निभाते थे. तब से शुरू हुआ ये साथ, लगभग अंत तक जारी रहा.

चाहे वो जया प्रदा को सांसद बनाना हो, या फिर जया बच्चन को राज्य सभा पहुंचाना हो, या फिर संजय दत्त को पार्टी में शामिल करवाना रहा हो, ये सब अमर सिंह का करिश्मा था. उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए शीर्ष कारोबारियों को एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया. लेकिन पिछले कुछ सालों में मुलायम परिवार से इतनी खटास हुई कि सबसे ज्यादा निशाने पर वहीं रहे.

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अमर सिंह का सपा के ही कद्दावर नेता आजम खान से जबरदस्त टकराव हुआ. इस टकराव में पहले आजम खां की सपा से विदाई हुई और जब आजम की वापसी हुई तो अमर सिंह की विदाई हो गई. पार्टी में अखिलेश यादव के बढ़ते प्रभाव के कारण सपा में उनका दखल लगातार घटता रहा. लेकिन 2016 में जब वो इंडिपेंडेंट कैंडिडेट के तौर पर राज्य सभा का चुनाव लड़े तो मुलायम सिंह ने पूरा सपोर्ट किया.

इसी दौरान समाजवादी पार्टी में भारी झगड़ा हुआ जो मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव और बेटे अखिलेश सिंह के बीच तनातनी की वजह से हुई. तब अखिलेश अमर सिंह से बेहद खफा रहे और पार्टी के साथ-साथ परिवार में झगड़े के लिए 'बाहरी व्यक्ति' को जिम्मेदार बताया. कहते है कि अखिलेश यादव का इशारा अमर सिंह की ही तरफ था. अमर सिंह पर ये भी आरोप लगा कि वो बीजेपी के इशारे पर समाजावादी पार्टी को तोड़ने का इंतजाम कर रहे हैं.

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लेकिन मुलायम-अमर के बीच दोस्ती की दीवार नहीं दरकी. इस बात का अंदाजा आप भरी सभा में मुलायम सिंह यादव द्वारा अमर सिंह का विरोध करने वालों को डांटते हुए चुप कराने से लगा सकते हैं. इस डांट के दायरे में मुलायम के बेटे और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी रहे. मुलायम सिंह की बात सुन कर हर कोई कुछ देर के लिए खामोश हो गया. तब मुलायम सिंह ने कहा था - ‘अमर सिंह ने मुझे बचाया है. वो न बचाते तो मुझे सात साल की सजा हो जाती.’

बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमर सिंह की इतनी बनने लगी थी कि दोनों एक दूसरे को परिवार का सदस्य बताते थे. जब अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी कर्जे़ में डूब गई थी और अमिताभ अपने करियर के सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे और कोई उनकी मदद के लिए तैयार नहीं था, तब अमर सिंह ही थे जो कथित तौर पर दस करोड़ की मदद लिए अमिताभ के साथ खड़े नज़र आये थे. उद्योग जगत में अनिल अंबानी और सुब्रत राय सहारा जैसे कारोबारियों के साथ भी अमर सिंह की गाढ़ी दोस्ती रही.

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अमर सिंह राजनीति की बयार को खूब समझ लेते थे और वे किस तरह से हर पार्टी में पहुंच रखते थे इसका अंदाज़ा लोगों को 29 जुलाई, 2018 में लखनऊ में हुआ. योगी आदित्यनाथ सरकार की ग्राउंड सेरेमनी में अमर सिंह भगवा कुर्ता में फ़िल्मकार बोनी कपूर के साथ पहुंचे थे. लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में उनका नाम ले लिया. पीएम मोदी ने कहा, अमर सिंह यहां बैठे हैं, सबकी हिस्ट्री निकाल देंगे.

मोदी ने जब अमर सिंह का जिक्र किया तो अमर सिंह हाथ जोड़कर शुक्रिया जताया. खास बात यह थी कि इस आयोजन में अमर सिंह की कुर्सी बीजेपी के कई नेताओं से आगे थी. अमर के इस कदम को भाजपा से नजदीकी के रूप में देखा गया. फिर उसके बाद उन्होंने 22 फरवरी 2019 को अपना तरवा का मकान और जमीन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ी संस्था सेवा भारती संस्थान के नाम कर दी थी.

इस जमीन की कीमत करीब 12 करोड़ रुपए थी. ऐसे में कयास लगाए कि अब वे भाजपा में शामिल हो जाएंगे. लेकिन उन्होंने ना तो बीजेपी ज्वाइन किया और ना चुनाव लड़ा. लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के टिकट पर आजम ख़ान के ख़िलाफ़ जया प्रदा को उम्मीदवार ज़रूर बनवा लिया.

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जय प्रदा के चुनाव प्रचार में तबियत ख़राब होने के बाद भी वे जुटे रहे. इस दौरान हुई एक मुलाकात में जया प्रदा ने कहा था कि साहब इतनी मेहनत कर रहे हैं लग रहा है कि मैं आसानी से चुनाव जीत जाऊंगी. हालांकि जया प्रदा चुनाव हार गईं लेकिन आज़म खान को चुनाव जीतने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी.

राजनीति का ये चेहरा भले ही दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन अपने पीछे वो अमर निशां छोड़ गए, जिसकी दोस्ती की गूंज सत्ता के गलियारों से लेकर ग्लैमर की दुनिया तक में सुनाई देती रहेंगी. उन्होंने अंतिम सांस तक ये दोस्ती निभाई भी. अब जब वे नहीं रहें, उनकी दोस्त सबको बहुत याद आएंगी.

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