दिग्गज भाजपा नेता एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंत सिंह का रविवार 27 सितंबर को निधन हो गया. उन्होंने दिल्ली के आर्मी अस्पताल में अंतिम सांस ली. 2014 चुनाव से एक दिन पहले बाथरूम में गिर जाने की वजह से उनके सिर में गहरी चोट आई. उसके बाद वे कौमा में चले गए और पिछले 6 सालों से लगातार कोमा में थे. वे 82 साल के थे. राजस्थान के बाड़मेर जिले से ताल्लुक रखने वाले जसवंत घुड़सवारी, संगीत, किताबों, गोल्फ़ और शतरंज के शौकीन थे.

बात उनकी सेना से सियासत तक के करियर पर करे तो दोनों ही जगह उन्होंने अपनी काबिलियत से वो मुकाम हासिल किया जो सबको नसीब नहीं होती. उनके ज़िंदगी का सफरनामा जितना रोचक है उतना ही प्रेरणादायक भी हैं. जसवंत अपनी प्रतिभा एवं काबिलियत के दम पर सेना में मेजर रैंक तक पहुंचे. उन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध में हिस्सा भी लिया था और अपनी ज़ाबाजी से दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए. फिर 1966 में उन्होंने सेना की नौकरी से त्यागपत्र देकर कुछ समय के लिए जोधपुर के महाराजा गज सिंह के निजी सचिव के रूप में काम किया. इस दौरान वे राजमाता कृष्णाकुमारी की विश्वास पात्र बन गए और राजमाता के कहने पर भैरोसिंह शेखावत उन्हें राजनीति में लेकर आए.

पार्टी में एंट्री कर चुके जसवंत सिंह के टैलेंट को राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने पहचाना और उन्हें आगे बढ़ने में सहयोग करती रहीं. इसके पिछे भी एक वाकया जुड़ी हई है. दरअसरल, विजयाराजे के सलाहकार सरदार आग्रे की पत्नी व जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर रिश्ते में बहनें थी. इस मार्फत जसवंत सिंह को न केवल विजयाराजे का भरपूर सहयोग मिला बल्कि उनके सहयोग से वे पार्टी की पहली पंक्ति के नेताओं में भी स्थान बनाने में सफल हुए. इसी दौरान उनकी मुलाकात अटल बिहारी वाजपेयी से हुई.

अपने कुशल व्यवहार के दम पर जसवंत ने शीघ्र ही अटल का विश्वास हासिल कर लिया. इसके बाद तो जो कुछ हुआ वो इतिहास के सुनहरे पन्नों पर दर्ज हो चुका है. आपको बता दें कि जसवंत सिंह भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. 1980 में वो भाजपा की ओर से पहली बार राज्य सभा सांसद बने.


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जसवंत सिंह के लोकसभा में पहुंचने का सफर 1989 से शुरू हुआ, जब वे जोधपुर से जीत दर्ज करने में कामयाब रहे. उसके बाद 1991 एवं 1996 में चित्तौड़गढ़ से जीते फिर 2009 में दार्जिलिंग में जीत दर्ज की. पूर्व प्रधानमंत्री अटल के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौरान तमाम बड़े मंत्रालयों में कैबिनेट मंत्री रहे. वे 1996 से 2004 के दौरान रक्षा, विदेश और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मिनिस्टरी का जिम्मा संभाला.

1996 में वो अटली की 13 दिन की सरकार में फाइनेंस मिनिस्टर का कार्यभाल संभाला. जब वाजपेयी दोबारा सत्ता में आए तो वो जसवंत सिंह को फिर वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके लिए तैयार नहीं थी. वाजपेयी आरएसएस के इस रवैये से खफा भी हुए. फिर बाद में अटल ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया. फिर कुछ दिनों बाद वाजपेयी ने उन्हें विदेश मंत्री बना दिया और वो 2002 तक भारत के विदेश मंत्री रहे.

जसवंत सिंह दो टूक बात अनुशासन और सख्त निर्णय लेने के लिए जाने जाते थे. शायद सेना में रहने के वजह से उन्हें ये चीजें विरासत में मिली थीं. वे खुद को 'लिबरल डेमोक्रेट' बताते थे. इस कारण वे अटल के बेहद क़रीबी तो बन पाये. पर, भाजपा के एक गुट के नेताओं ने जसवंत सिंह के साथ कभी भी सहज महसूस नहीं किया. वाजपेयी और शेखावत जैसे पहली पंक्ति के नेताओं की वजह से वो न सिर्फ़ पार्टी में बने रहे बल्कि तमाम बड़े पदों पर रहें और खूब तरक्की की. एक तरफ अटल जी उनकी अंग्रेज़ी भाषा पर पकड़ को लेकर उनके मुरीद थे. वहीं दूसरी तरफ शेख़ावत के साथ उनका ठाकुर और गृहराज्य का कनेक्शन था.


जसवंत सिंह अटल के 'ट्रबल शूटर' के रूप में विख्यात रहे. चाहे बात जयललिता को मनाने की हो, आगरा शिखर वार्ता की रणनीति बनाने की हो या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन की भारत यात्रा कराना हो ये सभी उनके ही प्रयासों के कारण मुमकिन हो सका. जब 1999 में कंधार विमान अपहरण हुआ था. तब जसवंत ही वो शख्स थे जो वहां फंसे हुए भारतीय को सुरक्षित वापस लेकर लौटें. जसवंत के पास अटल के हर मुश्किल का कोई न कोई सॉल्यूशन जरूर होता था. इसी वजह से अटल उन्हें अपना 'हनुमान' कहते थे. 


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