कोरोना महामारी के बीच 14 सितंबर से 18 दिन चलने वाले संसद सत्र के लिए व्यापक बदलाव किए गए हैं. बदलावों के अनुसार मानसून सत्र में प्रश्नकाल नहीं होगा लेकिन शून्य काल रहेगा, लेकिन उसकी अवधि घटा कर 30 मिनट कर दी गई है. प्राइवेट मेंबर (सांसद) बिल पेश नहीं कर सकेंगे. शनिवार और रविवार छुट्टी नहीं होगी. ऐसा इसलिए ताकि संसद का सत्र जितने घंटे चलना ज़रूरी है, उस समयावधि को पूरा किया जा सके.

बता दें कि संसद के अंतिम बजट सत्र को कोरोना की वजह से बीच में ही रोकना पड़ा था. नियमों के मुताबिक, पिछले सत्र से 6 महीने के अंदर अगला सत्र बुलाना जरूरी होता है. प्रश्न काल हटाये जाने के विरोध में विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधा है. टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा- संसद के कामकाज के घंटे उतने ही हैं, तो फिर प्रश्नकाल क्यों रद्द किया? 

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प्रश्नकाल सत्ता के लिए संसद के तीखे सवालों का मंच होता है, जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है. आप यूं समझ ले जैसे इंसान को जिंदा रहने के लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत है, वैसे ही लोकतंत्र को जीवित रहने के लिए प्रश्नकाल की आवश्यकता होती है. सांसदों के पास सवाल करने का वाजिब हक है 'प्रश्नकाल'. अगर इस वाजिब हक को संसद संत्र से नदारद कर दिया जाए तो इससे लोकतंत्र की विधायी प्रक्रिया ही कमजोर पड़ जाएगी. कहने का मतलब है कि विपक्ष सवाल पूछकर सत्ता पक्ष पर अंकुश लगाये रहता है. यदि ये व्यवस्था कमजोर पड़ गई तो सरकार निरंकुश हो जाएगा. फिर लोकतंत्र के वजूद पर संकट आ जाएगा और उसके मायने खत्म हो जाएगे.

अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि ये प्रश्नकाल कौन सी बला है? जिसको लेकर इतनी हाय-तौबा मची है! आपको बता दें कि संसद सत्र की शुरुआत ही प्रश्न से होती है. यानी लोकसभा की बैठक का पहला घंटा सवाल पूछने के लिए निर्धारित होता है. प्रश्न पूछने की भी एक प्रक्रिया होती है, जिसका पालन करना संसद सदस्यों के लिए आवश्यक होता है. बाकायदा इसके लिए पहले से अनुमति लेनी पड़ती है. ये प्रश्न तीन तरह के होते हैं- एक तारांकित, दूसरा अतारांकित और तीसरा अल्प सूचना प्रश्न.

तारांकित सवाल के जवाब मौखिक दिए जाते हैं. जवाब के बाद पूरक प्रश्न यानी इससे संबंधित आगे भी दो प्रश्न पूछने की इजाजत रहती है. अतारांकित प्रश्न के जवाब लिखित दिए जाते हैं और वो जिस दिन के लिए निर्धारित होते हैं, उसी दिन सदन की बैठक के आधिकारिक प्रतिवेदन में मुद्रित किए जाते हैं. इसमें पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते है. तारांकित अथवा अतारांकित प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए सदस्य को 10 दिन पहले सूचना देनी पड़ती है.

अब इन दो कैटेगरी के अलावा अल्प सूचना प्रश्न तीसरी कैटेगरी है, इसमें संसद सदस्यों को ये सहूलियत होती है कि वे कम समय की सूचना पर भी प्रश्न पूछ सकते है. इस संबंध में लोकसभा के प्रक्रिया और कार्यसंचालन संबंधी नियम 54 में व्यवस्था की गई है. इसके मुताबिक यदि‍ अध्‍यक्ष की राय में प्रश्‍न को टाला नहीं जा सकता हो यानी प्रश्न को लेकर देरी नहीं हो सकती तो वह निर्देश दे सकता है कि मंत्री बताए कि वह उत्तर कम समय में देने की स्‍थि‍ति‍ में है और यदि‍ हां तो कि‍स तारीख को. यदि‍ संबंधि‍त मंत्री उत्तर देने को सहमत हो जाता है तो ऐसे प्रश्‍न का उत्तर उसके द्वारा बताए गए दि‍न को उस दि‍न की सूची के मौखि‍क उत्तर हेतु प्रश्‍नों के नि‍पट जाने के तुरंत बाद कि‍या जाता है.

प्रश्नकाल के बाद आता है शून्यकाल. यह मध्यान्ह 12 बजे से एक बजे तक होता है. इसमें मौखिक सवाल-जवाब होते हैं. लिखित में न प्रश्न होते हैं, न उत्तर. आप इसे यूं समझ सकते हैं कि शून्यकाल प्रश्नकाल की अपेक्षा कम उत्तरदायित्व नेचर का होता है.

अब सवाल ये कि आखिर यह फैसला लिया ही क्यों गया? प्रश्नकाल खत्म कर देने से कोरोना का ख़तरा कम हो जाएगा? शून्यकाल रहने देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा? ये तर्क समझ से परे है. कोरोना को लेकर यही चिंता स्टूडेंट्स के लिए नदारद क्यों हैं? उन्हें तो घर से कोसो दूर नीट, जेईई और अन्य प्रतियोगिता परीक्षा देने के लिए विवश कर दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगाते हुए कहा था, "कोरोना के कारण जिंदगी नहीं रोकी जा सकती. हमें सारी सावधानियों के साथ आगे बढ़ना होगा. आप लोग छात्र हैं. क्या आप एक साल बर्बाद करने को तैयार हैं?"

अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि प्रश्नकाल को स्थगित करने से क्या लोकतंत्र बर्बाद न होगा? देश के मुद्दे पर प्रश्न न पूछने से देश की प्रगति बाधित नहीं होगी! बहरहाल, ऐसे सवाल तो भरे पड़े हैं मगर पूछने का माहौल कहां है? अपनी नाकामयाबियों को छिपाने के लिए 'कोरोना' वजह जो है. जिसे अपने सुविधा के मुताबिक यत्र-तत्र इस्तेमाल किया जा रहा है, ये जानते हुए भी कि हम जो कारण बता रहे हैं वो साफतौर पर तर्कहीन और खुद की किरकिरी करा देगा.

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