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लंबी-चौड़ी कद-काठी, फौलादी शरीर और हैंडसम चेहरे के साथ दमदार आवाज. हम बात कर रहे हैं ‘रुस्तम-ए-हिंद’ उर्फ़ दारा सिंह की. दारा सिंह वो शख्स थे जिनका नाम हिंदी सिनेमा और रेसलिंग की दुनिया में बड़े ही अदब से लिया जाता हैं. पंजाब के अमृतसर में 19 नवंबर 1928 को सूरत सिंह रंधावा और बलवंत कौर के घर पैदा हुए दारा सिंह किसान परिवार से ताल्लुक रखते थे.
वे अपने भाई बहनों में सबसे बड़े थे. बाकी सब की तरह दारा सिंह के माता पिता भी चाहते थे कि उनका बच्चा पढ़े लिखे लेकिन उनके दादा चाहते थे कि बड़े होने के नाते दारा खेतों में काम करें और उनके छोटे भाई स्कूल जाएं. यही कारण रहा कि बहुत ही कम उम्र में दारा को स्कूल से निकलकर खेतों में काम करना पड़ा. अपनी किशोर अवस्था में दारा सिंह दूध व मक्खन के साथ 100 ग्राम बादाम रोज खाकर कई घंटे कसरत में गुजारा करते थे.
महज 17 साल की उम्र में उनकी शादी बचनो कौर से करवा दी गयी. बाद में उन्होंने बचनो को तलाक़ दे दिया और 1961 में सुरजीत कौर से शादी कर ली. दारा सिंह को शुरू से ही पहलवानी का शौक था और वह आसपास के जिलों में होने वाले दंगल में भाग लिया करते थे.
फिर वक्त आया 1947 का जब दारा सिंह गांव-कस्बे के दंगल से इंटरनेशनल लेवल पर दर्जनों नामी पहलवानों को अखाड़े में चित्त करके ‘फ्री स्टाइल’ कुश्ती में एक अलग पहचान बनाई. इसी साल दारा सिंह अपनी पहलवानी का लोहा मनवाने सिंगापुर पहुंचे. उन्होंने यहां मलयेशियाई चैंपियन तरलोक सिंह को पटखनी देकर अपना सिक्का जमाया. 1952 में भारत लौटने से पहले उन्होंने करीब पांच साल तक फ्री स्टाइल रेसलिंग में दुनिया भर के पहलवानों को चित्त किया. उसके बाद 1954 में वे राष्ट्रीय चैंपियन बने और तब उनकी उम्र महज 26 साल थी.
1959 में वे राष्ट्रमंडल खेलों में चैंपियन बने और तब के बड़े नाम किंग कॉन्ग, जॉर्ज गोर्दिएन्को और ज़ॉन डि सिल्वा जैसे दिग्गजों को धूल चटाकर दारा ने खिताब हासिल किया. उन्होंने 200 किलोग्राम के किंग कोंग को उठाकर रिंग के बाहर फेंक दिया था. इसी साल कोलकाता में जब कनाडा के चैंपियन जॉर्ज गार्डियंका और न्यू जीलैंड के पहलवान जॉन डिसिल्वा ने दारा को खुली चुनौती दी. तब दारा ने दोनों को चारो खाने चित कर दिया.
1968 में दारा सिंह ने फ्रीस्टाइल कुश्ती के अमेरिकी चैंपियन लाऊ थेज को हरा दिया और इसी जीत के साथ वह विश्व चैंपियन बन गए. दंगल में उन्होंने कभी शिकस्त नहीं खाई. उन्होंने 1983 में, 55 साल की उम्र में कुश्ती से संन्यास ले लिया. दारा सिंह अपने 36 साल के पहलवानी करियर में करीब 500 कुश्तियों में भाग लिया और अपराजेय रहें. अजेय रहने के लिए दारा सिंह का नाम 'ऑब्जर्बर न्यूज लेटर हॉल ऑफ फेम' में दर्ज किया गया है.
दारा सिंह की कुश्ती के दीवानों में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे. सही मायने में दारा सिंह कुश्ती के दंगल के वो शेर थे, जिनकी दहाड़ सुनकर बड़े-बड़े पहलवान ने दुम दबाकर अखाड़ा छोड़ दिया. कुश्ती में उनके योगदान के कारण उन्हें 1966 में ‘रुस्तम-ए-पंजाब’ और फिर 1978 में ‘रुस्तम-ए-हिंद’ के ख़िताब से नवाज़ा गया.
‘दारा सिंह’ सिर्फ अखाड़े के पहलवान नहीं थे, बल्कि ‘हर मैदान फतेह’ करने वाले चैंपियन थे. फिर वो भले कुश्ती का मैदान हो, या मनोरंजन का.
'कुश्ती के दिनों से ही उन्हें फिल्मों में काम मिलना शुरू हो गया था. दारा सिंह ने ही हिंदी फ़िल्मों में शर्टलेस होने का ट्रेंड शुरू किया था. दारा सिंह ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरूआत 1952 में आई फ़िल्म 'संगदिल' से की थी. लेकिन उनकी असल पहचान बनी 1962 में आई फ़िल्म ‘किंग कॉन्ग’ से.
इस फ़िल्म ने उन्हें शोहरत के आसमान पर पहुंचा दिया. ये फ़िल्म कुश्ती पर ही आधारित थी. किंग कांग के बाद ‘रुस्तम-ए-रोम’, ‘रुस्तम-ए-बग़दाद’, ‘रुस्तम-ए-हिंद’, ‘जग्गा’ आदि फ़िल्में कीं. सभी फ़िल्में सफल रहीं. सिंह ने कई बॉलीवुड फिल्मों में स्पेशल किरदार भी निभाए. उन्हें 'जग्गा' फिल्म के लिए भारत सरकार से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला.
Singh wrestling King Kong at JWA in 1955
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दारा सिंह हिंदी फिल्म 'मेरा देश, मेरा धरम' और 'पंजाबी सवा लाख से एक लड़ाऊ' के लेखक और निर्माता-निर्देशक भी थे. उन्होंने 10 और पंजाबी फिल्मे भी बनाई थीं. मशहूर अभिनेत्री मुमताज के साथ उनकी जोड़ी बड़ी हिट मानी जाती थी. इन दोनों ने 16 फिल्मों में साथ-साथ काम किया था.
इसके अलावा दारा सिंह ने कई फिल्मों में स्पेशल किरदार भी निभाए था. इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण राज कपूर की मेरा नाम जोकर (1970), अमिताभ बच्चन की मर्द(1985) और दिलीप कुमार की कर्मा(1986) अजूबा(1991), दिल्लगी(1999), कल हो न हो (2003) आदि शामिल है. आखिरी बार वे इम्तियाज अली की 2007 में रिलीज फिल्म 'जब वी मेट में' करीना कपूर के दादा के रोल में नजर आए थे.
कुश्ती और मनोरंजन के रुस्तम ने बाद में कलम भी थामी एवं राजनीति की राह भी चले. इस बात की तस्दीक देती है 1989 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा, जिसे उन्होंने नाम दिया था 'मेरी आत्मकथा’. तो वहीं उन्होंने 1998 में भाजपा को ज्वाइन किया. वे खेल श्रेणी से राज्य सभा के लिए चुने जाने वाले पहले सांसद थे. उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया. वे अगस्त 2003 से अगस्त 2009 तक पूरे छ: वर्ष राज्य सभा के सांसद रहें.
बेशक दारा सिंह ने पहलवानी से ले कर फिल्मों तक में बड़ी पहचान और बड़ा नाम कमाया लेकिन ऐसी पहचान जिससे उनको देश का बच्चा बच्चा जानने लगा, वो हनुमान जी का रोल था. दारा सिंह ने 1987 में दूरदर्शन पर प्रसारित रामानंद सागर की रामायण में हनुमानजी के अभिनय से अपार लोकप्रियता हासिल की. तब वे 60 साल के थे. इसके पीछे भी एक किस्सा है. दरअसल, दारा सिंह रामायन बनने से 11 साल पहले 1976 में फिल्म बजरंगबली में हनुमान का रोल निभा चुके थे.
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इस फिल्म में हनुमान का किरदार दारा सिंह ने इस संजीदगी के साथ निभाया था कि रामायन सीरियल बनाते समय रामानंद के जेहन में दारा सिंह बतौर हनुमान रच बस गये थे. हालात ये थे कि जब सीरियल बनने की तैयारियां शुरू हुईं तो रामानंद सागर अपने सपने में दारा सिंह को ही हनुमान के रूप में देखते थे. तभी रामानंद ने ये तय कर लिया था कि जब वह रामायण बनायेंगे तो हनुमान की भूमिका सिर्फ दारा सिंह ही निभायेंगे. जब तक दारा सिंह थे तब तक हनुमान के रोल के लिए वही पहली पसंद रहें.
आपको बता दें कि उन्हें रामायन में सबसे अधिक फीस दी गई थी. तब उन्हें 30 लाख के करीब की फीस दी गई थी. जो कि उस जमाने के हिसाब से सबसे अधिक रही है. आज के दौर में ये रकम 9 से 10 करोड़ के बीच मानी जा सकती है. दारा सिंह हनुमान के किरदार के लिए शाकाहारी भी बने. उनकी लोकप्रियता का आलम ऐसा था कि मंदिर में उनकी तस्वीर भी लगनी शुरू हो गई थीं. लोग उनकी पूजा भगवान हनुमान समझ कर करते.
12 जुलाई 2012 को इस अनूठे शख्स की हार्ट अटैक से मौत हो गईं. वे भले ही इहलोक छोड़ परलोक सिधार गए, लेकिन उन्होंने वो खास मुकाम हासिल किया जिससे उनका नाम बल और शक्ति का पर्याय बनकर एक महान पहलवान एवं कलाकार के रूप में हमेशा लोगों के दिलों में ज़िंदा रहेंगे.