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दशरथ मांझी ने अकेले अपने दम पर उस पहाड़ का सीना चीर कर रख दिया जो उनकी मोहब्बत की राह में आ खड़ा हुआ था. पहाड़ का सीना चीर कर सड़क बनाने वाले मांझी बाद में माउंटेन मैन के नाम से अमर हो गए. 360 फ़ीट लंबा और 30 फ़ीट चौड़ा पहाड़ के हिस्से को काटना कोई मामूली काम तो था नहीं. इस काम में मांझी को 22 साल लगे.

पहाड़ के सीने पर मोहब्बत की दास्तान लिख देने की जिद पर मांझी की कहानी कुछ यूं शूरू होती है. 1934 में जन्मे मांझी की शादी बचपन में ही फाल्गुनी नाम की लड़की से हो गई थी. उनका बाल विवाह हुआ था. तब उन्हें शादी-विवाह और सही-गलत का पता भी नहीं था. उनकी पत्नी अपने मायके में ही रहीं. वे काम की तलाश में धनबाद पहुंच गए. वहां उन्हें एक कोयले की खान में काम मिल गया. फिर उसके बाद जब वो 22 साल की उम्र में यानी 1956 में धनबाद से अपने गांव वापस लौटे रहे थे, तो रास्ते में उन्हें एक लड़की से प्यार हो गया. रब की मेहरबानी देखिए ये वही लड़की थी जिससे दशरथ मांझी की बचपन में शादी हुई थी. अब मांझी और फाल्गुनी की मोहब्बत परवान चढ़ने लगी थी.

गांव वाले एक बड़ी समस्या से जूझ रहे थे. ये समस्या थी गांव में चिकित्सा सेवाओं का अभाव. यदि गांव का कोई व्यक्ति बिमार पड़ जाता था, तो उसे अपने गांव से दूर दूसरे कस्बे में जाना पड़ता था. आने-जाने में काफी वक्त जाया हो जाता था. हां, गांव वालों के लिए एक रास्ता था. वो ये कि दूसरे कस्बे में पड़ने वाले हॉस्पिटल और इस गांव के बीच पड़ने वाले पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया जाए. पर, ये काम तो सरकार का ठहरा...भला गांव वाले क्यों करें इस काम को?

अब जो सबसे बड़ी समस्या थी, जिससे लोग जूझ रहे थे वो ये कि कई बार अस्पताल पहुंचने से पहले ही मरीजों की मौत रास्ते में ही हो जाती. ऐसा ही दुखद घटना दशरथ मांझी के साथ भी हुआ. 1959 में उनकी पत्नी की मौत हॉस्पिटल पहुंचने से पहले ही हो गईं. पत्नी की असमय मौत से मांझी अंदर से टूट गए. उन्हें बड़ा सदमा पहुंचा. इस घटना ने उनके दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख दिया. मांझी को पक्‍का यकीन था कि यदि सड़क होती तो पत्‍नी की मौत नहीं होती.

इसलिए उन्‍होंने अपने गांव के पास के पहाड़ को चीरकर सड़क बनाने की ठान ली. वे इस पहाड़ी को काट कर पास के क़स्बों से गांव की दूरी कम करने में लग गए. ये दूरी तकरीबन 80 किलोमीटर की थी, जिसे वे घटाकर मात्र 13 किलोमीटर में बदल दिया.

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दशरथ मांझी अकेले थे और उनके साथ औजार के रूप में थे बस छेनी व हथौड़ा और 22 बरस तक सीने में पलता हुआ एक जुनून. साल 1960 से 1982 के बीच मांझी ने दिन-रात एक करके इस काम को अंजाम दे ही दिया. वे इस बीच 1972 में मदद के लिए दिल्ली भी गए. यहां तक कि दिल्ली जाने के लिए उनके पास रेल टिकट खरीदने के लिए पैसे भी नहीं थे. इसलिए उन्हें ये दूरी पैदल ही तय करना पड़ा.

धुन के पक्के मांझी सिर्फ रोटी की पोटरी और आचार लेकर पैदल ही रेलवे ट्रैक के किनारे-किनारे 1000 किलोमीटर का सफर दो महीने में तय करके दिल्ली पहुंच गए. दिल्ली पहुंचकर उन्होंने बिहार के नेता रामसुंदर दास से मुलाकात की थी और पीएम इंदिरा गांधी से भी मिलने गए थे, लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने मिलने से रोक दिया था. बाद में रामसुंदर दास के जरिए इंदिरा गांधी को उनके काम के बारे में पता चला. तब इंदिरा ने मदद के रूप में पैसे भी भेजवाई थीं, लेकिन लेकिन गांव के मुखिया ने मांझी तक सहायता राशि पहुंचने ही नहीं दिया.

ऐसा था उनका जुनून. एक बार जिस काम को करने का ठान लेते फिर उसे पूरा किए बगैर रूकते नहीं. मांझी का वो जुनून गहलौर गांव के लिए एक तोहफे में बदल गया. एक ऐसा बेमिसाल सौगात जिससे गांव वालों की जिंदगी आबाद हो गई. अब मोहब्बत में पहाड़ रोड़ा बनकर बीच में खड़ा नहीं होने वाला था. पहाड़ तो मांझी के अदम्य हौसले के आगे नतमस्त हो चुका था.

उनके अमर प्रेम को दर्शाती बॉलीवुड में एक फिल्म भी बनी है. फिल्म का नाम है मांझी द माउंटेन मैन. फिल्म के लीड रोल में नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे नजर आई थी. ऐसे इंसानी जज्‍़बे और जुनून की मिसाल दशरथ मांझी को रिफ्लेक्शन ऑफ लाइव्स की तरफ से सलाम.

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