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1 अगस्त को देश सहित पूरी दुनिया ईद अल अज़हा का त्योहार जश्न के साथ मना रहा है. ईद उल ज़ुहा को बकरीद भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन बकरे की कुर्बानी देने का चलन है. आज मैं आपको बताऊंगा, आखिर बकरीद मनाने के पीछे की कहानी क्या है?

ये ईद मुसलमानों के पैग़म्बर और हज़रत मोहम्मद के पूर्वज हज़रत इब्राहिम की क़ुर्बानी को याद करने के लिए मनाई जाती है. इस्लाम धर्म की मान्यता के मुताबिक कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक थे हजरत इब्राहिम. इब्राहिम जिंदगी भर दुनिया की भलाई के कामों में लगे रहें. अपनी पूरी जीवन दीन-दुखियों की सेवा में लगा दिया.

वे अपनी जिंदगी के करीब 80 साल पूरे कर चुके थे, फिर भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई थी. तब उन्होंने खुदा की इबादत की जिससे उन्हें एक बेटा हुआ. बेटा बेहद ख़ूबसूरत था. बिल्कुल चांद जैसा. उन्होंने बेटे का नाम इस्माइल रखा. हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे. एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए. तब हज़रत इब्राहीम ने कुछ देर सोच कर निर्णय लिया और अपने अज़ीज़ को कुर्बान करने का तय किया.

सबने यह जानना चाहा कि वो क्या चीज़ हैं जो हज़रत इब्राहीम को सबसे चहेती हैं जिसे वो आज कुर्बान करने वाले हैं. तब उन्हें पता चला कि वो अनमोल चीज़ उनका बेटा हजरत इस्माइल हैं जिसे वो आज अल्लाह के लिए कुर्बान करने जा रहे हैं. यह जानकर सभी भौंचके से रह गये. कुर्बानी का समय करीब आ गया. बेटे को इसके लिए तैयार किया गया, लेकिन इतना आसान न था. इस कुर्बानी को अदा करना इसलिए हज़रत इब्राहीम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और अपने बेटे की कुर्बानी दी.

कुर्बानी देने के बाद जब उन्होंने आंखों पर से पट्टी हटाई तब उन्होंने जो दृश्य देखा, वो चौकान्ने वाला था! उन्होंने अपने बेटे को जिंदा देखा. अल्लाह जो उनकी परीक्षा ले रहे थे ने उनके बेटे को बचा लिया और एक उनके अज़ीज बकरे की कुर्बानी ले ली. बस तभी से ईद-उल-ज़ुहा मनाया जाने लगा.

ईद-उल-जुहा, यह नाम अधिकतर अरबी देशों में ही लिया जाता है, लेकिन भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकर-ईद कहा जाता है, इसका कारण है इस दिन बकरे की कुर्बानी दिया जाना. लेकिन इससे पहले वाली ईद इससे बिल्कुल विपरीत है. ईद-उल-फित्र काफी लंबे समय के रोज़े, यानी की उपवास के बाद आती है, जिसे रमज़ान का महीना कहा जाता है. यह 29 से 30 दिन का होता है, जिसके बाद अंतिम दिन मीठी सेवइयां बनाकर बांटी जाती हैं. इस ईद की सबसे खास बात यह है कि इसके आखिरी दिन सबसे पहले मीठा ही ग्रहण किया जाता है, इसलिए इसे मीठी ईद कहकर पुकारा जाता है.

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मीठी ईद के ठीक 2 महीने बाद आती है बकरीद. इसे खास तौर पर हज यात्रा के बाद इस्लामिक संकृति में किया जाता हैं. इस्लामिक कैलंडर के अनुसार इसकी शुरुवात 10 धू-अल-हिज्जाह से हो कर हैं और खत्म 13 धू-अल-हिज्जाह पर होगी. इस प्रकार यह इस्लामिक कैलंडर के बारहवे माह के दसवे दिन मनाये जाते हैं.

हदीस के मुताबिक बकरीद पर अल्लाह को कुर्बानी देना पुण्य का काम है. इसलिए इस दिन हर कोई अपनी हैसियत और रिवाज के हिसाब से बकरे की कुर्बानी देता बकरीद से कुछ दिन पहले बकरा खरीदकर लाना होता है. उसकी काफी देखभाल की जाती है ताकि उसे बकरे से लगाव हो जाए. जिन लोगों ने अपने घरों में बकरा पाल रखा होता है वह उस बकरे की कुर्बानी देते हैं.

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बकरीद के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग अल सुबह की नमाज अदा करते हैं. इसके बाद बकरे की कुर्बानी देने का कार्य शुरु किया जाता है. कुर्बानी के बाद बकरे का मीट तीन हिस्सों में बांटा जाता है. गोश्त के इन तीन भागों में एक भाग गरीबों के लिए, दूसरा भाग रिश्तेदारों में बांटने के लिए और तीसरा भाग अपने लिए रखा जाता है.

कुर्बानी का असली मतलब यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो. परन्तु इस त्यौहार के दिन जानवरों की कुर्बानी महज एक प्रतीक है. असल कुर्बानी हर एक मुस्लिम को अल्लाह के लिए जीवन भर करनी होती है.

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