13 नवंबर 1917 को मध्यप्रदेश के मुरैना में जन्मे मुक्तिबोध हिंदी साहित्य की प्रगतिशील काव्यधारा के बड़े नामों में से एक हैं. उनका साहित्यिक अवदान अपने उस संवेदनशीलता की मार्मिक अभिव्यक्ति है जिसने समाज के हर पहलू को गहराई से रचना के कैनवास में उकेरा. उनकी रचना में न तो ‘सुर्ख परचम’ था, न श्रृंगाल की रसाभिव्यक्ति जिसमें प्रेमिका को प्रेमी गुलाब के फूल देकर उसे प्रेम के उन्मुक्त आकाश में विचरन करने का स्वैग रचाते.
मुक्तिबोध तीव्र सामाजिक अनुभूतियों को महसूस करने वाले गहरे अंतर्द्वंद्व के कवि थे. जितनी सुक्ष्मता उनकी रचना में मिलती है शायद ही उस स्तर की गहराई आपको और कहीं मिल पाये. अपने रचनाओं के गहरे अर्थ को साहित्य को समर्पित करने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध की आज 56वीं पुण्यतिथि है. आज ही के दिन 11 सितंबर 1964 को महज 46 वर्ष की उम्र में वे परलोक सिधार गए. मुक्तिबोध उन कवियों में से थे जिनका मानना था कि कविता समझने के लिए सारा प्रयास कवि ही नहीं, पाठक को भी करनी चाहिए, तभी उसमें तार्किक क्षमता विकसित हो सकेंगी. उनकी कुछ प्रमुख कविताओं में 'अंधेरे में', 'चांद का मुंह टेढ़ा है', 'भूरी-भूरी खाक धूल' शामिल हैं.
मुक्तिबोध के बारे में ये भी एक दिलचस्प वाकया है कि वे अपने जीवन काल में खुद की रचनाओं का प्रकाशन न देख सके. वजह एक नहीं कई है. उनके पास न तो किसी धनसेठ का संरक्षण था, न ही कोई प्रकाशक. वे नर्मदा की सुबह निकालना चाहते थे पर चाहने भर से क्या होता है? नर्मदा की सुबह निकल सकी होती तो हिंदी कविता का इतिहास कुछ और ही होता. वे अपने मोर्चे पर सामाजिक प्रगतिशील कविता के लिए लगातार संघर्ष करने वाले साहित्यकार थे. उनकी पहली किताब 'चांद का मुंह टेढ़ा है' जब प्रकाशित हुई, तब वे इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. उनके पुण्यतिथि पर पढ़िए उन्हीं के द्वारा लिखी गई ये दो कविताएं 'चांद का मुंह टेढ़ा है' और 'सहर्ष स्वीकारा है' के कुछ अंश:-