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महान रचनाकार रबीन्द्रनाथ टैगोर को उनके 79वें पुण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन. वे एक विश्वविख्यात कवि, उपन्यासकार, नाटककार, चित्रकार, संगीतकार, दार्शनिक और समाज-सुधारक थे. एक ऐसा लेखक, जिसकी इतिहास दृष्टि ने भारत को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध किया. भारत के इतिहास में टैगोर के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. देश में स्वाधीनता की अलख जगाने से लेकर मानव दर्शन, साहित्य और शिक्षा को आकार देने वाले वे एक बेजोड़ शिल्पी थे.

कलकत्ता में 7 मई 1861 को देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के घर पैदा हुए रबींद्रनाथ टैगोर ज़मींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे. जब वे छोटे थे तभी उनकी मां चल बसीं और घर के नौकर-चाकर ने रबींद्रनाथ को पाल-पोसकर बड़ा किया. रबींद्रनाथ के पिता की ख्वाहिश थी कि उनका बेटा बैरिस्टर बने, इसलिए जब वे सेंट जेवियर स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी कर लीं, तो उन्हें 1878 में इंग्लैंड भेज दिया. फिर उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में लॉ की पढाई के लिए दाखिला ले लिया.

कहने को दाखिला तो रबींद्रनाथ ने लॉ में लिया था परंतु उनका मन कानून की किताबों में बिल्कुल नहीं लगता था. वे कॉलेज की लाइब्रेरी में घंटों बैठकर शेक्सपियर और कुछ दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ा करते थे. कुछ समय बाद उन्होंने पढाई छोड़ दी और साहित्य एवं दर्शन की किताबों का स्व-अध्ययन करना शुरू कर दिया. वे 1880 में बिना लॉ की डिग्री के बंगाल वापस लौट आये. घर लौटने के 3 साल बाद साल 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हो गया.

बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रबींद्रनाथ टैगोर ने देश और विदेशी साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था. उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की जब वे मात्र 8 साल के थे तब उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी थी. 16 साल की उम्र में भानुसिम्हा उपनाम से उनकी कवितायें प्रकाशित भी हो गयीं. देशभक्ति की रंग में रंगे रबींद्रनाथ ने अपनी रचनाओं के जरिए ब्रिटिश राज की आलोचना करते हुए देश की आजादी की मांग की.

एक ज़मींदार परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद ज़मींदारी के पेशे से उन्हें कोई ख़ास लगाव नहीं था. वे विशुद्ध प्रकृति प्रेमी थे. उनके मन में लोगों के प्रति करुणा का भाव हमेशा विधमान रहता था. शायद यही वजह है कि उन्होंने अपने समय की रूढ़ियों और विसंगतियों पर भी ज़ोरदार प्रहार किया. ज़मींदारी प्रथा के उस दौर में कोई रैयत-किसान अपने मालिक के सामने बैठने की हिम्मत नहीं कर सकता था. ऐसे दौर में वे अपने रैयत-काश्तकारों से आमने-सामने बैठकर बातें करते थे.

51 वर्ष की उम्र में वे अपने बेटे के साथ इंग्‍लैंड जा रहे थे. उसी दौरान उन्होंने अपनी कालजयी पुस्तक गीतांजलि का अंग्रेजी में अनुवाद किया. उनकी यह रचना 1910 में प्रकाशित हुई थी. इसमें 157 कविताओं का कलेक्शन है, जिसमें भारतीय संस्कृति के रहस्यवाद और भावुक सौंदर्य का वर्णन किया गया है. 14 नवम्बर 1913 को रवींद्रनाथ टैगोर को इसी रचना के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला. वे भारत ही नहीं एशिया के पहले ऐसे व्‍यक्ति थे, जिन्‍हें नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था.

भारतीय साहित्य के प्रति उनका योगदान बहुत विशाल और अविस्मरणीय है. उनके गीत “जन गण मन” को देश का राष्ट्रगान घोषित किया गया. यह गाना पहली बार 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था. बाद में गुरुदेव ने बताया कि इस गाने में वर्णित भारत भाग्य विधाता का मतलब हैं:-

“देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे देव”.

बाद में उनका ये गाना स्वाधीनता संग्राम का आवाज़ बना. कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशनों की शुरुआत इसी गाने से की जाने लगी. 1917 में टैगोर ने इसे धुन में बंधा. धुन इतनी प्यारी और आसान थी कि जल्द ही लोगों के मानस पर छा गईं. टैगोर का यह गीत भाषाई कलात्मकता का एक नायाब उदाहरण है. इसमें संज्ञा वाचक शब्दों यानी नाम वाले शब्दों का इस्तेमाल क्रिया के रूप में किया गया है – जैसे उच्छल जलधि तरंग. यह पंक्ति जहां एक तरफ गंगा-यमुना की विशाल जलराशि का बखान करती है वहीं दूसरी ओर यह भारतीय प्रायद्वीप अरब सागर, हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी के भौगोलिक स्थिति को भी दर्शाती है.

1915 में ब्रिटिश सत्ता ने रबींद्रनाथ टैगोर को नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित किया था. लेकिन 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद टैगोर ने यह उपाधि लौटा दी थीं. हालांकि ब्रिटिश सरकार ने उनको 'सर' की उपाधि वापस लेने के लिए मनाया था, मगर वह राजी नहीं हुए.

टैगोर के सामाजिक जीवन की बात करें तो उनका जीवन मानवता से प्रेरित था, मानवता को वे देश और राष्ट्रवाद से ऊपर देखते थे. रविन्द्रनाथ गांधीजी का बहुत सम्मान करते थे. महात्मा की उपाधि गांधीजी को रविन्द्रनाथ ने ही दी थी, वहीं रविन्द्रनाथ को ‘गुरूदेव’ की उपाधि महात्मा गांधी ने दी. 12 अप्रैल 1919 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने गांधी जी को ‘महात्मा’ का संबोधन किया था, जिसके बाद से ही गांधी जी को महात्मा कहा जाने लगा.

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गुरुदेव अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण सही मायनों में विश्वकवि थे. उनका मानना था कि छात्रों को प्रकृति के सानिध्य में शिक्षा हासिल करनी चाहिए, अपने इसी सोच को ध्यान में रख कर 1921 में उन्होंने 'शांति निकेतन' की नींव रखी थी. जिसे 'विश्व भारती' यूनिवर्सिटी के नाम से भी जाना जाता है. देश की साहित्यिक, शैक्षणिक और दार्शनिक उन्नति में उनका अमिट योगदान रहा है. वो कहते थे- "उच्चतम शिक्षा वो है जो हमें सिर्फ जानकारी ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समस्त अस्तित्व के साथ सद्भाव में लाती है.”

रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय सभ्यता की अच्छाइयों को पश्चिम में और वहां की अच्छाइयों को यहां पर लाने में प्रभावशाली भूमिका निभाईं. भारत की स्वतंत्रता को देखने से पहले 1941 में 7 अगस्त को गुरुदेव ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. जीवन पर्यंत साहित्य, समाज व मानवता की सेवा करने वाले, वन्दनीय गुरुदेव की शिक्षाएं व पुण्य विचार हमें सदैव मानवता की सेवा के लिए प्रेरित करती रहेंगी.

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