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इरफान खान बॉलीवुड का एक ऐसा नाम है जिनके बिना फिल्म इंडस्ट्री अधुरी है. बेमिसाल शख्सियत, ठहरी आवाज़ और बोलती आंखें इन सब अद्वितीय गुणों के कारण इरफान ने लोगों के दिलों पर राज किया. सईदा बेगम और यासीन अली खान के यहां 7 जनवरी 1967 को जन्मे इरफान जरूर राजस्थान के एक छोटे से कस्बे से ताल्लुक रखते थे, पर उनके सपने बड़े थे. उन्हें अपने पिता के टायर कारोबार में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी.

स्कूल के दिनों में इरफान पढ़ने में एवरेज स्टूडेंट थे. खासकर स्कूल जाने से उन्हें बहुत चिढ़ होती थी. इसके बजाय उन्हें क्रिकेट खेलना ज्यादा अच्छा लगता था. जब भी टाइम मिलता इरफान बल्ला एवं गेंद उठाते और पड़ोस के चौगान स्टेडियम में जाकर खूब क्रिकेट खेलते. बचपन से क्रिकेटर बनने का ख्वाब पाले इरफान सीके नायडू ट्रॉफी के लिए सेलेक्ट भी हुए थे. पर घर वालों ने उन्हें इसके लिए इजाजत नहीं दी. इस तरह इरफान क्रिकेटर बनते-बनते रह गए.

घरवालों ने इरफान को सख्त हिदायत दे रखी थी कि पढ़ाई पर फोकस करें और इसी फिल्ड में करियर बनाये. इरफान अपनी ग्रेजुएशन पूरी करने में लग गए. पर पढ़ाई में उनका मन उतना नहीं लगता था. इसलिए ग्रेजुएशन के साथ ही उन्होंने एक्टिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू कर दिया. सिनेमा में उनकी दिलचस्पी नसीरुद्दीन शाह की फ़िल्में देखकर हुई थी. बस फिर क्या था, 1984 में दिल्ली आ गए और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में दाखिला ले लिया. एनएसडी में इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था कि एफटीआईआई (फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया) में अभी एक्टिंग का कोर्स नहीं है, इसलिए मैं एनएसडी आया हूं, क्योंकि मुझे सिनेमा का एक्टर बनना है.

एनएसडी में पढ़ाई के दौरान उनकी मुलाकात सुतापा सिकंदर से हुई. जल्दी ही वे दोनों अच्छे दोस्त बन गए. दोस्ती कब प्यार में बदल गई पता ही नहीं चला. फिर उन्होंने 1995 में शादी करने का फैसला किया. परंतु इसमें धर्म की दीवार थी. सुतापा हिंदू थी और इरफान मुसलमान. इरफान इस दीवार को खत्म करने के लिए हिंदू धर्म अपनाने को भी तैयार हो गए थे. इरफान ने ये बात सुतापा से कहीं भी कि अगर उनके परिवार वाले चाहें तो मैं हिंदू धर्म अपनाने को तैयार हूं. लेकिन इसकी नौबत नहीं आई सुतापा के परिवार ने उन्हें वैसे ही अपना लिया. धार्मिक तौर पर इरफान बेहद ही खुले विचारों वाले इंसान थे. उनका मानना था कि ईश्वर की खोज़ इंसान खुद करता है. धार्मिक कट्टरता का उन्होंने हमेशा विरोध किया.

पढ़ाई पूरी करने के बाद 1988 में इरफान को मीरा नायर की फ़िल्म सलाम बॉम्बे में काम करने का मौका मिल गया. हां ये बात और है कि इस फिल्म में इरफान का रोल बहुत छोटा था, पर शुरुआत तो हो ही गई थी. गौर करने वाली बात ये है कि शायद ही दर्शकों की नज़र उस आम इंसान जैसे दिखने वाले लड़के पर गई होगी जो महज़ कुछ समय के लिए ही पर्दे पर आता है.

सड़क किनारे बैठकर लोगों की चिट्ठियां लिखने वाले एक लड़के का छोटा सा रोल किया था अभिनेता इरफ़ान ख़ान ने और बोला था चंद डायलॉग-

“बस-बस 10 लाइन हो गया, आगे लिखने का 50 पैसा लगेगा, माँ का नाम-पता बोल.”

किसी को क्या पता था कि हम जैसे ही दिखने वाला ये 19-20 वर्ष का लड़का आगे जाकर भारत ही नहीं दुनिया भर में नाम कमाएगा. और उसकी एक्टिंग की मिसाले दी जाएंगी.

छोटे पर्दे यानी टी वी सीरियल चंद्रकांता, श्रीकांत, चाणक्य, सारा जहां हमारा, भारत एक खोज से अभिनय का सफर तय करते हुए, देखते ही देखते इरफ़ान ने बॉलीवुड से लेकर हॉलिवुड और ब्रिटिश सिनेमा में अपनी अलग पहचान बना ली.

मकबूल, हासिल, लंच बॉक्स, पीकू, पान सिंह तोमर, बिल्लू, मदारी, जज़्बा, साहिब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न और हिंदी मीडियम जैसी बॉलीवुड के फिल्मों ने उन्हें अलग पहचान दिलाई. एक ओर जहां उन्होंने ख़ुद को हिंदी सिनेमा के सबसे टैलेंटेड और वर्सेटाइल एक्टर्स की लिस्ट में अपना नाम दर्ज करवाने में कामयाब रहें, वहीं हॉलीवुड में द वारियर, लाइफ़ ऑफ़ पाई, द नेमसेक, द स्लमडॉग मिलियनेयर, द माइटी हार्ट, द अमेज़िंग स्पाइडरमैन, इनफरनो, द दार्जिलिंग लिमिटेड, न्यूयॉर्क आई लव यू, जुरासिक वर्ल्ड जैसी फ़िल्मों से विश्व सिनेमा में भी अपनी एक अलग छाप छोड़ने में भी सफल रहें.

चाहे आंखों से जज्बात जाहिर करने की उनकी अदा हो या फिर बेमिसाल डायलॉग डिलीवरी. जिस सहजता से इरफान ने रोमाटिंक से लेकर कॉमेडी रोल को निभाया वह वाकई बेजोड़ है. मसलन पान सिंह तोमर में डकैत का रोल और उसमें जिस तरह वो मासूमियत, भोलेपन, दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का पुट एक साथ लेकर लाते हैं. जब सिस्टम से हताश और बंदूक़ उठा चुका पान सिंह बोलता है-

“बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में” तो पूरा थिएटर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता. थिएटर में पड़ने वाली ताली सिर्फ़ इस डायलॉग पर नहीं थी, ये तमांचा था आकण्ठ भ्रष्ट्राचार में डूबी देश की सरकार पर, जो चुनाव जीतने के बाद आम जन से दूर और अपनी कुर्सी से चिपके रहते हैं.

जब वो डायलॉग बोलते थे तो उसमे हकीकत नजर आती था. इरफान खान एक- एक डायलॉग को बेहद सादगी से बोलते थे, जो किसी को भी हिलाकर रख दे. फिल्म जज़्बा में बोला गया उनका डायलॉग- "रिश्तों में भरोसा और मोबाइल में नेटवर्क ना हो तो लोग गेम खेलने लगते हैं."

या फिर फिल्म साहेब बीवी और गैंगस्टर में बोला गया उनका डायलॉग- "चांद पर बाद में जाना जमाने वालों, पहले धरती पर रहना सीख लो."

जब फ़िल्म जज़्बा में वो ऐश्वर्या से कहते हैं- "मोहब्बत है इसीलिए तो जाने दिया, ज़िद्द होती तो बाहों में होती" तो आपको यक़ीन होता है कि इससे दिलकश आशिक़ी हो ही नहीं सकती.

अपने फिल्मी करियर में उन्हें नेशनल अवार्ड से लेकर पद्मश्री सम्मान तक मिल चुका है. फिल्मों में किए गए असाधारण योगदान के लिए भारत सरकार ने इरफान को 2011 में पदमश्री से सम्मानित किया. फिर अगले ही साल 2012 में पान सिंह तोमर के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. वहीं 2017 में प्रदर्शित हिंदी मीडियम फिल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया.

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इरफान जितने दमदार एक्टर थे उतने ही शानदार इंसान भी थे. वे जब किसी से मिलते बेहद गर्मजोशी से मिलते और अपने चिर-परिचित अदांज में बोलते- “और भैया सब ठीक है न” फैन्स उनके इसी अदा पर फिदा हो जाते. फैन्स इरफान के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे. इसकी बानगी तब देखने को मिली जब नासिक से 30 किलोमीटर दूर त्रिंगलवडी फोर्ट के पास इगतपुरी के पत्राच्या गांव के लोगों ने उनकी याद में गांव का नाम बदलकर हीरो ची वाड़ी रख लिया.

इस नाम का मतलब होता है कि “हीरो का ठिकाना”. वैसे इस गांव से इरफान का खास जुड़ाव भी था. वह 10 साल पहले पहली बार यहां आए थे तब उन्होंने कुछ दिनों के लिए यहां घर लिया था. अब यह घर कुछ आदिवासियों के लिए रहने का स्थान हो गया है. इरफान ने इस गांव के विकास में काफी मदद की है. उन्होंने एम्बुलेंस, स्कूल और बच्चों को किताबें तक उपलब्ध करवाईं.

कहने का मतलब है कि इरफ़ान ख़ान की ख़ासियत यही थी कि एक आम इंसान की तरह सबसे घुलमिल जाने वाला व्यक्ति से लेकर सिल्वर स्क्रीन पर जादू बिखेरता कलाकार तक में आसानी से खुद को ढाल लेते. जिस रोल में वो पर्दे पर दिखते, सिनेमा में बैठी जनता को लगता कि इससे बेहतर इस किरदार को कोई कर ही नहीं सकता था.

इरफ़ान ने जिस नज़ाकत से अपने किरदारों को निभाया वो एक्टिंग की मास्टरक्लास ही समझी जा सकती हैं. जिस अंदाज से वो अपने डायलॉग बोलते थे हर कोई उनकी भूमिका को वास्तविक मानकर उन्हें उसी किरदार से जानने लगता था. सिनेप्रेमियों को कहां पता था कि मार्च में ही रिलीज हुई ‘अंग्रेजी मीडियम’ उनकी आखिरी फिल्म साबित होगी. 29 अप्रैल 2020 को कैंसर के कारण इरफान दुनिया से चल बसे. भले ही अब वे हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके द्वारा निभाए गए किरदारों की छवियां हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगी.

" शून्य से शोहरत के शीर्ष तक यूं पहुंचे इरफान
बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक एक्टिंग का झंडा गाड़ने वाले 'इरफान'
कस्बे का सामान्य लड़का जो बॉलीवुड में छा गया
टोंक से चलकर बॉलीवुड में धाक जमाने वाले 'इरफान' "

Image credit: https://wallpapercave.com

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