enter image description here

मध्य प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन नहीं रहें, 85 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. उनके बेटे आशुतोष टंडन ने ट्विटर पर अपने पिता की मृत्यु की पुष्टि करते हुए लिखा - 'बाबूजी नहीं रहे'. वे कुछ दिनों से गंभीर रूप से बीमार थे. उन्हें 11 जून को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के चलते लखनऊ के मेदांता अस्पताल में एडमिट थे.

उनकी मौत से राजनीतिक जगत शोक में डूब गया. उन्होंने अपने राजनीतिक करियर में कई उतार-चढ़ाव देखे. लखनऊ में 1935 में जन्मे लालजी टंडन यूपी बीजेपी के कद्दावर नेता थे. महज 12 साल की उम्र में ही लालजी आरएसएस से जुड़ गए थे. उन्होंने स्नातक कालीचरण डिग्री कॉलेज लखनऊ से किया. उनकी शादी 26 फरवरी शादी 1958 में कृष्णा टंडन के साथ हुई.

जनसंघ और भाजपा के हर महत्वपूर्ण पड़ाव के वह नजदीकी गवाह रहे. भाजपा के स्थापना के तुरंत बाद जब पहली राष्ट्रीय कार्यसमिति की जगह तय होने का समय आया तो उन्होंने लखनऊ का नाम आगे कर दिया. साथ ही यहां गोमती होटल में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की भव्य बैठक कराकर नेतृत्व को अपनी सांगठनिक क्षमता का परिचय भी दे दिया.

विशेषकर उन्हें लखनऊ से बहुत लगाव था. वहां के संस्कृति, इतिहास और सरोकार से जुड़े हर मसले पर वे फ्रंट फुट पर दिखाई देते थे. उनके दिलों की धड़कन में लखनऊ हमेशा धड़कता रहा.

चाहे बात लखनऊ की विरासत बचाने की हो, वहां की संस्कृति संवारने की या फिर इस शहर के सही इतिहास को नई पीढ़ी से रूबरू करवाने की, टंडन सभी जगह सबसे आगे नजर आए. उन्होंने लखनऊ की विरासत और समृद्ध सांस्कृतिक सरकारों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए 'अनकहा लखनऊ' नाम से एक किताब भी लिखी.

वह बेबाकी से कहते थे कि लखनऊ को राम के अनुज लक्ष्मण ने ही बसाया था. इसीलिए वह उन लोगों पर बरबस नाराज भी हो जाते थे जो लखनऊ का इतिहास चंद इमारतों और नवाबों तक देखते थे. वे कहते थे कि लखनऊ का इतिहास सिर्फ नवाबों, इमारतों और बेगमों तक सीमित नहीं है. इससे बहुत पुराना है. बात अगर राजनीति, संस्कृति और धर्म पर आ गई तो सामने वाले को अपने तार्किक बातों से चुप कराने में भी पीछे नहीं रहते थे.

सांसद रहे या राज्यपाल लेकिन उन्हें जो मजा लखनऊ की महफिल में आता था वह कहीं नहीं आया. जिसे वह जब-तब जाहिर भी कर देते थे. 'मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवे.'

अटलजी के कारण जुड़े राजनीति से
संघ से जुड़ने के दौरान ही लालजी टंडन की मुलाकात पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से हुई. धीरे-धीरे वह अटलजी के बहुत करीब आ गए. लालजी टंडन खुद कहते थे कि अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में उनके साथी, भाई और पिता तीनों की भूमिका निभाई. लालजी टंडन ने अपना राजनीतिक करियर 1960 से शुरू किा. वे दो बार सभासद चुने गए तो वहीं दो बार विधान परिषद के सदस्य भी बने. जब 1975 में इमरजेंसी लागू हुआ तो वे इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ जेपी आंदोलन से जुड़ गए. इस आंदोलन में यूपी का नेतृत्व भी उन्होंने किया और राजनीतिक कद्दावर नेता की पहचान बनाई.

जब लखनऊ से 1952, 1957 और 1962 तक लगातार तीन चुनाव में मिली हार ने अटल जी को राजनीतिक तौर पर तोड़ दिया था. यहां तक 1991 में अटल जी ने यहां से चुनाव लड़ने से भी इनकार कर दिया था. लालजी के वजह पूछने पर अटल जी हंसते हुए बोले "अभी भी कुछ बताने को बचा है क्या"?

तब लालजी ने अटल को ढाढस बांधते हुए कहा- "आपको यहीं से चुनाव लड़ना चाहिए, मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि लखनऊ अब आपक साथ है. आप सिर्फ नामांकन भरने के लिए आएं, बाकी चुनाव हम पर छोड़ दें. अटल जी तैयार हो गए और वह यह चुनाव जीते भी".

मायावती से था बहन-भाई वाला रिश्ता
90 के दशक में उत्तर प्रदेश में बनी बीजेपी और बीएसपी की सरकार में उनका अहम रोल था. यहां तक कि मायावती लालजी को राखी भी बांधती थीं. इसी संबंध की वजह से वो लालजी की बात मानने को तैयार हुई और बीजेपी से गठबंधन किया. 1978 से 1984 तक और फिर 1990 से 96 तक लालजी टंडन दो बार यूपी विधानपरिषद के सदस्य रहे. 1991 में वह यूपी के मंत्री पद पर भी रहे.

अटलजी के संसदीय सीट के उत्तराधिकारी बने
जब अटलजी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. इससे 2009 में अटल जी वाली लखनऊ की लोकसभा सीट खाली हुई तो लालजी टंडन ने यहां से चुनाव लड़ा. उन्हें चुनाव में सफलता भी मिली.

लालजी टंडन राजनीति के वो नायाब शख्सियत थे जिन्हें उनके धूर विरोधी भी आदर करते थे. मंत्री रहे, सांसद रहे या राज्यपाल लेकिन उनसे मिलना कभी मुश्किल नहीं रहा. लोगों को मालूम था कि वह अगर लखनऊ में हैं तो शाम को हजरतगंज वाले ठिकाने पर जरूर मिलेंगे. जहां न कोई रोक होगी और न कोई टोकने वाला.

आधुनिक लखनऊ के निर्माता
प्रदेश में जब भाजपा की सरकार बनी और उसमें टंडन मंत्री बने तो उन्होंने पूरे देश में हर साल सुर्खियां बटोरने वाले राजधानी के कई दशक पुराने उस शिया-सुन्नी विवाद का सर्वमान्य समाधान कराकर लखनऊ में स्थाई शांति का रास्ता खोला. बतौर नगर विकास मंत्री उन्होंने लखनऊ के स्वरूप को बदला. पुराने लखनऊ की पतली गलियों की जगह चौड़ी और साफ सड़कें बनवाई. तालाबों का सुंदरीकरण और चौराहों को सुव्यवस्थित करने का काम किया.

पुराने लखनऊ में ही नहीं, प्रदेश के सभी नगरों में सीवर लाइन डलवा तक हाथ से मैला उठाने की परिपाटी पर विराम लगाने की दिशा में काम किया. पुराने कुओं (इंदारा कुआं) को साफ कराकर उनमें मोटर लगवाकर लोगों की पेयजल की कमी दूर करने का अभिनव प्रयोग किया.

बड़ी संख्या में ओवरब्रिज का निर्माण, शहर से गंदगी दूर करने के लिए कालोनियों व मोहल्लों में डेयरियों को बाहर करने जैसे चुनौतीपूर्ण काम को उन्होंने जिस तरह बखूबी अंजाम दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता.

उन्होंने गोमती की सफाई का बीड़ा ही नहीं उठाया बल्कि खुद इस काम में अग्रिम मोर्चे पर डटे रहते थे. शहर को साफ करने के लिए नालों का डाइवर्जन जैसे काम करके उन्होंने अपनी दूरदर्शिता साबित की. कल्याण सिंह सरकार में ऊर्जा मंत्री बने तो उन्होंने सबसे पहले प्रदेश में बिजली संकट से निजात को उस समय वर्षों से अटके 'अनपरा-बी' पावर हाउस को पूरा कराया.

राजधानी होने के बावजूद, शहर में कोई बड़ा सभागार न होने की टीस ने उन्हें कन्वेंशन सेंटर जैसे भवन के निर्माण का संकल्प दिलाया ही नहीं बल्कि तमाम बाधाओं के बावजूद पूरा भी कराया. लोगों को वैवाहिक समारोह या अन्य कार्यक्रम करने के लिए कल्याण मंडप के रूप में सस्ती दर पर सभी जरूरी सुविधाओं से युक्त जगह उपलब्ध कराने की कल्पना भी टंडन की ही थी.

दो बार उत्तर प्रदेश में विधान परिषद का सदस्य रहने के बाद वो 1996 से 2009 के बीच तीन बार उत्तर प्रदेश से ही विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए. वे उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार और मायावती की बीएसपी-बीजेपी गठबंधन सरकार में मंत्री रहे. वे 2003 से 2007 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विपक्ष भी रहे. तब प्रदेश में समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. 2009 में वे लखनऊ से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए. 2018 में उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया था. इसके अगले साल वो मध्य प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए.

Discus