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कलम के सिपाही कहे जानेवाले मुंशी प्रेमचंद की आज जयंती हैं. इस अवसर पर, मैं उनके कथाओं में प्रयुक्त संवाद के माध्यम से वर्तमान समय में उनकी प्रासंगिकता को बतला रहा हूं. इससे हम सब उनकी लेखनी को गहराई से समझने का प्रयास कर सकते हैं.

प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर का ये संवाद, ‘बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न करोगे?’ ये संवाद जुम्मन शेख की खाला और न्याय करने आये अलगू चौधरी के बीच था. खाला के इन शब्दों ने अलगू चौधरी की अंतरात्मा को झकझोर के रख दिया. इसका असर ये हुआ कि उसने जुम्मन के साथ अपनी दोस्ती के खातिर बईमानी का साथ न देकर इंसाफ करने का फैसला लिया.

दशकों पहले लिखी गई ये संवाद आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी. मेरे ख़याल में यह केवल एक संवाद नहीं बल्कि एक सवाल है देश की सिस्टम पर, हुक्मरानों पर, नौकरशाहों पर, इन्टलेक्चूअल पर और मीडिया पर जो या तो अपनी ईमान बेच चुके हैं या फिर कौन मुसीबत मोल ले, इस डर से सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते.

कहानी के हुक्मरानों यानी पंचों की नियत में खाला के इस बात से बदलाव आ गया, लेकिन न तो उस समय के सत्ताधीशों ने उससे सबक लिया और नहीं आज के सत्ताधारियों ने! तभी तो गरीब, गरीब ही रह गया और अमीर, अमीर बनता गया. हुक्मरानों की सामाजिक न्याय की बात महज दिखावा लगता है, जो हर पांच साल में आम जनता को सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर लेता है. और जनता ठगी के शिकार होकर रह जाती है.

प्रेमचंद ने बताया कि कथाकार के लिए असल चीज़ है इंसानी ज़िंदगी के पहलुओं को रेखांकित करना. एक साहित्यकार का काम है अपने समय के सच को उजागर करना. यदि साहित्यकार ऐसा नहीं कर पाता फिर तो उसका होना व्यर्थ है. वह संघर्ष की ज़मीन पर पांव टिकाता है लेकिन होठों पर मुस्कराहट के साथ.

enter image description hereताउम्र प्रेमचंद ने इस ध्यय को अपनी जीवन में उतारे रखा. उन्होंने ईमान और इंसाफ का साथ देने के लिए कभी किसी 'बिगाड़' की परवाह नहीं की. अब से दशकों पहले लिखी उनकी बातें इसकी गवाह हैं. उपन्यास हों या कहानियां, लेख हों या संपादकीय, प्रेमचंद ने हमेशा वही कहा, वही लिखा जो उन्हें सच और सही लगा. संस्कृति के आड़ में छिपी सांप्रदायिकता को तो उन्होंने बड़ी बारीकी के साथ उघाड़ा ही, साथ-ही साथ उस नस्लवादी नफरत पर भी चोट की हैं, जो फासीवाद की जड़ है.

प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जो अब तक साहित्य का पथ प्रदर्शित कर रहा है. उन्होंने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखीं. उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास की यात्रा अधूरी है.

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