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भारतीय मान्यताओं में रुपये को लक्ष्मी स्वरूपा बताया गया है. लक्ष्मी जिन्हें धन की देवी माना जाता हैं. लक्ष्मी को धन का पर्याय मानते हुए महान लेखक बाणभट्ट ने अपने ग्रंथ 'शुकनासोपदेश' में तारापीड के मन्त्री शुकनास द्वारा राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक से पहले धन के मनोविज्ञान को समझाते हुए कहते हैं-

इयं हि सुभटखड्गमण्डलोत्पलवनविभ्रमभ्रमरी लक्ष्मीः क्षीरसागरात्पारिजातपल्लवेम्यो रागम्, इन्दुशकलादेकान्तवक्रताम्, उच्चैः श्रवसश्चंचलताम्, कालकूटान्मोहनशक्तिं मदिराया मदम्, कौस्तुभमणेर्नैष्ठुर्यम्, इत्येतानि सहवासपरिचयवशात् विरहविनोदचिह्नानि गृहीत्वैवोद्गता। न ह्येवंविधमपरिचितमिह जगति किंचिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। दृढगुणपाशसन्दाननिस्पन्दीकृता अपि नश्यति। उद्दामदर्पभटसहस्नोल्लासितासिलतापंजरविधृता अप्यपक्रामति। मदजलदुर्दिदनान्धकारगजघटितघनघटापरिपालिता अपि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति। नाभिजनमीक्षते। न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। न शीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति। न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते। न विशेषज्ञतां विचारयति। नाचारं पालयति। न सत्यमनुबुध्यते। न लक्षणं प्रमाणीकरोति। गन्धर्वनगरलेखा इव पश्यत एव नश्यति।

आप सर्वप्रथम लक्ष्मी को ही देख लीजिए. समुद्र मंथन से जब यह अस्तित्व में आईं तो क्षीर सागर के पारिजात पल्लवों से राग, चन्द्रमा से वक्रता, उच्चैःश्रवा से चंचलता, कालकूट से मोहने की शक्ति, मदिरा से मादकता, कौस्तुभ मणि से कठोरता का गुण ले के साथ बाहर निकली. जन्मकाल में मथनी रूपी मन्दराचल के घूमने से क्षीर सागर में जो भंवर पड़ गयी उसकी भ्रामकता लक्ष्मी में आज भी विद्यमान है. यह निःस्पृह तथा बड़ी चंचल है. अर्थात यह किसी एक के पास टिक कर नहीं रहती. आज इसके पास तो कल उसके. आज यहां तो कल वहां.

दृढ़ता से बांधकर रखने पर भी चली जाती है. यह किसी की सगी नहीं है. मदजल की निरन्तर होने वाली वर्षा के कारण दुर्दिन जैसा अन्धकार बना देने वाली हाथियों की घनी घटाओं से घिरी हुई भी भाग जाती है. यह किसी की सगी नहीं है. जान पहचान वालों की भी रक्षा नहीं करती. उत्तम कुल, शील, सुंदरता एवं पाण्डित्य को नहीं देखती. शास्त्रों की बातें भी नहीं मानती, धर्म का अनुरोध नहीं करती, त्याग का आदर नहीं करती, विशेषज्ञता को नहीं विचारती, आचरण का पालन नहीं करती, सत्य को नहीं जानती, सामुद्रिक शास्त्रानुसार छत्रचामरादि चिह्नों को भी प्रमाणित नहीं करती है. 

गन्धर्व नगरलेखा की तरह देखते-देखते यह नष्ट हो जाती है. क्योंकि धन के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से वो सैकड़ों दुर्व्यसनों में जकड़ जाते है. वो बांवी के ऊपर जमी घास से टपके हुए जल बिन्दुओं के समान अपने पतन के कगार पर होते हुए भी अपने विनाश को नहीं समझ पाते हैं.

धन की माया में वशीभूत होकर वो स्वार्थ-साधन में सारे कुकर्म करता है. वो जुआ खेलता है. पराई स्त्री के साथ व्यभिचार करता है. निरीह जानवरों का शिकार करता है. अपने से बड़े एवं गुणी लोगों की बात पर ध्यान नहीं देता है. इसी प्रकार की उलटी बातों में पड़कर कुमार्ग की ओर चल पड़ता है जो उसके पतन का कारण बनता है. 

धन के मनोवैज्ञानिक प्रभाव इतना तगड़ा होता हैं कि इंसान उसकी माया में वशीभूत होकर स्वार्थ-साधन में लिप्त रहने लगता है. वो सारे कुकर्म करता है जो उसे नहीं करना चाहिए. वो जुआ खेलता है. पराई स्त्री के साथ व्यभिचार करता है. निरीह जानवरों का शिकार करता है. अपने से बड़े एवं गुणी लोगों की बात पर ध्यान नहीं देता है. इसी प्रकार की उलटी बातों में पड़कर कुमार्ग की ओर चल पड़ता है जो उसके पतन का कारण बनता है.

इंसान इस कदर लालची बन जाता हैं कि वो इसे ज्यादा से ज्यादा पाने की ईच्छा रखता है. उसकी ये चाहत कभी कम नहीं होती. वो इसे बांटना नहीं चाहता. “हम कमाएं और वे खाएं यह भला कैसे हो सकता है?” यह सोच लोगों के मन में आ जाती हैं. इसलिए इंसान को धन के मनोविज्ञान को समझते हुए उससे सावधान रहने की जरूरत है. ताकि लक्ष्मी आपका स्वभाव न बिगाड़ सकें तथा सुख को अभिलाषा आपको कुमार्ग पर न ले जा सके. 

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