जनकवि और राष्ट्रकवि कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की आज जयंती है. हिन्दी साहित्य के सूर्य 'दिनकर' ने अपनी लेखनी से साहित्य को तो प्रकाशित किया ही, साथ ही साथ देश के जनमानस में राष्ट्रीय चेतना के दीप भी प्रज्जवलित किए. दिनकर के शब्द राष्ट्रीय चेतना के संवाहक तो थी ही उनकी लेखनी की धार बड़ी पैनी थी. युगदृष्टा साहित्यकार दिनकर ने अपने समय की कठिनाइयों को बड़ी पैनी दृष्टि से देखा व पहचाना. वे सेलेक्टिव तरीके से आहें भरने वाले कवियों में से नहीं थे, न ही राजनीतिक दलों या विचारों के नफ़े-नुकसान के अंकगणित से अपना नजरिया तय करते थे.

राष्ट्र के आम जनों के दुख-दर्द को महसूस कर, उसे शब्दों में पीरोकर प्रजा के हाहाकार को आवाज देने वाले कवि थे. राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था. इसीलिए वह जन-जन के कवि बन पाए और आज़ाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला. छायावादोत्तर काल को प्रतिस्थापित करने वाले दिनकर का काल छायावाद की रंगभरी सन्ध्या का समय था. छायावाद की उपलब्धियां उन्हें विरासत में मिलीं थीं. पर उन्होंने अपनी एक नई शैली ईजाद किया और हिंदी के एक काल ‘छायावादोत्तर’ के ध्वजवाहक बने.

उनके कवि जीवन का आरम्भ 1935 से हुआ. जब छायावाद के कुहासे को चीरती हुई ‘रेणुका’ प्रकाशित हुई और हिन्दी जगत एक बिल्कुल नई शैली, नई शक्ति, नई भाषा की गूंज से भर उठा. तीन वर्ष बाद जब ‘हुंकार’ प्रकाशित हुई, तो देश के युवा वर्ग ने कवि और उसकी ओजमयी कविताओं को कंठहार बना लिया.

दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई. में बिहार के मुंगेर के सिमरिया गांव में एक किसान परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम रवि सिंह और मां का नाम मनरूप देवी था. उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स की डिग्री हासिल की. इसके बाद वे एक स्कूल में पढ़ाने का काम करने लगे. बाद में वे 1934 में बिहार सरकार के अधिन ‘सब-रजिस्ट्रार’ का पद स्वीकार कर लिया. 

1947 में जब देश को आजादी मिली. तब वे बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर में हिन्दी के ‘प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष’ नियुक्त हुए. 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए. बाद में उन्हें सन् 1964 से 1965 ई. तक ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ का कुलपति नियुक्त किया गया लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना ‘हिन्दी सलाहकार’ नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए.

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से दिनकर की करीबी भी थी. खुद दिनकर ने नेहरू को “लोकदेव” की उपाधि देते हुए “लोकदेव नेहरू” जैसी किताब लिखी. वहीं, नेहरू जी ने भी उनकी मशहूर गद्य कृति “संस्कृति के चार अध्याय” की भूमिका लिखी थी. नेहरू जी के प्रधानमंत्री रहते ही 1952 से लेकर 1964 तक 12 साल कांग्रेस के कोटे से वे राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत हुए. लेकिन इतने करीबी रिश्तों के बावजूद दिनकर जी नेहरू को आईना दिखाने और यहां तक कि आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे.

वे जब राज्यसभा सदस्य बने तो संसद में जाने से पहले नेहरू जी ने उन्हें किसी कविता का पाठ करने को कहा था. निर्भीक दिनकर उस वक़्त भी अपनी बात कहने से नहीं चूके. ‘भारत का रेशमी नगर’ दिल्ली और राजनीतिज्ञों को केंद्र में रखकर लिखी गई इस कविता में उन्होंने उस वक़्त की व्यवस्था पर तंज कसते हुए कहा-

भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में.
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल,
पर, भटक रहा है सारा देश अंधेरे में.
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें,
आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल,
या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी.

तो वही ‘समर शेष है’ में दिनकर लिखते है

अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.

दिनकर के कविता में अद्भूत चमत्कारिक शक्ति थी. उनके कविता के शब्द विद्वानों से लेकर अनपढ़ लोगों के जुबां पर समाहित होकर दिल में रच-बस जाती. भारत के प्रथम गणतंत्र दिवस के दिन लिखी गई दिनकर की कविता “दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.” बाद में यही कविता सन् 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए ‘संपूर्ण क्रांति’ का हुंकार बन गई. और इंदिरा गांधी जैसी बड़ी नेता को सत्ता से न केवल बेदखल किया अपितु वो अपनी सीट भी हार गई.

नेहरू जी के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल तक आते-आते दिनकर कांग्रेस की नीतियों से क्षुब्द रहने लगे थे. इस समय उनका झुकाव जयप्रकाश नारायण की ओर हो गया था. वे अब राजनीति में क्रांतिकारी बदलाव को आकार देने लगे. जयप्रकाश नारायण की प्रशस्ति में उनकी एक कविता काफी मशहूर हुई…

“है जयप्रकाश वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है
बढ़कर जिसके पदचिह्नों को उर पर अंकित कर लेता है.”

दिनकर की प्रसिद्ध कृतियां हैं– रेणुका, उर्वशी, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, संस्कृति के चार अध्याय, हुंकार, सामधेनी, नीम के पत्ते हैं’ मिट्टी की ओर’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण’, ‘हमारी सांस्कृतिक कहानी’, ‘शुद्ध कविता की खोज’. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ एक ऐसा विशद, गंभीर खोजपूर्ण ग्रंथ है, जो दिनकरजी को महान दार्शनिक गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है. अध्यात्म, प्रेम, धर्म, अहिंसा, दया, सहअस्तित्व आदि भारतीय संस्कृति के विशिष्ट गुण हैं.

दिनकरजी अपनी इस कालजयी कृति में घोषणा करते हैं-‘आज सारा विश्व जिस संकट से गुजर रहा है, उसका उत्तर बुद्धिवाद नहीं, अपितु धर्म और अध्यात्म है. धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है. धर्म ही कोमलता है, धर्म दया है, धर्म विश्वबंधुत्व है और शांति है.’

संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया. वर्ष 1972 में काव्य रचना ‘उर्वशी’ के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया. हरिवंश राय बच्चन ने कहा था, ‘दिनकर जी को एक नहीं बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ मिलने चाहिए थे.’

24 अप्रैल, 1974 को दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा के लिये अमर हो गए. आज भी उनकी कविताएं संसद से लेकर सड़क तक नेताओं से लेकर आम-जनों की आवाज बनकर राष्ट्रहित के स्वर बुलंद करती रहती हैं. सच ही, अपने काव्य में सागर की सी गर्जना करने वाले, ‘उर्वशी’ के माध्यम से सुकोमल प्रेम की रसभरी सतरंगी फुहारों में स्नान कराने वाले और गद्य के माध्यम से चिंतन के नए आयाम रचने वाले दिनकर हिंदी साहित्य के सूरज है.

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