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हिंदी भाषा संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रुप में भारत की पहचान बन चुकी है। वैसे ते हिंदी पूरे देश में समझी और बोली जाती है. लेकिन मुख्य तौर पर हिंदी पट्टी के राज्यों में यह भाषा आम बोलचाल, बाज़ार, व्यापार, राजनीति, पत्रकारिता, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में संचार व संवाद का जरिया है. 

स्वाधिनता की लड़ाई के दौरान हिंदी भाषा राष्ट्रीयता की भावना बनकर पूरे जन समुदाय का प्रतिनिधित्व किया. फिर स्वतंत्रता के बाद देश की अन्य 22 भाषाओं को साथ-साथ राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली भाषाओं के रूप में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे स्थान दिया गया। 

सरकारी कामकाज के माध्यम के रूप में हिंदी को भारत संघ द्वारा एवं हिंदी प्रदेशों द्वारा अपनाया गया है. इस रुप में हिंदी बतौर राजभाषा का दर्जा रखती है। किंतु विचारणीय यह है कि हम आज़ादी के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में जितनी विकास होना चाहिये उतनी हुई या पिछड़ गई।

हिंदी भाषा को लेकर संवैधानिक स्थिति

संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक राजभाषा के रुप में हिंदी की स्थिति को बताया गया है। बता दें कि संविधान सभा ने काफी विचार विमर्श करने के बाद 14 सितम्बर सन् 1949 को हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया। अनुच्छेद 343(1) में देवनागरी लिपि लिखी जानेवाली हिंदी को संघ की राजभाषा कहा गया है, साथ ही प्रारंभ के 15 वर्षों तक अंग्रेज़ी के प्रयोग को भी सभी शासकीय कार्यों के लिए मान्यता दी गई। 

अनुच्छेद 344 के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के पश्चात् राष्ट्रपति एक भाषा आयोग की नियुक्ति करेंगे। वह आयोग हिंदी का उत्तरोत्तर अधिक प्रयोग करने और अंग्रेज़ी का प्रयोग घटाने की सिफ़ारिश करेगा। अनुच्छेद 345, 346, 347 के अनुसार दो प्रदेशों के बीच अथवा एक प्रदेश और संघ के बीच संवाद विनिमय के लिए अंग्रेज़ी अथवा हिंदी का और परस्पर समझौते से केवल हिंदी का प्रयोग किया जा सकेगा। किसी राज्य की विधानसभा विधि द्वारा अपने प्रदेश की भाषा को मान्यता प्रदान कर सकेगी। 

यदि कोई राज्य अंग्रेजी को जारी नहीं रखना चाहता तो विधि द्वारा उस प्रदेश की भाषा राजभाषा हो जाएगी। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय की भाषा अंग्रेज़ी होगी किंतु राष्ट्रपति या राज्यपाल की पूर्व सम्मति से हिंदी अथवा उस राज्य की भाषा का प्रयोग उच्च न्यायालय की कार्यवाही के लिए प्राधिकृत किया जा सकेगा।

राजकीय प्रयोजनों में हिंदी के विकास के लिए अनुच्छेद 351 का विशेष महत्व है। संघ को यह कार्य 15 वर्षों में कर लेना चाहिए था किंतु राजनीतिक इच्छा के अभाव में छह दशकों के बाद भी संघ अपने कर्तव्य को बहुत कम पूरा कर पाया है। राजभाषा अधिनियम, 1967 के द्वारा अंग्रेज़ी के प्रयोग को अनिश्चित समय तक जारी रखने का उपबंध भी किया गया है जिसके फलस्वरूप अब कोई प्रदेश तक चाहेगा, अंग्रेजी को भी संघ की राजभाषा के रूप में अपनाता रह सकेगा। इस प्रावधान से अब मिज़ोरम, नगालैंड आदि प्रदेश जिन्होंने अपनी प्रादेशिक भाषा ही अंग्रेजी अपना रखी है, हिंदी से जुड़ने की इच्छा शक्ति खत्म कर चुके हैं।

हिंदी की वर्तमान स्थिति

संघीय स्तर पर राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी का वर्चस्व आज भी कायम है। अंग्रेज़ी आज दक्षिण भाषा-भाषियों के विरोध के कारण ही नहीं, बल्कि प्रशासकों एवं समाज के उच्च वर्ग के अपने निहित स्वार्थ के कारण, राजकाज के स्तर पर, उच्च शिक्षा के स्तर पर छाई हुई है। जब तक अंग्रेज़ी के साथ प्रतिष्ठा, सत्ता, नौकरी और पैसा जुड़ा रहेगा, तब तक लोगों से यह अपेक्षा करना कि वे अपने बच्चों को अंग्रेज़ी न पढ़ाएँ, एक तथ्य को अनदेखा करना होगा। 

गाँधी जी ने अंग्रेज़ी के इस मोह से पिंड छुड़ाना ‘स्वराज’ का अनिवार्य अंग माना था, किंतु देश की विडंबना है कि वह इस मोह से छूटने की बजाय दिन-प्रतिदिन उसमें जकड़ता जा रहा है। अंग्रेज़ी के 3 फीसदी लोग, हिंदी के 44 फीसदी लोगों पर हावी है। अतः न केवल राजनीतिक निर्णय के रूप में बल्कि आम जनता के भावात्मक एवं बौद्धिक विकास की दृष्टि से हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप पूरे देश में, सभी प्रादेशिक सरकारों द्वारा अंगीकार करना चाहिए.

प्रत्येक 14 सितंबर को सरकारी कार्यालय प्रायः हिंदी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा या मास का आयोजन करते हैं किंतु जितनी निष्ठा से हिंदी को अपनाने पर बल देना होना चाहिए वह नहीं करते। राजभाषा के रूप में कभी हम अंग्रेज़ी के अनुवाद बहुत जटिल कर बैठते हैं, कभी वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा निर्मित तकनीकी शब्दों का प्रयोग नहीं करके भ्रम फैलाते हैं, कभी हिंदी के शब्द-कोश, टंकण, कंप्यूटर आदि खरीदने में शिथिलता बरतते हैं, कभी अंग्रेज़ी का जो ढर्रा चला आ रहा है उसे बदलने में संकोच या आलस करते हैं। 

दरअसल हर सरकारी कर्मचारी यदि अपने राष्ट्रीय एवं भाषाई बोध से गर्वित होकर कष्ट उठाकर भी हिंदी को अपनाने का संकल्प कर ले तो राजभाषा के रूप में हिंदी का शत-प्रतिशत व्यवहार संभव हो सकता है । हम संकल्प लें और करें, अन्य कोई उपाय नहीं है। यह जानते हुए भी कि हिंदी को भारत की पहचान के लिए जीवित रहना ही नहीं मुखर रहना भी आवश्यक है। 

अपनी पहचान के लिए हमें हर हाल में, इस संबंध को समझना और जीना होगा। बिना इसके भारतीयता का कोई अर्थ नहीं रह जाताl हिंदी बहती नदी की धारा की तरह सब के लिए उपयोगी और कल्याणकारी रही है। यही कारण है गैर हिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों के हिंदी उन्नायकों ने हिंदी को जन भाषा के रूप में स्वीकार करते हुए इसके उत्थान के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। 

वह चाहे गुजराती भाषा भाषी महर्षि दयानंद और गांधी रहे हों, बंगाल के राजाराम मोहन राय, केशवच्रद सेन और रवींद्र नाथ टैगोर तथा नेता सुभाष रहे हों, या महाराष्ट्र के नामदेव, गोखले और रानाडे रहे हों। इसी तरह तमिलनाडु के सुब्रह्मण्यम भारती, पंजाब के लाला लाजपत राय, आंध्र प्रदेश के प्रो. जी. सुंदर रेड्डी जैसे अनेक अहिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए।

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