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आज क्रांतिकारी उधम सिंह की शहादत का दिन है. सबसे पहले उनको कोटि-कोटि नमन! उधम सिंह एक ऐसा महान क्रांतिकारी जो एक संकल्प को 21 साल तक अपने सीने में दबाए रखते हैं और जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने की मंशा से इंग्लैंड में तब तक इंतजार करते हैं जब तक अपना इंतकाम पूरा नहीं कर लेते.

अंग्रेज़ी हुकूमत के जुल्मों का एक लंबा इतिहास है. जलियांवाला बाग़ हत्याकांड उसकी एक जघन्य करतूत है. इसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों का काला क़ानून रोलेट एक्ट है. इस क़ानून के तहत अंग्रेज़ सरकार किसी भी भारतीय को बिना कारण बताए गिरफ्तार कर सकती थी.

गांधी जी ने इसे काला कानून बताया और इसे न मानने की बात कही. इस एक्ट के विरोध का स्वर इतना तेज़ था कि देश के हर कोने में इसके विरुद्ध आवाज उठने लगी. इसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़े हिरा दी. ऐसे ही एक विरोध करने पर अमृतसर में डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू; दो बड़े कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.

इस गिरफ्तारी के विरोध में एक सभा जलियांवाला बाग़ में आयोजित की गई. इस सभा से तिलमिलाए पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिगेडियर जनरल डायर को आदेश दिया कि एक्ट का विरोध करने वाले को सबक सिखाओ. इस पर उसी के हमनाम जनरल डायर ने सिपाहियों के साथ सभा स्थल जलियांवाला बाग पहुंचे और बिना किसी पूर्व चेतावनी के निहत्थे, मासूम व निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए. enter image description here बाग का इकलौता एक्जिट गेट अंग्रेजों ने बंद कर रखा था. लोग बचने के लिए पार्क की दीवार पर चढ़ने लगे. कुछ जान बचाने के लिए कुएं में कूद गए. इस गोलीबारी में, सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही जाती है. सही आंकड़ा क्या है, वह आज तक सामने नहीं आ पाया है.

यह एक भीषण नरसंहार था. उधम सिंह भी उस दिन जलियांवाला बाग में थे. उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी. वे गवाह थे, उन हजारों भारतीयों की हत्या के, जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे. यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है.

उधम सिंह नाम रखने के पिछे भी एक कहानी जुड़ी हुई है. पहले उनका नाम शेर सिंह था. 26 दिसंबर, 1899 को पंजाब के संगरूर गांव में जन्मे शेर सिंह के सर से छोटी सी उम्र में ही माता पिता का सहारा छिन गया. वे बेसहारा हो गए. फिर वे एक अनाथालय में पले-बढ़े. उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी जब जालियांवाला के दर्दनाक कांड ने उनके जीवन को आजादी की लड़ाई की तरफ मोड़ दिया.

शेर सिंह 1924 में गदर पार्टी से जुड़े. यह संगठन कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों द्वारा 1913 में भारत में क्रांति करने के उद्देश्य से बनाया गया था. गदर पार्टी से जुड़ने के बाद उधम सिंह जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ़्रीका, अमेरिका और ब्राज़ील की यात्रा पर गए जहां उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए चंदा जुटाया और समर्थन मांगा. इसी बीच उन्हें 5 साल की जेल की सजा हुई थी. सजा काटने के दौरान लाहौर जेल में उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई, जिनसे वे बेहद प्रभावित हुए.

जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपना नाम बदल कर 'उधम सिंह' रखा और पासपोर्ट बनाकर विदेश चले गए. जनरल डायर की 1927 में लकवे और अन्य बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी. ऐसे में उधम सिंह के आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक़्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर. जिसने नरसंहार को उचित ठहराया था.

जलियांवाला बाग़ नरसंहार के लिए उधम सिंह इंग्लैण्ड की हुकूमत को उसके घर में घुसकर सबक़ सिखाना चाहते थे. उनके निशाने पर पंजाब का पूर्व गवर्नर ओ डायर आया. 13 मार्च 1940 की शाम को उधम सिंह लंदन के कैक्सटन हॉल में बड़ी चालाकी से प्रवेश कर गए. उन्होंने अपने साथ किताब के अंदर रिवॉल्वर रखा हुआ था.

उधम सिंह को तो इसी दिन की तलाश थी, क्योंकि उस हॉल में चल रहे ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक में माइकल ओ’ ड्वायर बतौर वक्ता उपस्थित था. उधम सिंह इस ताक में थे कि बस बैठक खत्म हो और वे अपना इंतकाम पूरा करे.

बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने की मंशा से 21 साल तक वो लंदन में इंतजार करते रहे थे. enter image description here

हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने की मंशा से 21 साल तक वो लंदन में इंतजार करते रहे. आजादी का ये दीवाना लंदन की पेंटनविले जेल में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमकर झूल गए. देश के बाहर फांसी की सज़ा पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे. उनसे पहले कर्नल वाइली की हत्या के जुर्म में 1909 में क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा को इंग्लैण्ड में फांसी दी गई थी.

फांसी की सजा से पहले लंदन की कोर्ट में जज एटकिंग्सन के सामने जिरह करते हुए उधम सिंह ने कहा था- ‘मैंने ब्रिटिश राज के दौरान भारत में बच्चों को कुपोषण से मरते देखा है, साथ ही जलियांवाला बाग नरसंहार भी अपनी आंखों से देखा है. अतः मुझे कोई दुख नहीं है, चाहे मुझे 10-20 साल की सजा दी जाये या फांसी पर लटका दिया जाए. जो मेरी प्रतिज्ञा थी अब वह पूरी हो चुकी है. अब मैं अपने वतन के लिए शहीद होने को तैयार हूं.’

अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और और हमारी संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है.

इस तरह उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में अमर हो गए. 1974 में ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए. अंग्रेजों को उनके घर में घुसकर मारने का जो काम उधम सिंह ने किया था, उसकी चारो ओर गुणगान हुई. तब जवाहरलाल नेहरू ने भी उनके वीरता को प्रणाम करते हुए कहा, "माइकल ओ’ ड्वायर की हत्या का अफसोस तो है, पर ये बेहद जरूरी भी था. इस घटना ने देश के अंदर क्रांतिकारी गतिविधियों को एकाएक तेज कर दिया."

महान क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह को उनके शहादत दिवस पर शत-शत नमन. उनकी वीरता और देश के लिए सर्वोच्च बलिदान को देश की पीढ़ियां याद रखेंगी.

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