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जब कोरोना महामारी की वजह से देश-दुनिया में आर्थिक सुस्ती है और हर तरफ अनिश्चितता का माहोल है. खपत में कमी आने से डिमांड और सप्लाई के बीच में गैप की स्थिति बनी हुई है. खपत यानी कन्सम्प्शन में कमी इंगित करता है कि लोग खर्च नहीं कर रहे हैं. यह रोजगार में आई कमी और लोगों की घटती आय से जुड़ी हुई है.
ऐसे में शेयर बाजार में लगातार हो रहे बढ़ोतरी ने अर्थव्यवस्था की मौलिक धारणा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है कि जब देश की अर्थव्यवस्था इस समय लगातार नीचे की ओर जा रही है, तो स्टॉक मार्केट लगातार ऊपर कैसे जा रहा है.
यह शेयर बाजार और अर्थव्यवस्था के बीच की विरोधाभास को दर्शाता है. हालांकि शेयर बाजार ने अपने प्रदर्शन से बार-बार साबित किया है कि मैक्रो इकोनॉमी व बिजनेस के फंडामेंटल ही केवल उसके उतार-चढ़ाव के लिए एकमात्र जिम्मेदार कारक नहीं है. स्टॉक माक्रेट की ये अप्रत्याशित व्यवहार 1929 के महामंदी की दौर से बदस्तूर जारी है.
पिछले कुछ महीनों से देखें तो शेयर मार्केट अर्थव्यवस्था से कुछ अलग ही रास्ता अख्तियार करता दिख रहा है. जबकि वैश्विक इंडीकेटर कुछ और ही स्थिति को बता रहे है. इस बात की तस्दीक वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट कर रही है.
विश्व बैंक ने जून 2020 की अपनी 'ग्लोबल इकोनॉमिक प्रॉस्पेक्ट्स' रिपोर्ट में कहा- "कोरोना महामारी के मौजूदा हालात में दुनिया सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद की मंदी के सबसे खराब दौर से गुजर रही है. वैश्विक अर्थव्यवस्था की विकास दर में इस साल 5.2 फीसदी की गिरावट आने का अनुमान है, क्योंकि अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था में प्रति व्यक्ति आय घटकर 1870 के बाद के निचले स्तर पर आ गया है."
रिपोर्ट के अनुसार विकसित अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक वृद्धि में 2020 में 7 प्रतिशत की गिरावट आएगी, क्योंकि घरेलू मांग और आपूर्ति, व्यापार और वित्त बुरी तरीके से प्रभावित हुआ है. वहीं, वित्तीय वर्ष 2020/21 में भारत का इकनोमिक आउटपुट 3.2 प्रतिशत तक सिकुड़ने का अंदेशा है. विश्व बैंक का कहना है कि भारत सरकार के राजकोषीय प्रोत्साहनों और रिजर्व बैंक की ओर से लगातार कर्ज सस्ता रखने की नीति के बावजूद बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र पर दबाव होगा. वहीं, वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट का भारत पर भी असर पड़ेगा.
इससे पहले भी अर्थव्यवस्था में गहरी सुस्ती और इसके लंबे चलने की आशंका दुनिया भर की एजेंसियां जता रही थीं. लेकिन, इन सूचनाओं का शेयर बाजार पर बहुत फर्क नहीं पड़ा. बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का सेंसेक्स ने 17 जनवरी, 2020 को 42,063 पर और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी 12168 के उच्च स्तर पर था.
शेयर बाजार ने मार्च में शुरुआती गिरावट के बाद लॉकडाउन की अवधि में अपने आपको संभाल लिया. शेयर बाजार या तो बढ़त दर्ज कर रहे थे या स्थिर बने हुए थे.
जब अर्थव्यवस्थाएं गिर रही हैं तो शेयर बाजार में बढ़त कैसे?
यह कोई रहस्य नहीं है कि हर बार बाजार में तेजी से गिरावट आती है, सरकार एलआईसी और एसबीआई जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निर्देश देती है कि वे जल्दी से कदम उठाएं, स्टॉक खरीदें और "बाजार की भावना" को बढ़ावा दें.
विकसित अर्थव्यवस्था अमेरिका की बात करे तो वहां फेडरल रिजर्व ने अधिक तरलता बढ़ाने के लिए शून्य के करीब 0.25% ब्याज दर को कम किया. इससे लोगों को शेयर बाजारों में निवेश करने के लिए लगभग मुफ्त में पैसा उधार लेने के लिए प्रोत्साहन मिलता है. यह एक कारण है कि अमेरिकी शेयर बाजार ने तेजी से रिकवरी की है. स्टॉक व्यापारियों को पता है कि फेड करदाताओं के पैसे से बड़े निगमों के दीर्घकालिक लाभप्रदता की रक्षा करेगा.
भारत में, आरबीआई हेडलाइन ब्याज दरों को कम करता रहा है. हालांकि यह अभी तक शून्य के पास नहीं पहुंची है (रेपो दर 4% है), इसने 8.1 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त तरलता उत्पन्न की है. इसका अधिकांश भाग RBI के अपने रिवर्स रेपो खाते में रखा जा रहा है.
लेकिन, इस सस्ते कर्ज ने एक नई स्थिति पैदा की. सस्ते कर्ज देने के लिए बैंकों की छोटी बचत योजनाओं में ब्याज की दरें कम होने लगी. इसके चलते छोटे निवेशक दूसरे तरीके खोजने लगे. एक समय म्यूचुअल फंड में कम रिटर्न के कारण जो निवेशक इससे मुंह मोड़ने लगे थे वे फिर इसकी ओर लौटने लगे.
यानी कि म्यूचुअल फंड के जरिये भी बड़ी रकम शेयर बाजार में निवेश की जा रही है जो उसके स्तर को ऊंचा बनाये हुए है. गहराती मंदी के बीच भी शेयर बाजार ऊंचा क्यों बना हुआ है. लेकिन, इसका एक दूसरा पहलू भी है. शेयर बाजार के हालात पर गौर करें तो देखा जा सकता है कि इस समय उसमें आया उछाल ज्यादातर बड़ी कंपनियों के शेयरों की वजह से हैं.
शीर्ष तीन शेयरों - आरआईएल, एचडीएफसी, और इंफोसिस ने 23 मार्च से 12 जून के बीच अपने बाजार पूंजीकरण में 6.3 लाख करोड़ रुपये जोड़े और मार्च तिमाही (जनवरी-मार्च 2020) में अपेक्षाकृत खराब प्रदर्शन के बावजूद 43% की बढ़ोतरी दर्ज की. उदाहरण के लिए, आरआईएल ने कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के कारण बीते एक दशक में तिमाही लाभ में 6,348 करोड़ रुपये के साथ सबसे बड़ी गिरावट (39%) दर्ज की.
मिड कैप (मध्यम दर्जे की कंपनियों का संवेदी सूचकांक) और स्माल कैप (छोटी कंपनियों का संवेदी सूचकांक) के हालात ऐसे नहीं हैं. शेयर बाजार के जानकार मानते हैं कि पेशेवर निवेशक अपने रिटर्न के गणित के चलते ब्लू चिप कंपनियों में पैसा लगा रहे हैं, उनकी देखा-देखी फुटकर निवेशक भी इन शेयरों की खरीद कर रहे हैं जिसके कारण ये शेयर ओवरवैल्यूड (वास्तविक कीमत से ज्यादा) हो रहे हैं.
इसके अलावा, जबकि मौजूदा मंदी 2007-08 की महान मंदी से कहीं अधिक बड़ी होने की उम्मीद है, विश्लेषकों के अनुसार बाजार के विभिन्न इंडिकेटरों को देखें तो जिसमें प्रति शेयर आय (ईपीएस), प्राइस टु बुक वैल्यू (पीई), कॉर्पोरेट प्राफिट टू जीडीपी, डेट टू इक्विटी रेशियो, डिविडेंड यील्ड रेशियो जैसे विभिन्न पैरामीटरों का समावेश होता है. इन सभी मानकों पर शेयर बाजार को परखे तो उसका वैल्यूएशन अधिक है.
इससे साफ जाहिर होता है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था (मैक्रोइकॉनॉमिक और बिजनेस फंडामेंटल) के साथ शेयर बाजार का लिंक टूट चुका है. और ऐसी स्थिति में स्टॉक मार्केट पानी की उस बुलबुले तरह है जो कभी भी धराशायी हो सकती है.