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सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित हैं. भक्तों के लिए ये महीना बेहद खास होता हैं. भक्त शिवालयों में जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं ताकि महादेव की कृपा उनके ऊपर बनी रहे. लेकिन यूं ही शिवलिंग पर जल नहीं चढ़ाया जाता हैं. इसके पीछे गहरे रहस्य और पौराणिक कथा जुड़ी हुई है. आज आपको मैं इस ब्लॉग के जरिए वो रहस्य और कथा के बारे में बताऊंगा.

यह कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है. इसमें देव और असुर दोनों ने बराबर भाग लिया था. और पहले से ही ये निर्णय लिया गया कि इस मंथन से निकलने वाली चीज़ों को दोनों में समान रूप से बांटा जाएंगा. मंदार पर्वत और वासुकि नाग की मदद से समुद्र मंथन की तैयारी शुरू की गई. मंदार पर्वत के चारो ओर वासुकि नाग को लपेटकर रस्सी के तौर पर इस्तेमाल किया गया. तीनों लोक के पालक भगवान विष्णु खुद कछुए का रूप लेकर मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर रखते हैं ताकि वह सागर में न डूबे. क्षीर सागर में इस अमृत मंथन के दौरान सागर से सिर्फ अमृत का प्याला ही नहीं, हलाहल नाम का विष भी निकला.

विष का प्रभाव इतना ज्यादा था कि पूरी दुनिया विनाश के कगार पर आ गई. न किसी में इतनी शक्ति थी कि विष के जानलेवा प्रभाव को रोक सके. देव असुर व्याकुल हो गए. सब त्राहिमाम करने लगे. सब कहां उम्मीद लिये थे कि बहुमूल्य चीज़े प्राप्त होगी. हुआ भी ऐसा ही अमृत सहित तमाम बहुमूल्य चीज़े निकली. परंतु उसके साथ-साथ विनाशकारी विष भी निकला.

मौत को सामने पाकर सब देवों के देव महादेव को याद करने लगे, क्योंकि त्रिलोक में केवल 'महादेव' ही उन्हें इस विनाश से बचा सकता था. तब भगवान शिव ने पूरी दुनिया को बचाने के लिए ही इस विष का पान करने को तैयार हो गए.

शिव ने विष का प्याला पीना शुरू ही किया था, तभी माता पार्वती, जो उनके साथ खड़ी थीं उन्होंने उनके कंठ को पकड़ लिया ताकि विष शरीर के भीतर ना जा सके. ऐसे में ना तो विष उनके कंठ से बाहर निकला और ना ही शरीर के अंदर गया. वह उनके कंठ में ही अटक गया. विष का प्रभाव इतना तीव्र था कि उनका कंठ नीला हो गया. तभी से वे नीलकंठ भी कहलाए जाते हैं.

विष के ताप से शिव के पूरे शरीर सहित आसपास का वातावरण भी जलने लगा. तभी सभी ने भगवान भोलेनाथ पर जल चढ़ाना शुरू कर दिया. इससे विष के प्रभाव में कमी आने लगी. पौराणिक मान्यता के मुताबिक ये घटना सावन मास में घटित हुई थी. इसलिए सावन के महीने में ही शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है.

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