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ना चाहते हुए भी पता नहीं क्या कर बैठी।
ज़िंदगी की उन यादों को एक बार फिर से इस दिल में ला बैठी।
जानती हूँ वक़्त चला गया है, अब लौट कर नहीं आएगा,
पर उन बीते लम्हों को फिर से जीने की तमन्ना कर बैठी।
ना कोई शोर था, ना कोई दस्तक, बस एक एहसास था कि ज़िंदगी जी रहे हैं।
ज़िंदगी के कुछ बेफ़िक्र पल ऐसे गुज़र गए कि पता ही नहीं चला कब हम बड़े हो गए।
माँ जब सिर पर हाथ फेरती, तो ऐसा लगता था जैसे सुबह का पहला उजाला छू गया हो।
परिवार की छोटी-छोटी नोक-झोंक में दिन गुजर जाता था,
और रात में माँ के आँचल में ही पूरी दुनिया का एहसास हो जाता था।
पापा के साथ हँसी-मज़ाक करना और उनके साथ थोड़ा वक़्त बिताना दिल को बहुत सुकून देता था,
पर उनके साथ बाहर जाने की ख़ुशी, बस ख़्वाबों में ही रह जाती थी।
सबसे अच्छे दोस्त तो हमारे दादा-दादी ही थे,
हर छोटी-छोटी बात पर उनकी नज़र होती थी हम पर।
जब भी दादाजी हमें खेतों में ले जाया करते,
तो अपने ज़माने की बातें सुनाया करते।
उनकी कही हर कहानी में जैसे सच की झलक होती थी,
जो हमें उनके ज़माने की सच्ची दुनिया से रूबरू कराया करती थी।
दादी ने हमें खाना खिलाने और प्यार करने में कभी कमी नहीं छोड़ी।
हर रोज़ हमारी खाने की ख्वाहिश पूरी करने में,
दादी ने अपनी ज़िंदगी के कुछ पल हमें दे डाले।
पता नहीं कब और कैसे हम इतने बड़े हो गए,
ज़िंदगी के हर कदम का फ़ासला खुद से ही लेना लग गए।
परिवार की हर बात टालना लग गए हैं हम।
क्या इस नई भागती दुनिया में हम अपने संस्कारों को ही भूल गए हैं?
शायद अब हम में वो बचपन नहीं रहा,
ज़िंदगी की उन पुरानी गलियों में खेलने का एहसास नहीं रहा।
बदल चुके हैं हम, इस ज़माने का साथ निभाते-निभाते
खुद को ही खो बैठे हैं…
"अब तो बस उन लम्हों की यादें रह गई हैं
"अब समझ आया, वो पल ही असली ज़िंदगी थे — जो बेपरवाह थे, जो अपने थे।"

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