ग़म को छुपाने के लिए मुस्कुराना पड़ता है
चेहरे के ऊपर एक चेहरा और लगाना पड़ता है।
आँखों के पानी को लोग समझ न जाएँ कहीं,
तकलीफ़ को आँखों का कंकड़ बताना पड़ता है।
हल्के में न लेने लगें लोग अपनी शख्सियत,
तभी अपनी बातों का वज़न बढ़ाना पड़ता है।
औकात मापने वाले यहाँ हर गली में खड़े,
तभी हमको भी अपना रुतबा दिखाना पड़ता है।
एक तीर ही काफ़ी है हमको सुलाने के लिए,
तभी अपने हुनर को अपनी ढाल बनाना पड़ता है।
ज़ख्म ये सड़कर नासूर न बन जाए कहीं,
तभी उस पर हमदर्दी वाला मरहम लगाना पड़ता है।
राह चलने वालों की नज़र न पड़ जाए कहीं,
तभी दरवाज़े पर हमें पर्दा लगाना पड़ता है।