कभी टपरी पर मिलते हैं, कभी पटरी पर मिलते हैं,
कभी ये मुहल्ले की तंग सड़क पर मिलते हैं।
वो दिख जाते हैं हमको बेवजह हर जगह,
हम जहाँ भी जाते, वो वहीं पर मिलते हैं।
कोई गीत गाता है, कोई आँसू बहाता है,
कोई बस पालने को पेट यहाँ बोझा उठाता है।
कोई फुटपाथ पर बैठा तमाशा रोज़ करता है,
जलाकर तन यहाँ बचपन को कोई राख करता है।
दो रोटी, एक कपड़ा और एक चप्पल की चाहत में,
कोई जूठा उठाता है, कोई पोंछा लगाता है।
जिन्हें था खेलना, खाना, पढ़ना और बड़ा होना,
बड़ा बन जाने की ज़िद में वो बचपन को खपाता है।
कहाँ हैं वो, ये जिनके मज़े के फूल हैं कोई,
अब लगता है इन्हें भी कि जैसे ये भूल हैं कोई।
जवानी में गवाकर होश जिसने बीज ये बोया,
इन्हें कचरे के डिब्बे में दबाकर चैन से सोया।
कहाँ है वो, जिसने अपने तन में इन फूलों को सींचा था,
बहाने में इन्हें मन जिसका ज़रा भी न पसीजा था।
बड़ा है संगदिल उसका, जो अब तक जी रहा है वो,
भुलाकर भला इन्हें कैसे पानी पी रहा है वो।