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काले धन की आग ने लालची लोगों को अपने वश में कर रखा है। इस महाजाल से बाहर निकलना लोभी इंसान के हाथों में तो है, परंतु जितनी गहरी इच्छा तिजोरी को भरने की होगी, उतनी ही वह तिजोरी काली होती जाएगी। मन की चंचलता भी लालचीपन के सागर में गोते लगाते रहेगी। संजीव भी इसी लालच की भीड़ में शामिल था। उसके मन में भी स्वार्थ भाव जागा। उसे हमेशा यही चिंता रहती कि जितना हो सके, कम वक़्त में दूसरों की जेब लुटकर एक करोड़पति इंसान बन जायूँ। उसके परिवार में उसके माता - पिता, उसकी चार बहनें और एक छोटा भाई था। भाई - बहनों में संजीव ही अलग था। वह पढ़ाई या घर का कोई काम करने में आलसी था लेकिन ठगी करने में बड़ा माहिर था। लालच की लालसा को पूरा करने के लिए वह गाँव से चंडीगढ़ चला गया। किसी रिश्तेदार की सिफारिश से उसे वहाँ प्राइवेट जॉब मिल गई । वह बड़े समूह के लोगों से मेल - जोल रखता था। वह उन्हें हमेशा शक़्कर से भरपूर शब्दों की मीठी गोली देता रहता था। और वे उच्च पदों पर आसीन लोग उसकी चीनी जैसी बातों में आकर मक्खन की तरह पिघल जाते थे। पिघलते भी क्यों न, क्योंकि यह हुनर उसे लालच के रूप में प्राप्त हुआ था। वह सामने वाले को इस कदर अपना प्रशंसक बना लेता था कि हर कोई उसकी तारीफ़ में फूलों जैसे शब्दों की बरसात करते रहते। संजीव के मुख से निकला हर शब्द रस के जैसा घोल का काम करता था। उसके प्रशंसक ख़ासकर उसके विभाग के बड़े - बड़े अधिकारियों ने, जहां वह प्राइवेट जॉब करता था, उसकी बातों से प्रभावित होकर उसे सरकारी कर्मचारी के रूप में मान्यता दे दी और साथ में रहने के लिए उसे सरकारी आवास भवन भी मिल गया। उसे तो ऐसा लग रहा था जैसे उसकी लॉटरी लग गई हो। उस दिन वह बहुत खुश था। उसकी किस्मत में मानो जैसे कि तुक्के का तीर चला गया हो। वह वार्तालाप करने में होशियार था। हर इंसान के दिल को जीतने के लिए और सामने वाले का विश्वास बनाए रखने के लिए मीठी बोलचाल में सबको अपना चहेता बना लेता था। अभी तक तो संजीव ने अपने रस से भरपूर शब्दों के घोल का इस्तेमाल करके अपनी दक्षता दिखाकर सरकारी नौकरी प्राप्त की थी लेकिन अभी तो उसे अपनी इस कुशलता का ठगी करने में इस्तेमाल करना बाकी था।
वक़्त गुजरता गया। वक़्त की डोर किसी इंसान के हाथ में नहीं होती। इंसान सही वक़्त का इंतजार करता रहता है लेकिन यह समय की घड़ी किसी का इंतजार नहीं करती। वह बिना रुके चलती रहती है। कभी- कभी घड़ी की गति धीमी प्रतीत होती होगी। घड़ी खराब हो जाने पर दिन और रात थम नहीं जाते। इस गुजरते वक़्त के साथ संजीव की बहनें कब बड़ी हो गईं और शादी करने के लिए लायक भी हो गईं, उसे इस बात का पता ही नहीं चला। वह अपना हर समय दूसरों को ठगने के लिए दिमाग में कोई न कोई योजना बनाता रहता। अब तक उस ने जो पैसा नौकरी करते समय कमाया था, उन पैसों में से अपने लिए कुछ पैसे बचाकर बाकी धन बहनों के विवाह पर खर्च कर दिया।वह गाँव में सिर्फ अपनी बहनों की शादी करवाने के लिए अपना हिस्सा देने आया था। गाँव से चंडीगढ़ शहर की वापसी के वक़्त वह अपने छोटे भाई को भी साथ ले आया। साहिल, उसका छोटा भाई जोकि बहुत कम बोलता था। वह संजीव के व्यवहार से बिलकुल अलग था। वह संजीव की संगति बहुत कम ग्रहण करता था। वह तो अक्सर अपने मस्तिष्क में ज्ञान के बीज की फ़सल इक्क्ठी करता रहता। दूसरी तरफ, संजीव ने जो मेहनत करके अब तक अपनी तिजोरी धन से भरी थी। वह उस तिजोरी को कलंकित करने के सपने देखता रहता। मेहनत से भरी धन की तिजोरी सोने के आभूषण के रंग जैसी चमकती है लेकिन अगर उस तिजोरी में काला धन की माया प्रवेश कर जाए तो वह तिजोरी काले धन का खजाना कहलाती है। वह परिश्रम से सोने जैसी तिजोरी को भरने की बजाय उसे काली कमाई से काली तिजोरी को रंग देना चाहता था। जैसे- जैसे उसके लालच का गड्ढा जितना गहरा होता गया, वैसे- वैसे उसकी तिजोरी ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। पापों का खजाना भरना आसान होता है लेकिन लालची मानव के जीवन में सुकून की एक घड़ी भी नसीब नहीं होती। इस खजाने से सुकून का पल इंसान कभी भी खरीद नहीं सकता। जिस मानव को अपने जीवन से संतुष्टि होगी, समझ लो कि उसे किसी भी तरह का कोई भी लोभ अपने चंगुल में फंसा नहीं सकता। इसके विपरीत परिश्रम से कर्मठ होकर कमाया पैसा ईमानदार इंसान को जिंदगी भर का सुकून देता है। यदि अभिभावकों को साहिल जैसा हीरा बेटा मिला तो दूसरा बेटा लालचीपन का शिकारी निकला। साहिल ज्ञान का भंडारी था तो उसका बड़ा भाई कलंक का पुजारी निकला। दोनों भाई बिलकुल एक- दूसरे के विपरीत निकले।
संजीव की शहरी नगर में रहते हुए बहुत हद तक जान- पहचान बढ़ चुकी थी, जब उस ने चंडीगढ़ शहर को ही अपना निवास स्थान बना लिया था। उस ने साहिल को किसी अच्छी- सी पोस्ट पर नियुक्त करवा दिया। वह शक़्कर जैसी बातों को मिलावट करने में बहुत शातिर था इसलिए वह अपने छोटे भाई को उच्च विभाग में नियुक्त करवाने में सफल रहा। साहिल वैसे भी मेहनत करके एक बेहतरीन पद प्राप्त कर सकता था क्योंकि उसे हमेशा ज़्यादा- से- ज़्यादा ज्ञान अर्जित करने की उत्सुकता रहती। परंतु उसे सिफारिश के बल पर नौकरी प्राप्त करना गैर- कानूनी लगा इसलिए उस ने बड़े भाई की सिफारिश वाली नौकरी ठुकरा दी और अलग- से परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी ताकि वह कठोर श्रम के बल पर सरकारी अधिकारी बने। अपनी लग्न से उसने पहली बार में परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। साहिल ने साक्षात्कार का पड़ाव भी बहुत ही आसानी से पार कर लिया। वक़्त के सत्य पथ पर चलते हुए साहिल उचित अंक प्राप्त करके प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए दूसरे शहर चला गया। प्रशिक्षण का एक साल पूरा करने के बाद साहिल एक बड़ा अफसर बनकर उभरा। मेहनत की कुंजी उसकी ही किस्मत का ताला खोलती है जो समय के पहिए पर सत्य बनकर ईमानदारी से मेहनत की बुनाई करता है। फिर एक परिश्रमी सफल होकर अपनी तिजोरी को पूंजी से भरता है। साहिल सत्यनिष्ठ भाव से अपना कर्तव्य सरकारी विभाग में निभाता रहा और वहीं दूसरी ओर बड़ा बंधु स्वार्थ और लालच रूपी सर्पिणी के समान लोगों को ठगकर स्वयं को एक बुद्धिमान समझता रहा। उसके हृदय में लोभ का जहर किसी अशुद्ध नहर की धारा की तरह बहता ही जा रहा था। वह कुसंगत कर्मों से परहेज करने में असफल रहा। साहिल ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया। उसने सरल भाषा में संजीव को समझाने की काफ़ी कोशिश की किन्तु उसे तो अपनी तिजोरी को भरने की ऐसी ललक लगी थी कि उस ने सत्यनिष्ठ के रास्ते पर चलने वाले छोटे भाई की बातों को अनसुना कर दिया। साहिल की अच्छाई की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल दीं। उसे अपने बड़े भाई से यही अपेक्षा थी। संजीव की सत्य के प्रति उपेक्षा और असत्य के रास्ते को तय करना, उसके लालच का एक नियम था। वह उस दलदल में बुरी तरह धंसता ही जा रहा था, जहां से लोभी लोग कलंकित होकर भी खुद की गलती कभी स्वीकार नहीं करते।
भोले- भाले और विनम्र लोगों की संपत्ति पर गिरगिट की तरह नजर रखना, यह संजीव की बहुत बुरी आदत बन चुकी थी। उसकी इस निम्नस्तरीय सोच के खिलाफ साहिल उससे बेहद निराश रहता। उसकी यह घटिया आदत घरवालों को भी अप्रिय लगी। वह सीधे- सादे लोगों को अपना शिकार बनाता था। पहले वह ऐसे लोगों से बातचीत के माध्यम से जान- पहचान बढ़ाता। फिर धीरे- धीरे उनका दिल शहद भरी बातों से जीत लेता और सामने वाले को अहसास ही नहीं होता कि मीठा जहर देने वाला यह शख्स सर्प के समान है जो अपनी जिह्वा का इस्तेमाल मीठा डंक मारकर सामने वाले को आर्थिक पक्ष से कमजोर करने वाला है। भोले- भाले लोगों को जिन्हें संजीव जैसे लोगों के बहुरूपी चेहरे के बारे में तब पता चलता है, जब उनके पास पछतावे के अतिरिक्त कोई ओर रास्ता नहीं होता। संजीव ठगी करके कुछ दिनों के लिए कहीं न कहीं खुद का रहने का जुगाड़ कर लेता था ताकि कोई भी उसके विरुद्ध उसके लिए थाने का द्वार न खटखटा दे। आजकल कुछ पुलिसकर्मी भी लालची होते हैं, यही सोचकर कुछ सीधे- सादे लोग शांत होकर बैठ जाते हैं। संजीव ऐसे लोगों को न सिर्फ आर्थिक रूप से क्षीण कर रहा था बल्कि मानसिक रूप से भी उन्हें निर्बल कर रहा था। वह उनका दो तरह से शोषण कर रहा था जिसके कारण वे सीधे- सादे लोग वित्तीय दृष्टि से अशस्त हो जाते थे। लोगों से छल करके अपनी तिजोरी को भरता रहता और फिर भी उसके लालची मन को कभी संतुष्टि न मिलती. वह ओर अधिक - से - अधिक पाने की लालसा में रहता। दिन- प्रतिदिन जितनी तिजोरी भरती जाती, उतनी ही संजीव की चतुर बुद्धि उसे विनाश के गड्ढे की ओर धकेल रही थी। जो लोग संजीव की छलकपट युक्तिकौशल का शिकार हो जाते थे, उन लोगों में अब विषमता और अविश्वास की भावना बढ़ती गई। संजीव की भोली सूरत, उसका तेजस्वी व्यवहार कुशलता से भरा और गुड़ के ढेर जैसी बातों को फेंकने वाला, स्वयं के लिए वरदान सिद्ध हुए लेकिन अस्थायी रूप से। कुछ लोभी लोगों को लगता है कि वह काले धन से तिजोरियों को भरते रहेंगे किन्तु जब पाप का खजाना अपनी असीमित हदें पार कर देता है, तब परमात्मा की अनसुनी लाठी को सीधे- सादे लोगों की पीड़ा के बदले में हिसाब चुकता करना पड़ता है। मासूम लोगों की पीड़ा की कराह जब प्रभु के कानों तक पहुंचती है, तब वह किसी न किसी रूप में अपने भोले- भाले तथा विनम्र लोगों की पीड़ा का बदला लेने के लिए द्रोही को जिन्दगीभर का सबक ज़रूर सिखाता है। परमात्मा यह सब अपने हिसाब से सही वक़्त आने पर करता है।
संजीव के परिजन उसकी इस बुरी लत से बहुत दुखी रहते थे। उन्हें अपने छोटे बेटे साहिल की तरफ से कोई दुख नहीं था। जब संजीव ने गलत रास्ते पर चलना बंद नहीं किया तब साहिल उससे अलग रहने लगा। वह अपने भिन्न घर में रहने लगा जो उसे सरकारी आवास के रूप में मिला था। दोनों भाईयों में पहले इतने मतभेद नहीं थे, जीतने अब बढ़ गए। संजीव द्वारा अनैतिक पथ पर चलने के कारण साहिल ने बार- बार उसे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन अच्छाई के रास्ते पर उसे भलाई के कांटे नजर आते थे। उसने न केवल अनगिनत लोगों के दिलों पर प्रहार किया बल्कि अपने परिजनों को भी भावनात्मक रूप से भी आहत किया।उसे बस अपने लालच की भूख ही समझ आती थी। दूसरों की पीड़ा से उसे कोई लेना- देना नहीं था। वह न केवल दूसरों की मेहनत की कमाई पर राज कर रहा था बल्कि खुद के लिए पापों का भंडार भी काली तिजोरी में एकत्रित कर रहा था। उस ने तिजोरी को काली माया से भरने के लिए भरी और साथ में तिजोरी को भोले- भाले लोगों को वित्तीय रूप से पीड़ित करके बुरे कर्मों की पोटली से भरकर पीड़ितों के आंसूयों से सजा रहा था। अपने माता- पिता और भाई- बहनों को भूलकर वह भौतिक भावना से ही स्वयं को प्रसन्न करने में प्रयत्नशील रहता था। पर वह लालच के गहरे गड्ढे में लालचीपन का दास बन चुका था। उसके चंचल मन को कभी संतुष्टि मिली ही नहीं। जितना लालची मन उसे अन्य लोगों की वित्तीय स्थिति को क्षीण करने के लिए उकसाता गया, उतना वह अन्याय के गर्त में गिरता गया।
संजीव को सही राह पर लाने के लिए उसके परिवार वालों ने हर संभव कोशिश की लेकिन उनका हर प्रयत्न असफल रहा। उनको संजीव की तरफ से सिर्फ हताशा ही मिली। अभिभावकों द्वारा निरंतर समझाये जाने के बावजूद संजीव उनकी अवहेलना करता रहता। वह सुधरने का कोई नाम ही नहीं लेता था। लाख बार समझाने के बाद भी संजीव की नस- नस में लालच रूपी सर्पिनी ने लोभ का विष उसके दिमाग में पूरी तरह फैला दिया था जिसका कहर उसके व्यवहार तथा अहंकार में झलक रहा था। उस ने सामान्य इंसान को ही कई बार अपनी ठगी का शिकार बनाया। वहाँ एक तरफ उसे सरकारी नौकरी करने के बदले तनख्वाह हर माह मिलती रहती। बढ़ते रैंक के कारण उसकी आय चार गुना बढ़ गई थी। दूसरी ओर वह साधारण जनों को अपने लालची हित को पूरा करने के लिए उनका आर्थिक शोषण कर रहा था। वह एक तीर से दो तरफ से मुनाफा अर्जित करता रहा। फिर भी उसके षडयंत्रकारी दिमाग को चैन नहीं मिलता। मीठी बोलचाल के कारण उसके पहले से बिछाये जाल में लोग आसानी से फंस जाते थे. वह अच्छे- बुरे, सभी लोगों के दिलों को जीत लेता था लेकिन अपने कुकर्मों की वजह से आम जनता में बदनाम भी बहुत हुआ। किसी इंसान का आर्थिक पतन करना, उसे भिखारी बनाने के समान है। उस ने सत्य के मार्ग पर चलने की बजाय लालच के मीठे जहर का सेवन करना ज़्यादा उचित समझा। वह एक तरह से साधारण लोगों की वित्तीय स्थिति कमजोर करने वाला घातक अत्याचारी बन गया था। जिससे दुखी होकर वेदना का शिकार आम इंसान अपनी व्यथा सुनाने के लिए भी काबिल न रहा क्योंकि संजीव उनकी महत्वपूर्ण संपत्ति की कुंजी पर नजर डालता रहता था। उसे लालच की आग ने ऐसा घेरा कि उसे अपने भीतर त्रुटियां कभी नजर ही नहीं आईं। उसके दिमाग़ पर काले धन को इकट्ठा करने की ऐसी सोच असर कर चुकी थी कि उसकी काली तिजोरी दिन- प्रतिदिन मलिन होती जा रही थी। इतनी धन माया इकट्ठी करने के बावजूद भी उसे ऐसी कमाई से कभी सुकून नहीं मिला। वह जिंदगभर के लिए इस काली कमाई का दास बन गया। वह पैसे से दूसरों को नहीं, बल्कि उसकी काली तिजोरी उसे ही नचा रही थी। वह काले धन का बादशाह कभी भी नहीं बन सका क्योंकि वह खुद ही काले धन को एकत्रित करने वाला एक नौकर बन गया था।
कुछ समय के पश्चात् साहिल की शादी तय हो गई। संजीव को खास निमंत्रण देने के लिए छोटा भाई उसके पास गया। वह संजीव को देखकर हैरान रह गया क्योंकि लोभ की जंजीरों ने उसे बहुत - ही जोर से जकड़ रखा था। वह अपने प्रतिकूल व्यवहार से अभी तक बाहर नहीं निकला था। साहिल तो पिछले सारे मतभेद बुलाकर उसे शादी पर आमंत्रित करने गया था। वह गाँव जाने के लिए मान ही नहीं रहा था। काफ़ी देर समझाने के बाद वह साहिल की शादी में उपस्थित हुआ। साहिल की शादी होते ही घरवालों ने संजीव के लिए भी लड़की पसंद कर ली। कुछ दिनों बाद उसका भी विवाह कर दिया गया। लेकिन संजीव की पत्नी शादी करके गाँव में रहना नहीं चाहती थी। वह जिद पर अड़ी रही कि वह भी अपने पति के साथ शहर में ही रहेगी। परंतु साहिल की पत्नी को गाँव में रहने की कोई दिक्कत नहीं थी। वह गाँव में रहकर अपने सास- ससुर की सेवा करती रही। पूरा घर साहिल की पत्नी संभालती थी। साहिल की पत्नी बहुत ही सूझवान निकली। उस ने कभी साहिल को किसी बात का शिकायत करने का मौका नहीं दिया। वह कुछ दिन गाँव में रहा। फिर वह अपना सरकारी कर्तव्य निभाने के लिए गाँव से शहर की ओर रवाना हो गया। पर जब भी घर में उसकी ज़रूरत होती तो भी वह गाँव का चक्कर ज़रूर लगाता रहता। लेकिन संजीव को गाँव की याद तभी आती जब उसे वहाँ किसी इंसान से कोई मतलब हो या तभी अपने दर्शन देता जब घर में कोई विशेष समारोह आयोजित किया हो। साहिल की जिंदगी खुशहाल व्यतीत हो रही थी परंतु संजीव की जिंदगी शादी के बाद उसकी आशा के बिलकुल विपरीत निकली। दरअसल, उसकी पत्नी को श्रृंगार और दिल खोलकर शॉपिंग करने की आदत थी। वह ब्यूटी पार्लर जाकर खुद को संवारने के लिए संजीव का पैसा हवा की तरह उड़ाती रहती थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि मानो उसकी काली तिजोरी खाली होती जा रही है। संजीव ने दूसरों को बेवकूफ बनाकर जिंदगी में अब तक जितनी अंधाधुंध काली कमाई की थी, वह सारी कमाई धीरे- धीरे करके उसकी बीवी अपने शौक पूरे करके उड़ा रही थी। जो इंसान अपनी मिश्री जैसी बातों से सबका दिल जीत लेता था, वह इंसान अपनी पत्नी से हार गया। उसकी बातें करने की कुशलता उसकी पत्नी को प्रभावित नहीं कर पाई। बल्कि, उसकी पत्नी ही उसे अपने तीखे तेवर दिखाकर संजीव पर हावी होने लगी। वह अपनी बीवी के सामने खुद को बेबस समझता रहा। संजीव की रस भरी बातों का जादू सिर्फ अन्य लोगों पर ही चलता था लेकिन खुद की बीवी पर नहीं। शादी के एक साल बाद उसकी पत्नी ने दो बेटों को जन्म दिया। समय की गति चलती रही और इधर संजीव के कंधों पर बच्चों की जिम्मेदारी बढ़ती गई। उसकी काली तिजोरी को खाली करने के लिए परमात्मा ने उसकी जिंदगी में उसकी पत्नी और एक बड़ा झटका देने के लिए दो पुत्रों को भेजा जो किसी न किसी बहाने उसकी काली कमाई को खर्च करके नष्ट कर रहे थे। अपने जीवन में अब तक किए गए कुकर्मों की याद संजीव को आ गई। संजीव का एक बेटा गलत संगत का शिकार होकर शराबी बन गया और दूसरे लड़के को सदा के लिए एक घातक बीमारी ने घेर लिया जिसका इलाज असंभव है। संजीव का दूसरा लड़का अक्सर बीमार रहता। उसे रोज दो वक़्त की दवाई देनी पड़ती थी। संजीव की काली कमाई को पत्नी अपने शौक पूरे करने के लिए खुद पर उड़ा रही थी, एक बेटा शराब के नशे पर खर्च करके खुद में चूर रहता और दूसरे बेटे के इलाज के लिए चल रही दवाईयों की महक ने घर को ही मेडिकल स्टोर बना दिया। संजीव की पत्नी को तो बेटों की बिगड़ती हालत की ज़रा -सी भी परवाह नहीं थी। दूसरी ओर, साहिल की शादीशुदा जिंदगी बहुत ही खुशहाल चल रही थी। वह अपने परिवार के साथ बहुत खुश रहता और साथ में माता- पिता को अकेले कभी नहीं छोड़ा जैसे संजीव उन्हें भगवान के भरोसे पर छोड़कर अपने माता- पिता के प्रति कर्तव्य को भूल गया था। लेकिन साहिल ने बखूबी अपने अभिभावकों की सेवा की। उसकी पत्नी बहुत ही सरल स्वभाव की और सूझवान जीवन संगिनी थी। उसका एक बेटा और एक बेटी ने अपने जीवन में अच्छी संतान बनकर अपने माता-पिता की आज्ञा की कभी अवहेलना नहीं की। वे दोनों बच्चे हमेशा साहिल के बताए नेक रास्ते पर चले और दोनों ने नेक और सच्चे इंसान बनकर अपने माता- पिता की इज्जत का पूरे गाँव में मान बढ़ाया। साहिल के दोनों बच्चे सफलता प्राप्त करने के लिए जिंदगी के पथ पर अग्रसर होते जा रहे थे। परंतु, संजीव का परिवार उसे दिवालिया करने पर चलता रहा। उसके परिवार के तीन सदस्य उसकी काली तिजोरी पर पहरा दे रहे थे और वह काली तिजोरी देखते ही देखते खाली होती जा रही थी। यह बात संजीव को अंदर ही अंदर खाई जा रही थी। वह अकेले में भीतर से रोता रहता। लेकिन उसे चुप कराने के लिए उसका वहाँ अपना कोई न था।
संजीव की पत्नी बिलकुल ही लापरवाह थी। वह न तो घर संभालती, न अपने शराबी बेटे को मादक पेय का सेवन करने से रोकती, खुद के खर्चो पर कोई नियंत्रण करती, न ही उसे बीमार बेटे की स्वास्थ्य की कोई चिंता रहती, संजीव अपने बुरे कर्मों की पहेली में स्वयं ही उलझ गया था। ये उलझनों की दीवार की चिनाई भी संजीव ने खुद तैयार की थी, जब उसमें लालच का चस्का लग गया था, अब वह उसी दीवार पर रोज अपना सिर पटक- पटककर रोता रहता। वह खुद को तिनके के समान तुच्छ समझने लगा। काली तिजोरी की वजह से वह अपने माता- पिता से दूर हो गया और भाई- बहनों से भी दूरियाँ बढ़ गईं। सिर्फ लालच की संतुष्टि न होने की वजह से वह अपनों से दूर हो गया। उसके घरवालों ने उसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत! संजीव को पछतावा बहुत ज़्यादा हुआ लेकिन बहुत देर से। संजीव की शादी उसे एक गहरा सबक सीखा रही थी ताकि वह भविष्य में कभी किसी के साथ ऐसा धोखा न करे। जीवन- धारा के इस प्रवाह में वह लालच के वश में होकर बहता गया, जहां पर उसे कभी सुकून का किनारा मिला ही नहीं। काले धन का संचय करने के बावजूद लोभी इंसान को चैन की नींद नसीब नहीं होती। वह अब तक अपनी चतुराई से दूसरों पर शासन करता रहा लेकिन वक़्त के पहिए ने अपना पथ बदला और अब उसके द्वारा किए गए बुरे कर्म ही उस पर अत्याचार कर रहे थे। वह गम के सागर में लीन था कि तभी उसे सरकारी विभाग की तरफ से एक ओर झटका मिलता है। दरअसल, वह जिस सरकारी आवास भवन में परिवार सहित रह रहा था, उसे खाली करने के लिए कहा गया क्योंकि वह रिटायर होने वाला था। उस ने अब तक न कोई जमीन खरीदी और न ही जमीन खरीदने के लिए धन संचय किया। उसका कमाया काला धन उसकी आशा के विपरीत उजड़ गया। वह ज़्यादातर समय अकेला रहने लगा। अवसाद का रोग उसके इर्द - गिर्द उसे सताता रहता। कुछ दिनों बाद रिटायर होने के बाद एक महीने के अंदर उस ने सरकारी आवास भवन खाली कर दिया। वह परिवार को साथ लेकर किसी फ्लैट में किराये पर रहने लगा। एक तरफ परिवार के खर्चे बहुत मुश्किल से पूरे हो रहे थे और दूसरी तरफ शहर में रहने के कारण किराया भी बहुत ज़्यादा था।काली तिजोरी लोभी मानव के लिए भविष्य में तबाही के गड्ढे खोदती रहती है। अगर गलती से भी उस तिजोरी की कालिमा का दाग खुद के चरित्र पर लग जाए तो अंत में जाकर लालच की हदें पार हो जाने पर लोभी इंसान का मिलन नाश से होता है, जो उसके जीवन के पतन का कारण बनता है। संजीव को अपने माता- पिता और भाई- बहनों की याद सताने लगी। अपने माथे पर बदनामी का जो टीका उस ने लगा रखा था, वह अब जिंदगी भर मिटने वाला नहीं था। उसे बहुत ज़्यादा पछतावा हो रहा था। इस पछतावे की अग्नि में वह रोज जल रहा था। अपनी भूल को स्वीकार करने के लिए वह एक दिन अपने गाँव गया। उसे अपने माता- पिता के उस प्यार के संरक्षण की छाया की आवश्यकता थी जिसे दुनिया के धन की मोह - माया ने उसे अपनों से दूर कर दिया था। माता-पिता से संजीव को पछतावे की भीषण आग में तड़पते देखा नहीं गया। उन्होंने तुरंत उसे माफ करके उस पर सहयोग और असीमित प्रेम के जल का छिड़काव किया। संजीव की पत्नी भी अपनी भूल स्वीकार करके गाँव में अपने ससुराल आकर रहने लगी। उसे इस बात की समझ आ गई थी कि यह सौंदर्य अंत में मिट्टी में ही मिलेगा और ये शौक चार दिन की चांदनी के समान ही होते हैं। गाँव में संजीव के छोटे बेटे का इलाज करवाया गया और कुछ माह बाद उसके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। वह पहले से बेहतर महसूस करने लगा। यहां शहरी अस्पतालों के बड़े- बड़े चिकित्सक उसके छोटे बेटे का इलाज सही से नहीं कर पाए, वहाँ गाँव में कुछ महीनों के भीतर उसका उपचार वेद द्वारा ही संभव हो पाया। संजीव के बड़े बेटे ने मदिरा छोड़ दी और जिंदगी की सही राह पर चलने की प्रेरणा उसे अपने चाचा जी से ही मिली। साहिल ने अपने दोनों भतीजों को भी सत्य के रास्ते पर, परिश्रम के बल पर आसमान की ऊँचाईयां छूने का हुनर सिखाया ताकि वे दोनों सफल और आत्मनिर्भर युवा बनें। संजीव और साहिल ने भी आपसी मतभेद भुलाकर एक- दूसरे को गले लगाया। पुरानी बातों को भूलकर जिंदगी के सफर को फिर से एक नए पन्ने पर शुरू किया, जिसकी जिंदगी के हर पन्ने पर अनेकों बुराईयों पर नैतिकता का कब्ज़ा रहेगा। दुर्गुणों को दरकिनार करके अच्छाई के गुणों को अपनाकर संजीव ने अपने जीवन के आने वाले हर अध्याय को भलाई के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। सारा परिवार अब एक छत के नीचे हंसी- खुशी से मिल-जुलकर रहने लगा।