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पहले रूस का यूक्रेन पर हमला, इसके बाद इजराइल का हमास को लक्ष्य कर गाजा पर किया गया घातक हमला, फिर इजराइल का ईरान पर और अभी कुछ दिनों पूर्व क़तर के दोहा में मौजूद हमास नेताओं पर मिसाइल से घातक हमला. इसी बीच भारत-पाकिस्तान के बीच दो दिनों तक चला सैन्य संघर्ष. दूसरी तरफ, आर्थिक मोर्चे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का चीन, ब्राज़ील और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था पर भारी व्यापारिक टैरिफ को लगाना. प्रतिक्रियास्वरूप ट्रम्प के टैरिफ से घायल रूस, चीन, ब्राज़ील और भारत जैसे देशों का एक मंच पर आना. यह सब तो मुख्य और चर्चित वह घटनाक्रम है जिसने पिछले कुछ समय में वैश्विक पटल पर भूचाल ला दिया है. परिणामस्वरूप इन घटनाक्रमों ने शीतयुद्ध के बाद अब तक स्थापित भू-राजनीतिक समीकरण को हिलाकर रख दिया है.

वैसे तो हमेशा से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में दो देशों के बीच संघर्ष चलते रहे हैं और उसका प्रभाव उसी क्षेत्र विशेष तक सीमित रहा है. परन्तु यूक्रेन पर रूस का, गाजा, ईरान और क़तर पर इजराइल का हमला, भारत-पाक संघर्ष और उसके बाद ट्रम्प के टैरिफ का असर पूरी दुनिया पर होगा, ऐसा संभवतः किसी ने सोचा नहीं होगा. हालात यह है कि अभी के दौर में वैश्विक स्तर पर स्थापित सभी राजनीतिक और सामरिक समीकरण ध्वस्त हो रहे हैं और नित्य नए समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं. समग्र तौर पर देखा जाए तो इस उठापटक की सबसे बड़ी वजह डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासित अमेरिका की वह दोहरी नीति है जिसका खामियाजा सभी देशों को भुगतना पड़ रहा है. इस बात को समझने के लिए हमें डोनाल्ड ट्रम्प के सत्ता में आने और उनके वाहियात मंसूबों पर गौर करना होगा.

अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के लिए ट्रम्प ने चुनाव प्रचार के दौरान मेक अमेरिका ग्रेट अगेन यानि MAGA का नारा दिया था और साथ ही रूस-यूक्रेन युद्ध और इजराइल-हमास संघर्ष को भी ख़त्म करने का वादा किया था. यह वादा उनके उस वाहियात दिमाग की उपज थी जिसके पीछे उनका शांति के लिए नोबेल पुरस्कार पाने की लालसा थी. लेकिन सत्ता में आने के कई महीने बीत जाने के बाद भी न तो वह अमेरिका को ग्रेट बना सके और न ही किसी युद्ध और संघर्ष को रुकवा पाए हैं. हाँ, इतना अवश्य हुआ है कि उनके उटपटांग बयानों और नीतियों से दुनिया का भू-राजनीतिक समीकरण बिगड़ता चला गया. इसी दौरान कश्मीर के पहलगाम में पाकिस्तानी आतंकियों ने कई निर्दोष पर्यटकों की हत्या कर दी. परिणामस्वरूप भारत ने पाकिस्तान स्थित कई आतंकवादी अड्डों पर मिसाइल से हमला कर उसे नेस्तनाबूद कर दिया. भारत के इस हमले से बिलबिलाए पाकिस्तान ने भारत पर ड्रोन, मिसाइल और लड़ाकू विमानों से हमले की असफल कोशिश की. भारत ने भी पाकिस्तानी हमले का करार जवाब दिया जिसमें पाकिस्तान के कई सैन्य अड्डे तबाह हो गए और उसके अस्त्र-शस्त्र को भी भारी नुकसान पहुंचा. तब पाकिस्तान ने त्राहिमाम करते हुए भारत के सामने संघर्ष को रोकने की गुजारिश की और फिर भारत ने सहमति जताते हुए संघर्ष पर विराम लगा दिया. यहाँ भी भारत द्वारा संघर्ष विराम की घोषणा करने से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने संघर्ष रुकवाने का श्रेय लेने की चेष्टा की और पाकिस्तान ने ट्रम्प की बातों का समर्थन कर दिया. इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने आनन-फानन में ट्रम्प को नोबेल पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित कर दिया. पाकिस्तान से इतर भारत ने न तो ट्रम्प को संघर्ष रुकवाने का श्रेय दिया और न ही अमेरिका से इस मुद्दे पर कोई बातचीत की. भारत ने स्पष्ट कर दिया कि यह उसका द्विपक्षीय मामला है और वह इससे खुद ही निपटेगा. यही बात ट्रम्प को मिर्ची की तरह लग गई और नोबेल पुरस्कार पाने का उनका सपना धुंधलाने लगा. सही मायने में भारत पर लगा व्यापारिक टैरिफ ट्रम्प की उसी खीझ का परिणाम है.

भारत के प्रति ट्रम्प की इस खीझ का परिणाम यह निकला कि रातों-रात दक्षिण एशिया का भू-राजनीतिक समीकरण बदल गया. पिछले लगभग 15 वर्षों से अमेरिका के लिए अप्रसांगिक हो चुका पाकिस्तान अचानक उसका हितैषी हो गया. ट्रम्प पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष यानि उसके प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ को किनारे करते हुए वहाँ के सेनाध्यक्ष असीम मुनीर की आवभगत करने लगे और उसे अपने साथ डिनर कराने लगे. दूसरी तरफ वर्षों से भारत के साथ मजबूत होते राजनीतिक, सामरिक और व्यापारिक रिश्ते को धत्ता बताते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प भारत को ‘डेड इकॉनमी’ और रूस-यूक्रेन युद्ध का पोषक बताने लगे. जब इससे भी मन नहीं भरा तो रूस से तेल लेने का बहाना बनाते हुए ट्रम्प ने भारत पर 50 फीसदी का व्यापारिक टैरिफ लगा दिया.

ट्रम्प के इस व्यव्हार से भारत का असहज होना और नाराज़ होना स्वाभाविक है. भारत का पड़ोसी चीन भी ट्रम्प की नीति से क्षुब्ध रहा है. रूस पर तो अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी और नाटो देशों का प्रतिबंध पहले से ही चला आ रहा है. अमेरिका ने अपने पड़ोसी ब्राज़ील पर भी भारत के बराबर ही टैरिफ लगाया है. अमेरिका का सहयोगी जापान भी ट्रम्प के टैरिफ नीति से नाराज़ है. अमेरिकी प्रशासन ने कमोबेश दुनिया के उन सभी देशों को उच्च टैरिफ दर से दहलाया है जिससे वह विभिन्न प्रकार के वस्तुओं और सेवाओं का भारी मात्रा में आयात करता है. ट्रम्प की नई टैरिफ नीति से सबसे अधिक प्रभावित देशों में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि ये सभी देश अपने हितों की रक्षा में कड़े कदम उठाएं जिससे अमेरिका को स्पष्ट संदेश दिया जा सके. पहले तो इन सभी देशों के नेता चीन के शहर तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की मीटिंग में मिले और अमेरिका से मिल रही चुनौती पर चर्चा की. इसके बाद ब्रिक्स (ब्रिक्स) की गतिविधि को तेज करने पर सहमति बनाई गई. गौरतलब है कि भारत, चीन और ब्राज़ील ने रूस के साथ मिलकर अपने देश के नाम के पहले अक्षर को जोड़कर वर्ष 2001 में ब्रिक (BRIC) समूह का निर्माण किया था. वर्ष 2010 में इसमें दक्षिण अफ्रीका को भी शामिल कर लिया गया और फिर यह समूह ब्रिक्स (BRICS) के नाम से जाना जाने लगा. ये पाँचों देश विश्व की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में अग्रणी स्थान रखते हैं. इस समूह का मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों के बीच आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देना है. अभी तक इसमें सामरिक सहयोग का समावेश नहीं है, परन्तु अब जब अमेरिका में ट्रम्प के आने के बाद दुनिया की भू-राजनीतिक स्थिति में बदलाव आया है तो हो सकता है ब्रिक्स भी अपना एक सैन्य और सामरिक गठबंधन बनाए. अगर ऐसा होता है तो अमेरिका और पश्चिमी देशों के सैन्य और सामरिक गठबंधन नाटो (NATO) को ब्रिक्स से कड़ी चुनौती मिलेगी. परिणामस्वरूप एक बार फिर से शीतयुद्ध वाले तनाव का दौर शुरू हो सकता है. इस समीकरण में भी गोलमाल है और वह है धुर विरोधी भारत और चीन का सहयोग बढ़ाने के लिए एक मंच पर आना. अब तक चीन-भारत के संबंध सामान्य नहीं रहे हैं. सामरिक मोर्चे से लेकर आर्थिक मोर्चे तक दोनों देशों में टकराव का माहौल हमेशा बना रहता है. कुछ महीने पहले भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष के दौरान चीन ने खुलकर पाकिस्तान का पक्ष लिया था और उसे विनाशक हथियार भी मुहैया कराए थे. परन्तु अब ट्रम्प की नीति से छटपटा रहा चीन भारत के साथ दोस्ती और सहयोग के मीठे धुन बजा रहा है.

केवल एशिया और यूरेशिया में ही भू-राजनीतिक समीकरण का गोलमाल नहीं हो रहा है. मध्य-एशिया, मध्य-पूर्व और यूरोप भी ट्रम्प की करामात से अछूते नहीं हैं. इजराइल के खौफ से जहाँ मध्य-पूर्व के इस्लामी मुल्क सकते में हैं वहीं अमेरिका इजराइल के साथ मजबूती से खड़ा है. यहाँ उल्लेखनीय है कि मध्य-पूर्व के ज्यादातर इस्लामी देश अमेरिकी रहमोकरम के भरोसे हैं और अमेरिका ने यहाँ अपने कई सैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं. ऐसे में अमेरिका की संभावित नाराज़गी को भांपते हुए मध्य-पूर्व के प्रमुख इस्लामी राजशाही परिवार क्रमशः क़तर, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, ओमान, जॉर्डन आदि इजराइल की गाजा में आक्रामकता का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे थे. परन्तु जब इजराइल ने हमास के नेताओं को निशाना बनाते हुए क़तर की राजधानी दोहा पर मिसाइल से घातक हमला कर दिया तब अमेरिका को लेकर मध्य-पूर्व के देशों का आत्मविश्वास डगमगा गया. इन देशों को समझ आ गया है कि इजराइल के मामले में अमेरिका संकट के समय कभी भी उन्हें धोखा दे सकता है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इजराइल एक परमाणु संपन्न राष्ट्र है जबकि पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश के पास न तो परमाणु हथियार है और न ही परमाणु हथियार बनाने की क्षमता है. क़तर पर इजराइल के हमले के बाद एक बार फिर से एक नया भू-राजनीतिक और सामरिक समीकरण बना है. इस समीकरण के तहत सऊदी अरब ने अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए परमाणु संपन्न इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान के साथ आनन-फानन में एक रक्षा समझौता कर लिया जिसके तहत दोनों में से किसी पर कोई बाहरी आक्रमण होता है तो दोनों देश मिलकर उसका मुकाबला करेंगे. अभी भले ही अमेरिका को तात्कालिक तौर पर इस समझौते से कोई नुकसान नहीं हो रहा हो परन्तु जब इजराइल की आक्रामकता पर अंकुश लगाने के लिए सभी अरब देश एक साथ आ जाएंगे और नौबत परमाणु युद्ध तक आ जाएगी तब अमेरिका क्या करेगा? अमेरिका इजराइल को तो छोड़ नहीं सकता है, तब उसे अपने ही पाले हुए अरब देशों और साथ में डिनर करने वाले असीम मुनीर के सैनिकों से भिड़ना पड़ेगा. इसके बाद मध्य-पूर्व और पश्चिमी एशिया का भू-राजनीतिक और सामरिक समीकरण कैसा होगा, इसमें दुनिया की दिलचस्पी बनी रहेंगी.

अब बात पश्चिमी और अमेरिका के सहयोगी नाटो देशों की करते हैं. यहाँ भी अमेरिका का वर्तमान ट्रम्प प्रशासन अपनी मर्ज़ी चलाने की कोशिश में है. परन्तु यहाँ भी उसे पूर्ण सफलता नहीं मिल रही है. पश्चिमी देशों के साथ उसके मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पहला, अमेरिका पश्चिमी देशों पर भी दबाव बना रहा है कि वह रूस से तेल खरीदने के मामले में भारत पर भारी टैरिफ लगाकर उसे दंडित करे. परन्तु इस मामले में सभी पश्चिमी देश और उसके नाटो सहयोगी मौन हैं. इससे उलट यूरोपियन यूनियन भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते की दिशा में आगे बढ़ रहा है. साथ ही यूरोपियन यूनियन से अलग हो चुके ब्रिटेन के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता हो भी चुका है. भारत से हटकर जब हम अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के बीच के संबंधो को देखें तो वहाँ भी गड़बड़झाला ही नज़र आता है. इजराइल की आक्रामकता पर अंकुश लगाने को लेकर कई देशों का अमेरिका के साथ मतभेद सामने आ रहे हैं. अमेरिकी दबाव में फिलिस्तीन को मान्यता देने से अब तक बच रहे पश्चिम देश अब खुलकर फिलिस्तीन को राष्ट्र का दर्जा देने का मुहिम चला रहे हैं. फ्रांस, कनाडा, ब्रिटेन, पुर्तगाल के अलावा अमेरिका का एक और सहयोगी ऑस्ट्रेलिया ने भी फिलिस्तीन को मान्यता देने की घोषणा कर दी है. अब आगे अमेरिका और इजराइल क्या कदम उठाते हैं, दुनिया के भू-राजनीतिक और सामरिक समीकरण में इसका प्रभाव अहम् हो सकता है.

बहरहाल, दुनिया के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक हलचल मचा हुआ है. सभी देश अपने हितों के हिसाब से राजनीतिक और सामरिक संबंध बनाने और साधने में जुटे हुए हैं. कल क्या होगा, कौन किसके साथ जाएगा और कौन किसे छोड़ेगा, इसका पूर्वानुमान लगाना अभी लगभग असंभव है. दूसरी तरफ, नित्य नए हो रहे भू-राजनीतिक और सामरिक संबंधों में हो रहे बदलाव से दुनिया सहमी भी हुई है क्योंकि समीकरणों में हो रहे बदलाव की मुख्य वजह देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक हित नहीं बल्कि सामरिक हित ज्यादा है. अगर यह हित अधिक जटिल होता है तो दुनिया को भयावह युद्ध और विनाश की ओर जाने से रोक पाना असंभव होगा.

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