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वह सामने कुर्सी पर रखे तौलिये को देख रही थी, जो हवा में हल्का-हल्का हिल रहा था। कमरे की खामोशी में तौलिए की वह धीमी-सी लय किसी मौन संगीत की तरह बज रही थी। वह बहुत देर से उसे एकटक घूर रही थी, मानो उस हलचल में कोई पुराना राज छुपा हो। अचानक उसकी नज़र टूट गई, और उसने महसूस किया कि पिछले कई दिनों से वह बस इसी तरह, कभी किसी वस्तु, कभी किसी जगह, नज़र टिकाकर समय गुज़ार रही है।

उसे लगा, जैसे वह अब अपनी ही दुनिया में कैद है। यह सच है कि अंत के करीब आते-आते हमारा मस्तिष्क हमें वापस वहीं ले जाता है, जहाँ से हमने शुरुआत की थी। शायद यही कारण था कि वह बार-बार अपने पुराने दिनों में लौट जाती थी।

लगभग 22 साल का रहा होगा उसका जीवन, लेकिन असल में उसने जी भरकर जिया था सिर्फ 20 साल। पिछले दो साल से उसकी दुनिया का दायरा बस उस कमरे, उस खिड़की और उस बिस्तर तक सिमट गया था। उसके पास भी सपने थे, छोटे-बड़े, रंग-बिरंगे। कभी उसे पेरिस में एक आर्ट गैलरी देखने का मन होता, कभी किसी पहाड़ पर जाकर सूर्योदय देखने का। लेकिन कैंसर ने उसके सारे सपनों के पंख काट दिए थे।

जीवन में परिस्थितियों की मजबूरी इंसान को बनाती भी है और कई बार तोड़ भी देती है। वह टूट चुकी थी, पर फिर भी किसी अदृश्य धागे से बंधी हुई थी। अब उसका ज़्यादातर समय निर्जीव चीज़ों को घूरने में बीतता था, शायद इसलिए कि वे, कई जीवित लोगों से ज़्यादा, उसे जीवंत लगते थे।

आज उसकी नज़र दीवार पर टिक गई थी। वही दीवार, जिस पर उसने सालों पहले अपनी बनाई पेंटिंग्स लगाई थीं। उसे याद है, वह दिन जब उसने पहली बार ब्रश हाथ में लिया था। घर में झगड़े चल रहे थे, माँ-पापा की बहस की आवाज़ों के बीच उसने अपने कानों में रंगों का संगीत भर लिया था। पेंटिंग उसके लिए सिर्फ एक शौक नहीं था, बल्कि बचने का रास्ता था।

रंगों में वह अपनी पूरी दुनिया बना लेती, ऐसी दुनिया जिसमें कोई झगड़ा नहीं, कोई आंसू नहीं। यही वजह रही कि उसने कभी बहुत रिश्ते नहीं बनाए। जब भी किसी नए रिश्ते की शुरुआत होती, चाहे वह दोस्ती ही क्यों न हो, उसे पुराने टूटे रिश्तों की टीस याद आ जाती और वह वहीं रुक जाती।

पिछले कुछ समय से उसने रंगों को छुआ तक नहीं था। धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि काल्पनिक रंगों की तुलना में वास्तविकता हमेशा जीत जाती है और यह जीत बहुत कड़वी होती है।

दीवार को घूरते-घूरते उसकी गर्दन में अकड़न आने लगी। उसने सिर घुमाया और उसकी नज़र पड़ी मेज़ पर रखी लाल लकड़ी की गुड़िया पर। यह गुड़िया उसके भाई ने दी थी, उस भाई ने जो उसका सबसे सच्चा दोस्त भी था।

बचपन से ही उन्होंने इतने रिश्तों की कठिनाइयाँ देखी थीं कि चाहकर भी एक-दूसरे से नफ़रत नहीं कर पाए। बाकी भाई-बहनों की तरह झगड़े करने का मौका उन्हें मिला ही नहीं, क्योंकि हर कठिन परिस्थिति के अंत में बस वे दोनों ही एक-दूसरे के लिए खड़े रहते थे।

वे साथ में पतंग उड़ाते, बारिश में भीगते, और अब जब जीवन की सबसे कठिन बाज़ी चल रही थी, तब भी वह साथ था। उसे मौत का उतना डर नहीं था, जितना अपने भाई से अलग होने का। यही उसकी सबसे बड़ी शिकायत थी भगवान से, थोड़ा और वक्त क्यों नहीं दिया कि वह अपने भाई की बहन बनी रह सके।

इन सोचों में खोई, उसे अचानक वे सारे पल याद आने लगे जब किसी ने उसके भाई के खिलाफ कुछ कहा था और उसने बिना सोचे-समझे उसका पक्ष लिया था। उन पलों को सोचकर उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान आ गई।

शायद सच है, जीवन के हर कठिन पड़ाव पर भगवान एक हाथ ज़रूर देते हैं, जो हमारे साथ चलता है। लेकिन बहुत कम होता है कि वह हाथ हर मोड़ पर हमारे साथ बना रहे।

बीते कुछ महीनों से उसने महसूस किया था कि अब उसकी याददाश्त कमजोर हो गई है। चीजें रखकर भूल जाती, लोगों के नाम याद नहीं रहते, यहाँ तक कि वे भी, जो कभी उसके दिल के सबसे करीब थे। उसे लगता था कि यह उसकी अपनी ही बनाई हुई आदत का परिणाम है। वह हमेशा चाहती थी कि पुरानी कड़वी बातें भूल जाए और वर्तमान में जिए, पर अब तो नई और पुरानी, दोनों तरह की यादें उससे दूर जा रही थीं।

फिर भी, इस बीमारी का एक फायदा था, दुखी क्षणों की यादें धुंधली हो चुकी थीं। सुख के पल वैसे भी उसकी ज़िंदगी में गिने-चुने थे, तो उनका याद रहना या न रहना कोई फर्क नहीं डालता था। पर अपने प्रियजनों की मौत की याद वह चाहकर भी नहीं भूल पाती थी। यह दर्द उसके साथ अटका हुआ था, जैसे कोई पुराना घाव जो भरने से इंकार कर रहा हो।

कमरे में हल्की-सी ठंडक फैल गई थी। खिड़की से आती हवा तौलिए को फिर से हिलाने लगी। उसने अपनी उंगलियों को चादर पर हल्के से घुमाया, जैसे कोई बच्चा मिट्टी में लकीरें खींचता है। वह चाहती थी कि उसका शरीर फिर से वैसे ही हल्का और चंचल हो जाए जैसा कभी था, जब भागना, दौड़ना, हँसना और रोना सब आसान था।

तभी फोन में दवा लेने का रिमाइंडर बजने लगा। यह आवाज़ अब उसके लिए रोज़ का हिस्सा थी, लेकिन आज यह किसी अजीब-सी बेचैनी के साथ आई।

उसने उठने की कोशिश की। शरीर थक चुका था, जैसे किसी ने उसके अंगों में सीसा भर दिया हो। पहली बार वह उठने में असफल रही। दूसरी बार भी। तीसरी कोशिश में उसने मेज़ तक पहुँचने का साहस जुटाया। मेज़ पर लाल लकड़ी की गुड़िया और उसकी दवाइयाँ रखी थीं, जैसे दोनों ही उसे याद दिला रही हों कि अभी भी कुछ पल बाकी हैं।

उसने एक नीली और एक पीली गोली उठाई, पानी का गिलास हाथ में लिया और उन्हें गटक लिया। पानी गले से नीचे उतरा और उसके साथ ही, जैसे उसने अपने अंदर जमा हर बुरा अनुभव भी निगल लिया हो।

मेज़ पर रखी गुड़िया की आँखें जैसे उसे देख रही थीं। 

वह मुस्कुराई, एक धीमी, थकी हुई मुस्कान, लेकिन सच्ची।

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