भारत का हृदय कहे जाने वाले मध्‍य प्रदेश की राजधानी भोपाल में सन् 1984 दिसम्‍बर की एक ठंडी रात के दरमियान होने वाली एक घटना है जिसने न जाने कितने परिवारों की जिंदगी बदल दी और जिसने भोपाल जैसे शांत शहर को पूरे विश्‍व में मशहूर कर दिया। भोपाल का इस घटना से इस प्रकार नाम जुड़ गया कि यह घटना भोपाल की एक पहचान भी बन गई। शायद ही इससे पहले भोपाल को कोई विश्‍व में भोपाल की किसी इस प्रकार की घटना के कारण जानता होगा।

यह घटना मेरे जीवन की एक सच्‍ची घटना है जिसे मैंने जिया और आज तक महसूस भी कर रही हूँ। मैं जब लगभग चार वर्ष तथा मेरा छोटा भाई दो वर्ष तब शायद हम इस घटना की भयावहता को नहीं समझ पायें हों और न ही यह समझने में उस उम्र में समर्थ थे कि इस घटना का भविष्‍य में हमारे जीवन पर क्‍या असर होगा ? उस समय मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि मैं उस घटना को भलीभांति समझ पाती या स्‍पष्‍ट रूप से याद रख पाती पर वह घटना ऐसी थी जिसने बाकी जीवन में हमें कई बार उस घटना को याद करने पर मजबूर तथा हर साल उसके बारे में पढा जाना। भले ही वह घटना विस्‍तार से मुझे याद नहीं हो पर धुंधली यादें जरूर हैं। दिसम्‍बर की एक ठंडी रात में जब हमारा परिवार जिसमें मेरे माता-पिता, दादी और मेरा छोटा भाई आराम से गहरी नींद में सो रहे थे, अचानक से लगभग रात के 11 बजे मेरा छोटा भोई रोने लगा और तेज-तेज खांसने और अपनी ऑंखों को मसलने लगा मेरी मॉं को लगा कि शायद किसी चीज की वजह से मेरे भाई को खांसी हो रही है तथा ऑंखों में जलन हो रही है तो उन्‍होंने उसकी ऑंखों को पानी से साफ करने की कोशिश की परंतु वह चुप ही नहीं हो रहा था। फिर धीरे-धीरे मैं भी रोने और खांसने लगी घरवालों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अचानक से हमें क्‍या हो गया ? कहीं हमें किसी चीज की एलर्जी तो नहीं हो गयी । सभी परेशान हो गये कि क्‍या करें ? धीरे-धीरे घर में मेरी दादी को भी ऑंखों में जलन का अनुभव होने लगा फिर मेरी माता-पिता को हम सब घबरा गये। अचानक हमारे घर के दरवाजे पर दस्‍तक हुई तो मेरे घरवालों को लगा इतनी रात को कौन आ गया जैसे-तैसे ऑंखों की जलन को देखते मुश्किल से दरवाजा खोला तो मेरे ताऊजी जो कि रात में उस समय हमारी एक टाईपिंग की दुकान थी जो घर से लगभग 2-3 किलोमीटर हमारे घर से दूर थी, वे वहीं रात को रूकते थे। उनकी ऑंख लाल थीं और उन्‍होंने कहा कि भोपाल में जब वह दुकान पर थे तो उन्‍होंने अचानक बहुत सारा शोर सुनाई दिया तो उन्‍होंने देखा कि सब लोग परेशान और बदहवास होकर भाग रहे हैं। उन्‍होंने बताया कि जब किसी से पूछा तो उसने बताया कि भोपाल में गैस निकल गयी है, यदि जान बचाना है तो भागो। मेरे ताऊजी को कुछ समझ नहीं आया पर वह अपने सामने इतने लोगों को इस तरह गिरते पढ़ते भागते हुये देखकर घबरा गये और जल्‍दी से घर आ गये हमें भी यदि जान बचानी है तो भागना पड़ेगा। उस समय हम भोपाल रेल्‍वे स्‍टेशन के नजदीक रहते थे, जिसे आम बोलचाल की भाषा में पुराना भोपाल कहते हैं। उनकी बात सुनकर मेरे घरवाले घबरा गये परंतु ऑंखों में जलन और यह खबर सुनकर किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था एक तो ऑंखों में इतनी जलन और खॉंस-खॉंस के सब का इतना बुरा हाल था और भागने की बात सुनकर तो कुछ भी समझ ही नहीं आ रहा था परंतु जान बचाने के लिये भागना पड़ेगा यह सुनकर किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा कि दो छोटे-छोटे बच्‍चों को और मॉं को लेकर इतनी रात में कहॉं जायेंगे। परंतु मेरे ताऊजी ने कहा कि सब भाग रहे हैं, सोचने का टाईम नहीं है, बस जैसे हो वैसे ही बाहर निकलते हैं। मैंने सुना है कि यह गैस पुराने भोपाल के ईलाके के पास कहीं से निकली है नये भोपाल में इसका असर नहीं होगा। नये भोपाल साउथ टी.टी. नगर में मेरी बुआ रहती थी, उन्‍होंने कहॉं हम उनके यहॉं चलते हैं। घरवालों को कुछ समझ नहीं आया पर उन्‍होंने मेरे ताऊजी की बात मान ली और भागने के लिये तैयार हो गये। मेरी माँ चप्‍पल ढूंढने लगी तो उन्‍होंने कहा कि जल्दी करो तो वह नंगे पैर ही घर से निकल गयी। मेरे भाई को मेरे पापा ने और मुझे मेरे ताऊजी ने अपने कंधे पर बिठाया। जब हम रोड पर निकले तो कोई साधन नहीं था उनके घर जाने का और बाहर का नजारा देखकर मेरे घर वालों की ऑंखें फटी की फटी रह गई। इतने लोग रोड पर भाग रहे थे और कोई उल्‍टी कर रहा था तो कोई बेहोश या कितनों की लाशें ऐसे पड़ी हुई थीं। उस समय मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि मैं ज्‍यादा कुछ समझ पाती पर आज भी उस समय के कुछ दृश्‍य मेरी ऑंखों के सामने आ जाते हैं, भले ही धुंधले । कोई उल्‍टी कर रहा है, बच्‍चे चीख-चाीख कर रो रहे हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्‍या रहा है जो जिस हालत में है बस वह किसी तरह सुरक्षित जगह पर पहुंचना चाहता था, जिसमें अधिकांश लोग तो हमारी तरह ही थे जिन्‍हें कुछ मालूम ही नहीं था कि कौन सी गैस और क्‍या हुआ है ? पर लोगों की बात सुनकर घबरा कर जान बचाने के लिये भाग रहे थे। मेरी बुआ का घर जो हमारे घर से लगभग 10 किमी था। सामान्‍य परिस्थिति में इतने दूर नंगे पैर जाना आज हम सबको असंभव लगता हो पर उस समय पता नहीं कौन सी ताकत या जान पर पड़ी होने के कारण दूरी नहीं दिख रही थी, बस अपनी जान बचाना ही एक मकसद था। किसी तरह हम रात को गिरते-पड़ते अपनी बुआ के यहॉं पहुँचे। हमे देखकर वो भी घबरा गयी पर उन्‍होंने कहॉं कि उन्‍हें तो कोई परेशानी नहीं हो रही है और न ही यहॉं इस प्रकार की किसी घटना की जानकारी उन्‍हें हैं। हम सब लोगों ने पूरी रात जागकर काटी इस डरे से कहीं इस गैस का असर यहॉं तक भी हुआ तो हम क्‍या करेंगे, कहॉं जायेंगे। सुबह-सुबह लगा कि अब क्‍या करें तो मेरी छोटी बुआ जो मेरी बड़ी बुआ के पास ही रह रही थीं। उन्‍होंने उत्‍सुकतावश सोचा कि चलो आज जाकर देखें कि कैसी परिस्थिति है, ये लोग डरे हुये हैं, इसलिये हम जाकर देखकर आते हैं। लेकिन जैसे ही वे वहां पहुंची किसी ने अफवाह फैला दी की फिर से गैस निकल गयी है तो वह तुरंत वापस आ गयी।

अगले दिन की खबरों को सुनकर पता चला कि 2 दिसंबर की रात को क्‍या हुआ था ? वो कौन सी जहरीली गैस थी ? समाचार और खबरों से पता चला उसकी भयावहता का पता चला। खबरों के बाद ही पता चला कि भोपाल में इस प्रकार की कोई फैक्‍ट्री है जिसमें गैस लीक होने से यह हादसा हुआ। उस फैक्‍ट्री का नाम था यूनियन कार्बाइड और उससे मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक हुई थी। जिसने हजारों की जान ले ली और लाखों को विकलांग बना दिया, जिसका असर आज भी लोगों पर दिखाई पड़ता है। इस प्रकार के हादसे के बारे में इससे पहले किसी को कोई जानकारी भी नहीं थी और न ही हमारे शहर इस प्रकार के हादसों के लिये तैयार थे। अस्‍पतालों में लोग भीड़ लग रही थी पर किसी को कुछ समझ नहीं। डॉक्‍टरों को नहीं मालूम था कि इसका इलाज कैसे करना है।

हम अपनी बुआ के यहॉं चार-पॉंच दिन रूकने के बाद अपने घर आये। जब थोड़ी परिस्थिति सामान्‍य हुई तो हमने सोचा कि हमारे घर के बिल्‍कुल सामने जो परिवार रहता है, उनके घर में एक सदस्‍य को तो आस्‍थमा हैं। उनका क्‍या हुआ होगा ? जब उनसे बात हुई तो उन्‍होंने कहा हमें रात में कुछ पता ही नहीं चला हम सब तो ठंड के कारण रजाई ओढ़कर सो रहे थे, हमें तो अगले दिन समाचारों और दूसरे लोगों से पता चला। हम लोगों से कहा कि आप पडोसी होकर ऐसी परिस्थिति में अकेले भाग गये, हमें बताया भी नही। शायद आज मुझे लगता है कि उनकी बात सही थी। जब जान बचाने जैसी परिस्थिति होती है तो हम सब कुछ भूलकर पहले अपनी जान बचाने के बारे में सोचते उस समय हमें पड़ौसी रिश्‍तेदार कुछ नहीं दिखाई देता, पहले अपनी जान, फिर परिवार की और बाद में किसी और की। परंतु मुझे लगता है कि जब ईश्‍वर को किसी को बचाना होता है तो वह बुरा होने पर भी उसने कुछ अच्‍छा होता है। यदि उस समय हम उनको उठते और इस प्रकार भागने को कहते तो हो सकता है उनके परिवार के सदस्‍य आस्‍थमा के कारण भाग नहीं पाते और क्‍या पता उनकी जान बच पाती या नहीं। शायद हमारा उनको कुछ न बता पाना ईश्‍वर की ही इच्‍छा होगी।

भोपाल गैस त्रासदी की गिनती सबसे खतरनाक औद्योगिक दुर्घटना में होती है। इसमें कितनो की जान गई और न जाने कितने अपंग हो, कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। उस समय अस्‍पताल में हमारे परिवार में सबकी जॉंचें हुई लेकिन बस एक साधारण जॉंच की गई जिसमें यह पता नहीं चला कि हम पर उस गैस लीक का क्‍या असर हुआ है, या फिर भविष्‍य में क्‍या असर होगा। उस जॉंच के बाद न हमारे परिवार में किसी ने इसकी जॉंच करायी कि गैस के कारण हमारे स्‍वास्‍थ्‍य पर क्‍या असर हुआ। पर खासकर मेरी माताजी को मैंने सदैव सरदर्द की शिकायत करते सुना। बस कभी भी वह यह कहती कि पहले मेरा सर दर्द नहीं करता था पर गैस लीक होने के बाद से ऐसा होने लगा। अधिकांश लोगों ने उस समय की गई जॉंच के कागज को केवल मुआवजा की राशि मिलने के कारण संभाल कर रखा परंतु यह कभी भी नहीं हुआ कि हमने अपनी ओर से यह जानने की कोशिश की वाकई कि हमारे स्‍वास्‍थ्‍य पर उस गैस का क्‍या असर हुआ बस सुनी-सुनाई बातों पर यकीन किया गया कि इससे ऑंखें खराब हो गयी इत्‍यादि । बचपन से मेरी ऑंखों की रोशनी बहुत कम लगती थी, पर उस समय हम एक साधारण मध्‍यमवर्गीय परिवार से थे, जिसमें मेरी मॉं गॉंव की साधारण महिला थीं और पिता भी एक साधारण नौकरी पेशा कभी भी हमने इस ओर ध्‍यान ही नहीं दिया। आज उस हादसे के लगभग 40 वर्षों बाद भी शायद हमें नहीं पता कि उस रात का हमारे स्‍वास्‍थ्‍य पर क्‍या असर हुआ है ? मेरी ऑंखों की रोशनी बहुत कम है, बिना चश्‍मे के मुझे दूर का देखना संभव ही नहीं है, और यह हालात मेरी काफी कम उम्र से यही हाल मेरे भाई का भी है। हमारे दॉंत भी बहुत कमजोर है, परंतु हमारे पास इसका कोई सटीक प्रमाण नहीं है कि यह हमारी समस्‍यायें साधारण रूप से हैं, या इसमें उस हादसे का असर भी शामिल है। क्‍योंकि हमारे पास ऐसा कुछ भी प्रमाण उपलब्‍ध नहीं है। आज भी मुझे लगता है इतने सालों बाद की मेरी इस कमजोर नजर के पीछे वह हादसा जिम्‍मेदार है या कोई और कारण हैं। क्‍योंकि मेरे पास इस बात को जानने का साधन है न ही मैंने इस प्रकार से कभी इसको जानने की कोशिश की । हमारे परिवार में तो बस लोग ईश्‍वर का धन्‍यवाद करते हैं कि उस हादसे में हमारी जान बच गई और हम जीवित हैं। आज भी भोपाल में 3 दिसम्‍बर का स्‍थानीय अवकाश रहता है और उस हादसे की बरसी मनाई जाती है तो परिवार में सभी लोगों को उस दिन की याद ताजा हो जाती है और हम सब सिहर उठते हैं।

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