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शाम का सूरज आज फिर उसी पुराने, झुके हुए पीपल के पत्तों के बीच से छनकर उसकी खिड़की पर गिर रहा था, जैसे रेशमी धागे उतर आए हों। यही वक्त था जब बाहर की भाग-दौड़ थम सी जाती, लेकिन उस बूढ़ी औरत के भीतर कोई बेचैनी जाग उठती थी। वो आँखें बंद करके बैठी रही जैसे ये फीकी पड़ती रोशनी किसी पुराने, सुनहरे दिन का आख़िरी छुअन हो। वो उसे अपने काँपते हाथों से थाम लेना चाहती थी, पर छुअन तो बस हवा में घुलकर खो जाता।

कभी-कभी उसे लगता, अब वो कोई इंसान नहीं, बल्कि सदियों पुराना वीरान खंडहर है। छतें गिर चुकी हैं, दीवारों पर इतिहास की चींटियाँ चलती हैं, लेकिन अब वहाँ न कोई आवाज़, न कोई पुकार बाकी है। उसकी हँसी, उसकी यादें, सब धूल बनकर उड़ चुकी हैं।

आज तबीयत भी ढीली थी। अब तो हर सुबह उसके लिए एक नई थकाऊ लड़ाई बन गई थी।

घुटनों में दर्द थाते ज़, चुभता हुआ, जैसे हर कदम पर याद दिला रहा हो कि अब जीना सिर्फ़ बोझ उठाना है।

आँखों के आगे धुंध छाई रहती एक सफेद परदा, जिसने दुनिया के सारे रंग फीके कर दिए थे, शायद इसलिए कि अब कुछ भी खोने का दर्द और न दिखे।
चलते वक्त साँसें फूल जातीं, फेफड़े जैसे सालों की चुप्पी बाहर निकालने की कोशिश करते। पैरों में सूजन थी, ऐसी जैसे बरसों की अनसुनी पीड़ा और ठहरा हुआ पानी जमा हो गया हो।

अब वो सिर्फ़ बूढ़ी नहीं थी, उम्र जैसे उसे भी बूढ़ा कर चुकी थी। सत्तर की दहलीज़ वह कब पार कर आई, उसे खुद भी याद नहीं ना कोई शोर, ना कोई जश्न। उसने कभी किसी से कुछ माँगा भी नहीं न हक, न प्यार, न पहचान। शायद यही वजह है कि अब उम्र भी उससे अपने सारे हिसाब चुकता कर रही थी, बिल्कुल वैसे ही, चुपचाप और बेरहमी से।

अब उसके कमरे के बाहर की आवाज़ें ही उसकी पूरी दुनिया बन गई थीं। बच्चों की हँसी दूर से आती, जैसे कोई भूली-बिसरी याद वो बचपन, जो वो खुद कभी जी ही नहीं पाई।

पंछियों की चहचहाहट कानों तक पहुँचती तो लगता, चलो, बाहर अब भी ज़िंदगी चल रही है। फिर कभी गाय-भैंसों की आवाज़ें, खेत से लौटते किसानों के पैरों की वो भारी-सी चप्प-चप्प, जो बताती थी दिन अब खत्म होने वाला है। बरसात में टिन की छत पर गिरती बूँदें बजतीं, जैसे कोई अदृश्य पायल छनक रही हो। हवा की सरसराहट, बिल्लियों की म्याऊँ, कुत्तों की भौंक, और पड़ोस से आती धुंधली बातें...

अब इन्हीं आवाज़ों के सहारे वो जी रही थी। दिन कब शुरू होता है, कब खत्म उसके लिए यह सब बस उजाले और अँधेरे के दो धुँधले, ठहरे हुए फ्रेम बन चुके थे। वो तो जैसे एक पुरानी नाव थी, जिसमें पतवार ही नहीं थी ना कोई दिशा, ना कोई मंज़िल।

उस दिन, दोपहर की भारी नींद के बाद जब वह जागी, तो लगा जैसे कमरे की पुरानी दीवारें भी अब थक चुकी हैं, झुक गई हैं। बड़ी मुश्किल से साड़ी सँभाली, फिर बदन को घसीटते हुए दरवाजे तक पहुँची। हिम्मत जैसे बीच में ही छूट गई थी, फिर किसी तरह यादों के सहारे खुद को जोड़ा, लेकिन शरीर का दर्द फिर तोड़ गया।

दरवाज़ा खोला तो सामने गाँव का एक दुबला-पतला बच्चा खड़ा था, पूरा मिट्टी में लथपथ। उसकी आवाज़ में मासूमियत थी, और थोड़ी-सी जल्दी भी।

“दादी! सुनो, प्रधान के घर पेंशन बन रही है। जल्दी चलो! सब लाइन में खड़े हैं... आप भी बनवा लो।”

‘पेंशन’ ये शब्द नया नहीं था, लेकिन हमेशा उसके लिए कहीं दूर, किसी और की दुनिया की चीज़ रहा। सरकारी कागज़, दस्तख़त, हक इनका उसकी ज़िंदगी में कभी कोई मतलब नहीं रहा।

पहले तो उसने मना करने का सोचा। “अब क्या ज़रूरत है, बेटा,” कहने ही वाली थी।

लेकिन उस बच्चे की आँखों में कुछ था एक सीधा-सा यक़ीन, जैसे सच में वो उसे बुला रहा हो।

धीरे से सर हिलाया, हाँ कर दी।

“ठीक है बेटा... देखती हूँ,” उसके मुँह से निकला।

उसे खुद समझ नहीं आया कि उसने हाँ क्यों कहा। शायद इसलिए, क्योंकि इतने बरसों में पहली बार किसी ने उसके लिए कुछ अच्छा सोचकर बुलाया था। शायद इसलिए कि उसे लगा ये छोटा सा बुलावा उसी के लिए है। या बस इसलिए कि कोई आया, किसी ने उससे बात की।

प्रधान के घर पहुँचकर वो ठिठक गई। वहाँ लोगों का मेला सा लगा था किसी के हाथ में लाठी, बुज़ुर्ग काँपते हुए, झुकी कमर वाली औरतें, किसी का सिर खुद के ही हाथों से ढका हुआ।

सब एक-दूसरे को थामे, जैसे टूटे हुए खिलौने। थकान, दुख, और बेबसी, सब एक साथ।

वो भीड़ में धीरे-धीरे सरकती हुई, एक कोने में जा खड़ी हुई।

और उसी पल उसे पहली बार लगा वो अकेली नहीं है। यहाँ हर चेहरा अपने ही ज़ख्मों का बोझ लिए हुए है। सबके पास अपना दर्द है, अपनी चुप्पी है।

अजीब सा सुकून उतरा उसके मन में। कहीं भीतर से एक धीमी सी आवाज़ आई 

“मैं ही अकेली नहीं हूँ… यहाँ और भी हैं, मेरे जैसे।”

भीड़ में लोग पुकार रहे थे, बाबुओं की ऊँची, थकी-हारी आवाज़ें, कागज़ों की सरसराहट सब मिलकर एक ऐसा शोर बन गया था, जिसमें हर कोई डूबा जा रहा था।

इसी बीच, एक बाबू हड़बड़ी में उसके पास आया।

“दादी, नाम बोलो! जल्दी करो!”

बाबू को लगता था, जवाब फ़ौरन मिलेगा। लेकिन दादी चुप रही।

वो चौंककर बाबू की तरफ़ देखने लगी जैसे किसी ने गहरी नींद से झकझोर दिया हो।

“नाम?” उसके होंठ काँप उठे।

दिमाग ने कोशिश की, अंदर झाँका, जैसे कोई पुरानी अलमारी खोलना और वहाँ बस खालीपन था। दीमक, धूल, और सन्नाटा।

वो अपने अंदर खोजती रही… ऊपर, नीचे, दाएँ, बाएँ हर जगह वही खालीपन।

नाम याद ही नहीं आया।

वो कोशिश करती रही, बहुत ज़ोर लगाकर। लेकिन शब्द जैसे होंठ तक पहुँच ही नहीं पा रहे थे।

क्या कभी किसी ने उसे नाम से पुकारा था? था भी कोई नाम?

आख़िरी बार कब सुना था या वाकई कभी सुना भी था?

उसका दिल धड़क उठा।

बाबू की आवाज़ फिर गूँजी, अबकी बार थोड़ी झुंझलाहट के साथ 

“दादी, नाम बताओ! जल्दी करो! समय नहीं है!”

पर नाम… वो तो कहीं था ही नहीं।

नाम खोजते-खोजते उसका मन अतीत की धुंधली गलियों में भटकने लगा।

एक लड़की थी डरी-सहमी, चुपचाप।

वो चाहती थी, कभी पिता की गोद में बैठ जाए मगर पिता का सख्त चेहरा हमेशा सामने आ जाता।

दादी से कहानी सुनना चाहती थी, मगर वे टाल देतीं 

“हट, पराये घर की है।”

आँगन में दौड़ना, खिलखिलाना चाहती थी, लेकिन कमरे से बाहर निकलते ही दादी की भौंहें चढ़ जातीं, पिता गुस्से से लाल हो जाते, माँ डर जाती।

धीरे-धीरे उसे समझ आया यहाँ उसका कोई नहीं।

वो बोझ है, पराई है, अनचाही है।

लोग उसे “पराये घर की”, “बोझ”, “दूसरी की” कहते मगर कोई उसके नाम से नहीं बुलाता था।

नाम…? शायद कभी रखा ही नहीं।

याद आता है, माँ ने एक दिन हिम्मत करके कहा था 

“बिटया को स्कूल भेज दें, जी।”

बस, इतना सुनते ही घर का माहौल बदल गया।

पिता चिल्लाए थे 

“पढ़-लिखकर कलेक्टर बनेगी क्या? घर में खाने को नहीं है, और तुम्हें लड़की को पढ़ाने की सूझी है!”

वो बस सुनती रही।

उसकी मासूम आँखें जवाब खोजती रहीं।

स्कूल का रास्ता उसी दिन हमेशा के लिए बंद हो गया।

उसकी दुनिया सिमट गई रसोई, आँगन, और जानवरों के इर्द-गिर्द।

नाम? वहाँ किसे परवाह थी कि बच्ची का नाम क्या है।

जब खेलने की उम्र थी, उसी वक्त किसी अनजाने, अधेड़ आदमी के साथ उसका ब्याह कर दिया गया या यूँ कहो, बेच दिया गया।

अब वो किसी की बेटी नहीं रही, अब वो “फलाने की बहू” बन गई।

उसका “नाम” फिर किसी ने नहीं पुकारा।

कभी बहू, कभी माई, कभी अम्मा या बस ए! ओ! यही सब सुनाई देता रहा।

सास की वो चुभती बातें अब भी दिमाग में गूँजती हैं 

“दो लड़की पैदा कर दीं! एक लड़का भी नहीं हुआ।

अब वंश कैसे चलेगा!”

वो कभी समझ नहीं पाई वंश बेटा ही क्यों बढ़ाए?

बेटियाँ क्यों नहीं?

ये फ़र्क उसके लिए हमेशा अजीब ही रहा।

उसने अपनी बेटियों को सब कुछ दिया, जो वो खुद कभी नहीं पा सकी थी खेलने का वक्त, थोड़ी आज़ादी, थोड़ा प्यार, थोड़ी पढ़ाई।

उसका बस यही सपना था उसकी बेटियाँ “कोई” बनें।

कोई भी बस उसकी तरह गमनाम न रहें।

इस कोशिश में, वो खुद कहीं खो गई।

अपना नाम, अपनी पहचान सब धुंधला पड़ गया।

रोजमर्रा की ज़िम्मेदारियाँ, परिवार, ताने, बीमारियाँ, और लड़ाई इन सब के बीच उसका नाम जैसे किसी कोने में छुप गया।

शायद, वो नाम कभी था ही नहीं।

बाबू ने तिरछी नज़र से देखा जैसे हर बार देखता है।

“दादी! लाइन आगे बढ़ाओ। और भी लोग खड़े हैं!”

वो चुपचाप भीड़ से हट गई।

एक कोने में, सबकी नज़रों से दूर।

धीरे-धीरे, थके हुए कदमों से घर लौटने लगी।

भीतर बस खालीपन था कोई भावना नहीं, जैसे सब सूख गया हो।

उसे लगा, उसका नाम कहीं पुरानी यादों की धूल में दब गया है जैसे कोई कपड़ा बरसों न पहना हो, और दराज में गल गया हो।

रात को उसने अपना जंग लगा बक्सा खोला।

उसमें टूटी चूड़ियाँ थीं, माँ की पुरानी चुन्नी फीकी पड़ गई, मगर अब भी महकती हुई।

कुछ पीले कागज, छोटे-छोटे सामान, जो अब किसी काम के नहीं।

नाम?

कहीं नहीं था।

न किसी कागज पर, न किसी कोने में।

न लिखा, न बोला, न छिपा।

भीतर सन्नाटा भर गया।

आँसू भी नहीं बचे थे शायद उम्र और दर्द ने मिलकर आँखों को सूखा बना दिया था।

अगली सुबह, चुपचाप बैठी रही।

सूरज निकल चुका था।

धीरे से खुद से बोली...  “शायद मेरा नाम भी मुझसे रूठ गया है।” फिर हल्की-सी मुस्कान आई।

पहली बार लगा, नाम तो इंसान खुद रख सकता है, अपनी पहचान खुद बना सकता है।

लेकिन जैसे ही उठने की कोशिश करती, घुटनों का दर्द, कमर की जकड़न, सब इरादों को गिरा देते।

अब पेंशन की लाइन, कागज, बाबू, सब बेमतलब लगे।

अब बस कुछ यादें बची थीं जो धीरे-धीरे हवा में घुल रही थीं।

धीरे से बोली...

“नाम का क्या करूँ अब? ज़िंदगी आधी बीत गई... बाकी भी यादों में खो जाएगी।”

आँखें बंद कर लीं जैसे कहीं भीतर अब भी किसी खोए हुए नाम को पुकार रही हो।

एक नाम, जो कभी किसी ने नहीं लिया।

एक पहचान, जो कभी बनी ही नहीं।

अब बस इंतजार था उस पल का, जब चुपचाप आई उम्र, उसे भी चुपचाप अपने साथ ले जाएगी।

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