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संसार में अनेक ऐसे देश हैं, जहाँ एक भी महाकाव्य की रचना नहीं हुई है; परन्तु भारत ऐसा देश है, जहाँ एक नहीं, बल्कि दो महाकाव्य पढ़ने को मिलते हैं। जिन दो संस्कृत महाकाव्यों की मैं बात कर रहा हूँ, वे हैं—महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ तथा महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’। इन दोनों महाकाव्यों में नाना प्रकार के पात्र मिलते हैं, जो हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं; परन्तु महाभारत एक ऐसा महाकाव्य है, जिसमें हमें दो प्रकार के नायकों का अध्ययन प्राप्त होता है। जहाँ अधिकांश महाकाव्यों में परम्परागत नायक मिलते हैं, जो पूर्ण रूप से धर्म, नैतिकता, शुद्धता तथा उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं महाभारत में पाठकों को दो प्रकार के नायकों का वर्णन मिलता है—परम्परागत नायक तथा गैर-परम्परागत अथवा दुखान्त नायक। परम्परागत नायकों में कृष्ण, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा अभिमन्यु के नाम प्रमुख रूप से उभरकर आते हैं। इनमें कृष्ण इस महाकाव्य के लेखक के मुखपत्र, उत्तप्रेरक (Catalyst) तथा दैवीय हस्तक्षेपकर्ता की भूमिका में दिखाई देते हैं। वे महाभारत में स्वयं हथियार तो नहीं उठाते, परन्तु उत्तप्रेरक के रूप में उपस्थित होकर घटनाओं की दिशा को प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर, यदि इस महाकाव्य के गैर-परम्परागत अथवा दुखान्त नायक की चर्चा की जाए, तो वह निःसंदेह कोई और नहीं, बल्कि कर्ण हैं। कर्ण का चरित्र इस ढंग से गढ़ा गया है कि वह अरस्तु द्वारा Poetics में दुखान्त नायक के लिए बताई गई सभी शर्तों को पूर्णतः पूरा करता है।

कुलीन जन्म (Noble Lineage):

जैसा कि Poetics में अरस्तु बताते हैं कि दुखान्त नायक होने के लिए नायक का सम्बन्ध किसी कुलीन परिवार से होना चाहिए। इसलिए हमारा नायक भी उच्च कुल से सम्बन्ध रखता है। वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है, और उसके पिता स्वयं सूर्यदेव हैं। इस प्रकार न केवल कर्ण उच्च कुल का है, बल्कि उसकी उत्पत्ति दैवीय भी है, जिससे उस पर जनसामान्य का ध्यान स्वाभाविक रूप से अधिक जाता है। दुर्भाग्यवश कुंती के विवाह से पूर्व ही कर्ण का जन्म हो जाता है; अतः लोक-लज्जा के भय से कुंवारी कुंती उसे नदी में प्रवाहित कर देती हैं। एक संतानहीन सूत (सारथी) परिवार उसे पा जाता है और उसका पालन-पोषण करता है। अपनी विलक्षणता के कारण कर्ण बचपन से ही अत्यंत महत्वाकांक्षी होता है। वह सहज रूप से अपने पालक-पिता के रथ चलाने के व्यवसाय में अरुचि दिखाता है और किसी भी प्रकार एक महान धनुर्धर बनने के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है। निम्न कुल में लालन-पालन होने के कारण आगे उसे जीवनपर्यंत अपमान सहना पड़ता है, और उच्च समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उच्च वर्ग निम्न वर्ग से सम्बंधित एक विलक्षण और प्रतिभाशाली इंसान को जल्दी स्वीकार नहीं करता है। जब हस्तिनापुर के कुलगुरु कृपाचार्य और आचार्य द्रोण अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित कर रहे होते हैं, तभी कर्ण हस्तक्षेप करते हुए इसका विरोध करता है और यह प्रस्ताव रखता है कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन है—इसका निर्णय उसके और अर्जुन के बीच एक प्रतियोगिता कराकर किया जाये। सभी इस प्रतियोगिता के लिए सहमत हो जाते हैं; परन्तु जब कर्ण के कुलीन न होने की बात उजागर होती है, तो कुलगुरु इस प्रतियोगिता का आयोजन कराने से मना कर देते हैं। कर्ण के आत्मविश्वास और साहस को देखकर राजकुमार दुर्योधन उसकी प्रशंसा करता है, और अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उसे अंगदेश का राजा बना देता है। उसी समय से अर्जुन और कर्ण को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी समझा जाने लगता है।

स्वभाव:

जहाँ परम्परागत नायक पूर्ण रूप से धार्मिक होता है तथा उच्च नैतिकता और अन्य सद्गुणों का परिचय देता है, वहीं अरस्तु के अनुसार दुखान्त नायक वह हो सकता है, जो न तो पूर्ण रूप से सद्गुणी होता है, न ही पूर्ण रूप से अधार्मिक। उसके भीतर कुछ न कुछ त्रुटियाँ अवश्य हों। यह विवरण कर्ण के चरित्र पर पूरी तरह सटीक बैठता है। कर्ण के भीतर अनेक सद्गुण हैं, परन्तु उसके साथ ही साथ कुछ अवगुण भी विद्यमान हैं। वह ईर्ष्यालु स्वभाव का है; बचपन से ही अर्जुन से ईर्ष्या रखता है और उससे बड़ा धनुर्धर बनने की अभिलाषा रखता है। निम्न कुल में जन्म लेने के कारण जब आचार्य द्रोण उसे धनुर्विद्या सिखाने से इंकार कर देते हैं, तब वह महेंद्रगिरि पर्वत पर जाकर परशुराम जी से मिलता है और स्वयं को ब्राह्मण बताकर उनसे धनुर्विद्या सीखने लगता है।  सी प्रकार, द्रौपदी-वस्त्रहरण के दौरान वह द्रौपदी को “वैश्या” कह देता है, और यह दुर्गुण उसकी नीचता को प्रकट करता है। फिर भी उसके भीतर अनेक श्रेष्ठ गुण भी हैं—वह प्रतिदिन लोगों को स्वर्णदान करता है, सूर्यदेव का परम भक्त है, और अपने समय के सभी शिष्यों में गुरुसेवा में सर्वोच्च स्थान रखता है। उसकी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर वन पर्व में परशुराम जी खुद उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं, “तुम जैसा कोई भी मेरा दूसरा शिष्य नहीं है, जिसने इतने समर्पण भाव से मेरी सेवा की हो।” उसके दान की पराकाष्ठा तब प्रकट होती है, जब वह इंद्र को अपने कवच और कुंडल दान में दे देता है; जिनके रहते उसे शिवजी के त्रिशूल, ब्रह्मा जी के ब्रह्मास्त्र तथा विष्णु के सुदर्शन चक्र से भी तनिक हानि नहीं पहुँच सकती थी।

निर्णय-भ्रांति (Hamartia):

कर्ण की सबसे बड़ी निर्णय-भ्रांति उसका अत्यधिक दानशील होना है। उसके पिता सूर्यदेव स्वयं उसे इस बात से सावधान करते हैं कि वह देवराज इंद्र को अपने कवच और कुंडल दान न करे; फिर भी कर्ण अपने पिता की सलाह की अवहेलना करते हुए इंद्र को वे दोनों वस्तुएँ दान में दे देता है। वह अपने मन में यह भ्रम पाल लेता है कि इन कवच-कुंडलों के बिना भी वह अर्जुन को परास्त कर देगा। परंतु ऐसा दृढ़ विश्वास रखने से पूर्व वह तनिक भी नहीं सोचता कि उसे अपने गुरु परशुराम से श्राप भी मिला है—वह श्राप, जिसके अनुसार जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध में वह अपने गुरु से सीखी हुई धनुर्विद्या को विस्मृत कर देगा। यही श्राप उसके विनाश का कारण बनता है। जब उसे कौरवों का प्रधान सेनापति नियुक्त किया जाता है और उसका द्वंद्व अर्जुन से हो रहा होता है, तब युद्ध की निर्णायक घड़ी में वह अपने गुरु के श्रापवश दिव्यास्त्रों के प्रयोग की विद्या भूल जाता है; और इसी अवसर का लाभ उठाकर अर्जुन उसे पराजित कर उसका वध कर देता है। इस प्रकार, उसकी निर्णय-भ्रांति—अत्यधिक दानशीलता और अति-आत्मविश्वास—अंततः उसके पतन का प्रमुख कारण सिद्ध होते हैं।

रहस्योद्घाटन (Anagnorisis):

महाभारत के उद्द्योग पर्व में कर्ण के जन्म का रहस्योद्घाटन कृष्ण के द्वारा किया जाता है। कुरुक्षेत्र युद्ध के आरम्भ से पहले, जब कृष्ण शान्तिदूत के रूप में हस्तिनापुर जाते हैं और उनका शांति का प्रयास विफल हो जाता है, तो लौटते समय छुपकर वे कर्ण से भी मुलाक़ात करते हैं और उसकी वास्तविक माता के विषय में चर्चा शुरू कर देते हैं। कृष्ण कहते हैं कि राधा तथा अधिरथ आपके वास्तविक माता-पिता नहीं हैं। कर्ण के पूछने पर कृष्ण उसे बताते हैं कि कुंती उसकी वास्तविक माता हैं, जिन्होंने विवाह से पूर्व सूर्यदेव के वरदान स्वरूप उसे जन्म दिया था और स्वयं को लोक-लज्जा से बचाने के लिए उसे नदी में प्रवाहित कर दिया था। इस प्रकार, पांचों पांडव उसके सगे भाई हुए। कृष्ण कर्ण से आग्रह करते हैं कि वह दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों की ओर से युद्ध करे; लेकिन कर्ण ऐसा करने से मना कर देता है, क्योंकि रंगभूमि के दौरान जब भीम तथा अन्य लोगों ने उसे सूतपुत्र कहकर अपमानित किया था, तब यह दुर्योधन ही था, जिसने उसे अंगदेश का राजा बनाकर उसका मान बढ़ाया था। चूंकि कर्ण पांडवों का ज्येष्ठ है, इसलिए कृष्ण उसे राजा बनाने का लालच भी देते हैं; लेकिन कर्ण स्वयं को दुर्योधन का ऋणी बताकर इस बात को भी ख़ारिज कर देता है। ठीक इस मुलाक़ात के बाद कुंती भी उससे मिलने आती हैं और उससे अपने भाइयों की तरफ आने का आग्रह करती हैं, ताकि सगे भाइयों में कत्लेआम न हो। इस पर कर्ण उन्हें आश्वासन देता है कि वह अर्जुन को छोड़कर अपने किसी अन्य भाई का वध नहीं करेगा। इस प्रकार, युद्ध में यदि वह वीरगति को प्राप्त हुआ, तो अर्जुन जीवित बच जायेगा; और अगर अर्जुन को वीरगति प्राप्त हुई, तो वह जीवित रहेगा, और इस तरह कुंती के पांच पुत्रों की गिनती नहीं बिगड़ेगी। अब सब कुछ जानकर कर्ण अपने भाग्य से समझौता कर लेता है—वह अपने मित्र दुर्योधन के प्रति निष्ठा निभाता है और अपने अंतिम समय तक उसके पक्ष में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त होता है।

नीति-च्युत (Hubris):

कर्ण जानबूझकर नैतिक रूप से स्वयं को अंधा बना लेता है और अधर्मी दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता, क्योंकि दुर्योधन ही पहला व्यक्ति था, जिसने कर्ण को उच्च समाज में स्वीकृति प्रदान की थी। इसमें दुर्योधन का स्वयं का स्वार्थ भी छिपा था, क्योंकि वह पांडु पुत्रों से अत्यधिक नफरत करता था और उसके पास अर्जुन की कोई काट नहीं थी। इसलिए जब कर्ण के रूप में उसे अर्जुन की काट दिखाई पड़ी, तो उसने इस अवसर का पूरा लाभ उठाया और कर्ण को अंगदेश का राजा बनाकर उसे अपने एहसान के बंधन में सदा के लिए जकड़ लिया। कर्ण के नीति-च्युत होने में अन्य कारणों में एक यह भी कारण है कि वह अर्जुन के साथ एक प्रतियोगिता चाहता है—चाहे वह वास्तविक युद्ध के रूप में ही क्यों न हो—ताकि यह सिद्ध हो सके कि अर्जुन और उसमें सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन है। अगला कारण कर्ण की अपनी पहचान बनाने की अत्यधिक लालसा है, जिसे सबसे पहले राजकुमार दुर्योधन ने उसे प्रदान की, और बाद में अन्य लोगों ने भी उसे स्वीकार किया। इस प्रकार, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म, नैतिकता-अनैतिकता तथा गुण-अवगुण की परिभाषा भली-भाँति जानते हुए भी, कर्ण इन सबकी बलि चढ़ा देता है।

भाग्य अथवा परिस्थिति परिवर्तन (Peripeteia):

जैसे कृष्ण कर्ण को उसकी वास्तविक माता का नाम बताते हैं, वैसे ही कर्ण के लिए प्रत्येक परिस्थिति बदल जाती है। कर्ण, जो पांडवों के प्रति घृणा भरकर जी रहा था और युद्ध में उनका वध करने का प्रण लिये था, वही अब उसके सगे भाइयों के रूप में प्रकट होते हैं। अर्जुन, जिसे कर्ण धनुर्विद्या में सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी और कट्टर दुश्मन मानकर चल रहा था, वह अब उसका छोटा भाई निकला। कर्ण, जो जीवन भर अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष करता रहा, वही अचानक भारत के सबसे कुलीन परिवार का ज्येष्ठ पुत्र निकला। जिसे कर्ण अपना परम मित्र मानता था, वही अचानक उसका और उसके खानदान का सबसे बड़ा शत्रु बन गया। घटनाओं के इतने बड़े उलटफेर से कर्ण की मानसिक स्थिति पूरी तरह से डाँवाडोल हो जाती है, और वह अपना संतुलन खो बैठता है। कृष्ण कर्ण से पांडवों की ओर से युद्ध करने का आग्रह करते हैं और पांडवों का ज्येष्ठ होने के कारण उसे भारतवर्ष का सम्राट बनाने का लालच भी देते हैं। इसके बावजूद कर्ण अपने मित्र दुर्योधन का साथ त्यागने से इंकार करता है और उसी की ओर से अपने सगे भाइयों के विरुद्ध युद्ध लड़ने के अपने निश्चय को दृढ़ बनाता है। परन्तु कृष्ण ने उसके जन्म का रहस्योद्घाटन करके उसके निश्चय की प्रबलता को पूरी तरह से क्षीण कर दिया, जो उनका वास्तविक उद्देश्य था।

भावशुद्धि (Catharsis):

अरस्तु ने अपनी ‘Poetics’ में प्रतिपादित किया कि किसी भी श्रेष्ठ दुखान्त नाटक अथवा मेरे विचार में दुखान्त कहानी का परम उद्देश्य कैथार्सिस अर्थात् “भावनाओं की शुद्धि” है—वह आत्मिक प्रक्रिया जिसके माध्यम से दर्शक अथवा पाठक करुणा और भय के गहन अनुभव से अपने अंतर्मन में एक परिशुद्धि और मानसिक शांति प्राप्त करता है। कर्ण के चरित्र में यही भावशुद्धि अपने चरम पर दृष्टिगोचर होती है। उसके जीवन का प्रत्येक प्रसंग—उसका जन्म, तिरस्कार, संघर्ष, दान और अंतिम पतन—पाठक के हृदय में गहरी करुणा जगाता है। एक देवपुत्र होते हुए भी सामाजिक उपेक्षा का शिकार, एक योद्धा जो अपनी असाधारण प्रतिभा के बावजूद पहचान के लिए संघर्षरत रहा, एक दानी जो स्वयं के विनाश तक का दान कर बैठा—ऐसे कर्ण के प्रति करुणा अनायास ही जन्म लेती है। किंतु इसी करुणा के साथ एक सूक्ष्म भय भी उत्पन्न होता है—यह भय कि मनुष्य चाहे कितना भी शक्तिशाली, धर्मनिष्ठ या उदार क्यों न हो, यदि वह अपने निर्णयों में भ्रांति कर बैठे, तो उसका पतन अवश्यंभावी है। यही करुणा और भय का समन्वय कर्ण की त्रासदी को एक ऐसी भावनात्मक ऊँचाई प्रदान करता है, जहाँ पाठक केवल उसकी कथा नहीं पढ़ता, बल्कि स्वयं अपने भीतर के दुर्बल मनुष्य को देखता है; और यही अनुभव कैथार्सिस का प्रारंभिक स्पंदन है। कर्ण का जीवन दान, धर्म और निष्ठा की चरम सीमाओं को छूता हुआ वह जीवन है, जिसमें सद्गुण और दुर्बलता एक साथ निवास करते हैं। उसकी दानशीलता, कर्तव्यबोध और निष्ठा—जो उसके गौरव के प्रतीक थे—अंततः उसी के पतन के कारण बनते हैं। जब वह कवच-कुंडल दान करता है, जब वह गुरु परशुराम के श्राप को विस्मृत कर रणभूमि में उतरता है, और जब कृष्ण के आग्रह पर भी दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता, तब पाठक का अंतर्मन करुणा से भर उठता है। परंतु यह करुणा केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन का क्षण है—एक चेतावनी कि अंध निष्ठा, नीति-भ्रांति और मिथ्या आदर्श कितने विनाशकारी हो सकते हैं। कर्ण की मृत्यु केवल एक वीर का अंत नहीं, बल्कि एक युग की नैतिक चेतना का शुद्धिकरण है। रणभूमि में उसका पराजित होकर भी निष्ठा में विजयी हो जाना पाठक के भीतर करुणा और भय दोनों को जागृत करता है—करुणा उस त्यागी के लिए जिसने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में धर्म निभाया, और भय इस सत्य के लिए कि धर्म और नीति की सीमाओं का उल्लंघन ही पतन का बीज बनता है। इस प्रकार, कर्ण का अंत केवल उसके जीवन का निष्कर्ष नहीं, बल्कि पाठक के अंतर्मन का कैथार्सिस है—जहाँ वह अपने भीतर के अहं, भ्रम और दुर्बलता का शमन अनुभव करता है। इसी भावशुद्धि में महाभारत की त्रासदी अपनी सर्वोच्च कलात्मक पूर्णता प्राप्त करती है और कर्ण वह नायक बन जाता है, जो मृत्यु के उपरांत भी जीवित रहता है—क्योंकि उसकी त्रासदी में मानव आत्मा अपनी ही असफलताओं, आदर्शों और प्रायश्चित्त की गूंज सुनती है।

कर्ण का संशयपूर्ण रणकौशल:

महाभारत में कुछ स्थानों पर दिखाया गया है कि कर्ण कुछ व्यक्तियों से पराजित भी हुआ है। अंगदेश का राजा बनने के उपरांत, जब कर्ण अपने युद्ध कौशल की प्रतिष्ठा स्थापित कर रहा था, तब उसने पांचाल के राजा द्रुपद पर आक्रमण किया, परंतु उल्टा उसे मुँह की खानी पड़ी। विराट युद्ध में वह अर्जुन से हार गया था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में, आंशिक रूप से भीम ने उसे पराजित किया था। विराट पर्व में, दुर्योधन, कर्ण तथा अन्य लोगों को जब चित्रसेन नामक गंधर्व ने बंदी बना लिया था, तब इस मुठभेड़ में कर्ण पराजित तथा अपमानित हुआ; और इस तरह, दुर्योधन को बचाने के लिए अर्जुन व अन्य पांडु पुत्रों को आगे आना पड़ा। कुरुक्षेत्र युद्ध के तेरहवें दिन, जब अभिमन्यु और कर्ण का आमना-सामना हुआ, तो अभिमन्यु ने इसमें बाज़ी मार ली। कुरुक्षेत्र के चौदहवे दिन सात्यिकी ने कर्ण को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि कर्ण, अर्जुन, भीष्म तथा द्रोण जितना महान योद्धा नहीं था, जिसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कर्ण अपना सम्पूर्ण प्रशिक्षण पूरा कर पाता, उससे पूर्व ही परशुराम को कर्ण के ब्राह्मण न होने की बात पता चल जाती है और वे उसे आश्रम से बाहर निकाल देते हैं।

प्रतिद्वंदिता:

वेदव्यास द्वारा जानबूझकर कर्ण और अर्जुन के बीच धनुर्विद्या से संबंधित एक प्रतिद्वंदिता उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है, जो लंबे समय तक चर्चा का विषय रहा है कि कर्ण और अर्जुन में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन है। कर्ण के संशयपूर्ण रणकौशल के बावजूद, उसकी वीरता और युद्धकौशल को पूर्णतः दरकिनार नहीं किया जा सकता है। निम्नलिखित विवरण उसके पक्ष में हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि वह अर्जुन के समान धनुर्धारी था और बाहुबल में भीम के समान था। कर्ण ने अपने राज्याभिषेक के दौरान मल्लयुद्ध में जरासंध को हराया, जो उस समय अपने बाहुबल तथा मल्लयुद्ध कौशल के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध था। कर्ण ने अर्जुन पर नागास्त्र चलाया, और अर्जुन के प्राण बचाने के लिए व्यास को, कृष्ण के माध्यम से, दैवीय हस्तक्षेप कराना पड़ा, जब कृष्ण ने अर्जुन के रथ को कुछ इंच भूमि में धंसा दिया। इसी प्रकार, कर्ण की वासवी शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर करवा लिया गया, जबकि सभी जानते थे कि घटोत्कच का वध करने के लिए कर्ण, द्रोण और अश्वथामा के तुनीर में ब्रह्मास्त्र जैसा महान अस्त्र मौजूद था, जिससे घटोत्कच का वध बहुत सरलता से हो सकता था। इस प्रकार, यह तय होता है कि अगर कृष्ण के संरक्षण में अर्जुन युद्ध नहीं लड़ रहा होता, तो कर्ण के हाथों उसका वध संभव था। कर्ण और अर्जुन में से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी कौन है—इसका उत्तर न देकर, केवल इसे चर्चा का विषय बनाये रखने के लिए, वेदव्यास ने कर्ण के अंत की योजना बनाने हेतु उसे अपने गुरु से बहुत पहले ही श्राप दिलवाया, जिसे विश्लेषक एक युक्ति के रूप में देखते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन कर्ण से श्रेष्ठ योद्धा नहीं है, क्योंकि वह कर्ण का वध तभी कर पाता है, जब कर्ण अपने गुरु के श्राप के कारण उनसे सीखा हुआ ज्ञान भूल जाता है। उपर्युक्त विवरण से यह सुनिश्चित होता है कि अर्जुन तथा कर्ण युद्ध कौशल में समान कोटि के योद्धा थे।

वृद्धि और पुनर्रचना का पात्र:

वेदव्यास ने संभवतः कभी यह नहीं सोचा होगा कि जिस चरित्र को वे महाभारत के विशाल आख्यान में एक निश्चित परिधि के भीतर गढ़ रहे हैं, वही चरित्र आने वाले शताब्दियों में निरंतर विकसित होकर लोककल्पना और साहित्यिक परंपराओं का सबसे प्रखर “वृद्धि का पात्र” बन जाएगा। मूल ग्रंथ में कर्ण का चित्रण यथार्थवादी और सीमित है; परंतु उत्तरवर्ती काव्यों, लोकपरंपराओं, नाट्यकृतियों और आधुनिक माध्यमों ने कर्ण के व्यक्तित्व को अनेक गुना विस्तारित कर दिया है। आज अनेक टेलीविजन धारावाहिक, नाटक, उपन्यास और पुनर्कथन कर्ण को केंद्र में रखकर निर्मित किए जाते हैं, जिनमें उसके चरित्र को और भी व्यापक, करुणामय, वीर और दार्शनिक स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए, रामानंद सागर निर्मित धारावाहिक “श्रीकृष्ण” में कर्ण और अर्जुन के संघर्ष को महाकाव्य से कहीं अधिक नाटकीय विस्तार दिया गया है। इस रूपांतरण में दिखाया गया है कि कर्ण अर्जुन पर न केवल घातक नागास्त्र चलाता है—जिससे श्रीकृष्ण अपने कौशल और दिव्य चातुर्य से उसकी रक्षा करते हैं—बल्कि वह अर्जुन पर वैष्णवास्त्र का भी प्रयोग करता है। कथा के अनुसार, अर्जुन के तरकश में ऐसा कोई अस्त्र उपलब्ध नहीं होता, जो वैष्णवास्त्र का प्रतिकार कर सके; ऐसे में श्रीकृष्ण स्वयं उस अस्त्र के सम्मुख आ खड़े होते हैं और अपनी दिव्य उपस्थिति से उसे निष्प्रभावी कर देते हैं। यह दृश्य कर्ण के विपक्षी कौशल के साथ-साथ उसकी शक्ति के प्रति बाद की कल्पनाओं में विकसित प्रशंसा को दर्शाता है। जहाँ अर्जुन का पात्र कृष्ण के प्रभाव से आच्छादित है, वहीं कर्ण के पात्र पर किसी अन्य पात्र की छाया नहीं पड़ती है। इसी प्रकार, कई आधुनिक और लोक-प्रचलित पुनर्कथनों में एक और लोकप्रिय प्रसंग जोड़ा गया है—कर्ण की अतुलनीय दानशीलता की परीक्षा। इन कथाओं में वर्णित है कि युद्धभूमि में घायल पड़े कर्ण के सामने श्रीकृष्ण और अर्जुन भिक्षुक का वेश धरकर आते हैं। वे कर्ण से स्वर्ण की याचना करते हैं। कर्ण, जो अपने अदम्य दानवीर स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है, तत्काल अपना सोने का दांत उखाड़कर उन्हें अर्पित कर देता है। किंतु कृष्ण रक्त से सने उस दांत को ग्रहण करने से अस्वीकार कर देते हैं। तब कर्ण अपने विजय धनुष की सहायता से गंगा को आह्वान करता है, और प्रकट गंगा के जल में उस दांत को धोकर निर्मल स्वर्ण रूप में पुनः कृष्ण को सौंपता है। इसके पश्चात कृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक दिव्य रूप में प्रकट होते हैं, और कृष्ण कर्ण को उसकी अद्भुत त्यागशीलता के प्रताप से एक वरदान माँगने का अधिकार प्रदान करते हैं। इन सभी उत्तरवर्ती, लोक-आधारित और टीवी/नाट्य रूपांतरणों में कर्ण का चरित्र एक महापुरुष, महादानी, महावीर और भाग्य-पीड़ित नायक के रूप में उभरता है—जो दर्शाता है कि कर्ण केवल महाभारत का पात्र नहीं, बल्कि एक निरंतर बढ़ते हुए सांस्कृतिक मिथक का केंद्र है।

अर्जुन महाभारत का परम्परागत नायक:

महाभारत का महानायक अर्जुन, पारंपरिक अर्थों में एक आदर्श वीर और योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। वह पांडवों में मध्यम भ्राता, अपार धनुर्विद्या का स्वामी, अपराजेय योद्धा और गुरु द्रोणाचार्य का सर्वश्रेष्ठ शिष्य है। अर्जुन का चरित्र शौर्य, निष्ठा, धर्मपरायणता और आंतरिक द्वंद्व का जीवंत उदाहरण है। वह न केवल युद्ध कौशल में निपुण है, बल्कि उसमें आत्मसंशय और नैतिक संघर्ष की मानवीय झलक भी दिखाई देती है, जो उसे एक यथार्थवादी और संवेदनशील नायक बनाती है। किंतु, महाभारत के विशाल कथानक में अर्जुन की वीरता और संघर्ष कई बार कृष्ण की दिव्य उपस्थिति से आच्छादित हो जाती है। कृष्ण, जो उसके सारथी, मार्गदर्शक और सखा हैं, न केवल युद्ध की रणनीति तय करते हैं, बल्कि अर्जुन के निर्णयों और मनःस्थिति को भी गहराई से प्रभावित करते हैं। विशेषतः श्रीमद्भगवद्गीता में, जब अर्जुन युद्धभूमि में मोहग्रस्त होकर शस्त्र त्याग देता है, तब कृष्ण ही उसे धर्म, कर्म और आत्मा का ज्ञान देकर पुनः युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। यद्यपि कृष्ण की भूमिका निर्णायक है, परंतु अर्जुन की पात्रता को कम नहीं आंका जा सकता। वह वही पात्र है जिसने दिव्य ज्ञान को ग्रहण किया, उसे आत्मसात किया और फिर धर्मयुद्ध के माध्यम से उसे क्रियान्वित भी किया। यदि कृष्ण ज्ञान का स्रोत हैं, तो अर्जुन उस ज्ञान को मूर्त रूप देने वाला पात्र है। अतः अर्जुन महाभारत का पारंपरिक नायक है—मानवीय कमजोरियों के बावजूद धर्म के पक्ष में खड़ा होने वाला योद्धा। और यद्यपि कृष्ण की छाया उसके ऊपर हमेशा बनी रहती है, अर्जुन की वीरता, निष्ठा और आत्मसंघर्ष उसे एक अमर नायक के रूप में स्थापित करते हैं।

कृष्ण वेदव्यास के मुखपत्र के रूप में:

कृष्ण भारतीय संस्कृति के ऐसे अद्वितीय चरित्र हैं, जिनकी भूमिका न केवल एक देवता के रूप में, बल्कि एक कूटनीतिज्ञ, मार्गदर्शक और धर्म के रक्षक के रूप में भी रही है। महाभारत के महान रचयिता महर्षि वेदव्यास ने जब इस महाकाव्य की रचना की, तो कहा जाता है कि उन्होंने इसकी विशालता और गूढ़ता को लेखनी के माध्यम से प्रकट करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता समझी, जो उनके विचारों को शब्दों में ढाल सके। इसी उद्देश्य से भगवान ब्रह्मा के आदेश पर भगवान गणेश को लेखन कार्य के लिए आमंत्रित किया गया। परंतु, महाभारत की गहराई और गंभीरता को समझाने और उस संदेश को मानव जाति तक पहुँचाने के लिए एक और माध्यम की आवश्यकता थी—वह थे कृष्ण। कृष्ण ने महाभारत के भीतर ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के रूप में वह दिव्य ज्ञान अर्जुन को दिया, जो आज भी धर्म, कर्म और जीवन के उद्देश्य पर प्रकाश डालता है। इस रूप में वे न केवल एक पात्र थे, बल्कि वेदव्यास की वाणी के संवाहक, एक जीवंत माध्यम भी बने। कृष्ण का संवाद, विशेषतः गीता के उपदेश, वेदव्यास की आध्यात्मिक दृष्टि और दार्शनिक सोच का स्पष्ट प्रतिबिंब है। इस दृष्टिकोण से कृष्ण केवल एक योद्धा या रणनीतिकार नहीं, बल्कि वेदव्यास की चेतना के उद्घोषक बन जाते हैं। उन्होंने न केवल महाभारत की कथा को जीवंत किया, बल्कि उसके गूढ़ अर्थों को भी जनसामान्य तक पहुँचाया। इस प्रकार, कृष्ण वेदव्यास के मुखपत्र रूप में एक ऐसे दिव्य माध्यम बने, जिनके माध्यम से धर्म और सत्य का संदेश युगों-युगों तक गूंजता रहेगा।

कृष्ण, उत्तप्रेरक की भूमिका में:

कृष्ण स्वयं युद्ध में हथियार नहीं उठाते हैं, फिर भी समस्त युद्ध की गति उन्हीं के इशारों पर चलती है। वे अर्जुन के सारथी बनकर न केवल उसे शारीरिक रूप से युद्धभूमि में ले जाते हैं, बल्कि मानसिक और आत्मिक स्तर पर भी उसे तैयार करते हैं। गीता का उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए है—यह कृष्ण का सबसे महान catalytic कार्य है। कृष्ण की रणनीति, उनकी दूरदृष्टि और उनकी नीतियाँ ही युद्ध के परिणाम को तय करती हैं। चाहे दुर्योधन से संधि की असफल कोशिश हो या कर्ण की कमजोरियों का समय पर उपयोग—हर कदम पर कृष्ण निर्णायक भूमिका निभाते हैं। उनकी भूमिका केवल युद्ध तक सीमित नहीं थी। उन्होंने द्रौपदी का चीर हरण रोका, पांडवों को कई बार संकट से उबारा और धर्म की स्थापना हेतु अनेक निर्णय लिए। वे नायक नहीं, मार्गदर्शक थे—एक catalyst, जो स्वयं पीछे रहकर दूसरों को उनकी नियति की ओर अग्रसर करता है। इस प्रकार, महाभारत में कृष्ण की भूमिका केवल एक पात्र की नहीं, बल्कि एक शक्ति की है, जो सत्य, धर्म और न्याय के पक्ष में पूरी प्रणाली को संचालित करती है।

कृष्ण दैवीय हस्तक्षेपकर्ता के रूप में:

कृष्ण न सिर्फ महाभारत के मुख्य पात्र हैं, बल्कि उन्हें दैवीय हस्तक्षेपकर्ता के रूप में भी देखा जा सकता है। जब द्रौपदी का वस्त्रहरण हो रहा होता है, तो वे अपनी दैवीय उपस्थिति से इसे रोक देते हैं। दुशासन साड़ी खींचता जाता है, परन्तु द्रौपदी की साड़ी समाप्त ही नहीं होती; बल्कि यह और लंबी होती जाती है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में, जब अर्जुन अपने सगे संबंधियों को देखकर अपना धनुष छोड़ देता है, तो कृष्ण उसे अपना दैवीय रूप दिखाते हैं और गीता का ज्ञान प्रदान करते हैं। जब कर्ण अर्जुन पर नागास्त्र चलाता है, तो कृष्ण ही अर्जुन के रथ को अपनी दैवीय शक्ति से कुछ इंच ज़मीन में धँसा देते हैं, और वह बाण अर्जुन के मुकुट को ही उसके सिर से उड़ा ले जाता है। इसी प्रकार, अभिमन्यु की निर्मम हत्या के उपरांत अर्जुन जयद्रथ-वध का प्रण लेता है, और इस प्रण को अगले दिन न पूरा कर पाने पर अग्नि-समाधि लेने का भी संकल्प करता है। जब कृष्ण को लगता है कि अर्जुन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का सुरक्षा कवच भेदकर उसका वध करने में असफल हो जायेगा, तब वे अपनी दैवीय शक्ति का प्रयोग करते हैं और सूर्य को बादलों में छिपा देते हैं। जब अर्जुन अग्नि-समाधि के लिए तैयार होता है, और अर्जुन की अग्नि-समाधि को देखने के लिये अत्यधिक प्रसन्नता में जयद्रथ अपने सुरक्षा कवच से बाहर आता है, तब कृष्ण बादलों में से सूर्य को पुनः प्रकट कर देते हैं, जिससे अर्जुन अपना गांडीव उठाकर जयद्रथ का वध कर देता है। इसी प्रकार, जब दुर्योधन अपनी सभा में आये शान्तिदूत कृष्ण को बंदी बनाने की आज्ञा देता है, तब कृष्ण उस सभा में अपना विराट रूप धारण करके कौरवों के हृदयों में भय का संचार कर देते हैं।

अभिमन्यु-हत्या एक युक्ति है:

महर्षि वेदव्यास ने अभिमन्यु की हत्या का आयोजन जानबूझकर कुछ इस तरह से करवाया है कि इसी रीति का अनुशरण करके कौरव सेना की ओर से लड़ रहे योद्धाओं को अन्यायपूर्ण ढंग से उनका संहार करवाया जा सके। इसमें आचार्य द्रोण और कर्ण के नाम प्रमुख हैं। ये सभी जानते हैं कि आचार्य द्रोण अर्जुन और कर्ण जैसे महरथियों को न्यायोचित ढंग से पराजित कर उनका वध करने की शक्ति रखते थे। फिर अभिमन्यु तो इनसे निचले दर्जे का योद्धा था, और उसके पास ब्रह्मास्त्र भी नहीं था। इस तरह, अभिमन्यु का वध करने के लिये द्रोण अथवा कर्ण अथवा अश्वथामा का एक उपयुक्त बाण ही पर्याप्त था। फिर भी, अभिमन्यु का वध करने के लिए इन महारथियों को एक साथ आने की आवश्यकता पड़ी। इस प्रकार, एक विश्लेषक अभिमन्यु की हत्या को एक युक्ति के रूप में देखता है, ताकि आचार्य द्रोण की निर्मम हत्या को अभिमन्यु की हत्या के सापेक्ष में न्यायपूर्ण ठहराया जा सके। दूसरा तर्क यह है कि कृष्ण तो अंतर्यामी थे; फिर उन्होंने अभिमन्यु को पहले से ही चक्रव्यूह को भेदने का पूर्ण ज्ञान क्यों नहीं दिया, जबकि वे ही उसके गुरु थे। इससे स्पष्ट होता है कि महाकाव्य को अधिक दुःखद और गहन बनाने के लिए महर्षि वेदव्यास ने एक सोची-समझी योजना के तहत अभिमन्यु की निर्मम हत्या का आयोजन रचा, ताकि अभिमन्यु के रूप में एक मजबूत पात्र का निर्माण हो सके और पाठकों का ध्यान उस पर केंद्रित हो।

धर्म-युद्ध का दर्शन:

महाभारत तथा रामायण में धर्मयुद्ध के बड़े अच्छे उदाहरण देखने को मिलते हैं। रामायण में राम बाली को छल से मारते हैं, क्योंकि उसे वरदान था कि वह जिससे भी युद्ध करेगा, उसकी आधी शक्ति बाली को मिल जाएगी; जिससे वह रामायण का अजेय योद्धा था। परंतु जब बाण लगने पर बाली राम से शिकायत कर रहा था कि उन्होंने उस पर सामने से नहीं बल्कि छुपकर वार किया है, तो राम उसे उसके दुष्कर्मों की याद दिलाते हैं—कि उसने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी पर कुदृष्टि रखी, जो धर्म के विरुद्ध है। उसने अपने भाई सुग्रीव के तर्क पर विचार न कर जबरदस्ती उसे राज्य से बेदखल कर दिया, जो अन्यायपूर्ण है। और अगर कोई अन्याय तथा अधर्म करे, और उसका अंत न्यायपूर्ण ढंग से संभव न हो, तो उसका अंत करने के लिये छल का सहारा लेना भी धर्म की एक सूक्ष्म परिभाषा होगी। इसी प्रकार, महाभारत में भी निशस्त्र द्रोणाचार्य के वध को न्यायपूर्ण ठहराया गया है, क्योंकि उनके सेनापति होते हुए भी कई योद्धाओं ने मिलकर अकेले अभिमन्यु की हत्या की थी, जो युद्ध नियमों के विरुद्ध था। इसी प्रकार, कर्ण का वध करवाया गया जब वह अपने रथ के पहिये को बाहर निकालने की चेष्टा कर रहा था, और कृष्ण ने अर्जुन को इस अवसर का लाभ उठाने के लिये उकसाया, क्योंकि कर्ण ने युद्ध नियमों का पालन न करते हुए अभिमन्यु पर कई योद्धाओं के साथ मिलकर प्रहार किया था। कृष्ण के उकसावे पर भीम ने दुर्योधन की जंघा पर प्रहार कर उसका अंत किया, क्योंकि गांधारी के आशीर्वाद के कारण जांघ और कमर के बीच के हिस्से को छोड़कर दुर्योधन का पूरा शरीर पत्थर सा कठोर हो चुका था; और युद्ध नियमों का पालन करते हुए गदा युद्ध में दुर्योधन को कोई पराजित नहीं कर सकता था। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि अधर्मियों का अंत धर्म का पालन करते हुए असंभव जान पड़े, तो धार्मिक पुरुषों को छल का सहारा लेकर अधर्मियों का अंत सुनिश्चित करना चाहिए, ताकि धर्म की पुनर्स्थापना की जा सके। इसके साथ ही साथ, उन लोगों को भी बक्शा नहीं जाना चाहिए, जो धार्मिक तो हैं, परंतु भीष्म, द्रोण और कर्ण की तरह अधर्मियों की ओर से लड़े जा रहे हैं और धर्म और शांति के मार्ग में बाधा हैं। जिस तरह लोहा लोहे को काटता है, वैसे छल छल की काट है।

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