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गाँव के बीचों बीच एक पुराना-सा विद्यालय था — मिट्टी की दीवारें, छप्पर की छत और चारों ओर फैले आम और नीम के पेड़। सुबह जब सूरज की पहली किरणें उन पत्तों के बीच से छन छन कर आतीं, तो लगता मानो स्कूल की कक्षाएँ नहीं, बल्कि प्रकृति खुद बच्चों को उजाले की पाठशाला में आमंत्रित कर रही हो।

इस विद्यालय में एक ही शिक्षक थे — मास्टरजी।

गाँव के लोग उन्हें सम्मान से देखते थे, पर कोई यह नहीं जानता था कि वो इस छोटे से गाँव में कैसे और कब आ बसे। कहते हैं, पंद्रह बरस पहले जब सूखा पड़ा था और नदी सूख गई थी, तब एक अजनबी इस गाँव में आया था — वही आज के मास्टरजी थे।

मास्टरजी का घर स्कूल के ठीक पीछे था, और उनके आँगन में एक गहरा कुआँ था — गाँव का एकमात्र जलस्रोत।

गाँव की औरतें और बच्चे रोज़ वहीं पानी भरने आते।

उसी भीड़ में एक नन्ही-सी बालिका थी — गौरी।

गौरी रोज़ सुबह-सुबह मिट्टी की पगडंडी से होकर मास्टरजी के कुएँ तक आती। उसकी चोटी हवा में लहराती, और उसके पैर धूल में रंग जाते। पानी भरते वक्त उसकी नजर अक्सर स्कूल की खिड़की से झांकते बच्चों पर पड़ती। वहाँ बच्चों के चेहरों पर ज्ञान की चमक थी, जो उसे भीतर तक खींच लेती।

वह भी चाहती थी कि उस छप्पर के नीचे बैठे, स्लेट पर अक्षर उकेरे, पर उसके लिए वह स्कूल एक सपना था — ऐसा सपना जिसे देखना भी मना था।

क्योंकि गौरी गाँव के सरपंच की बेटी थी।

सरपंच जी गाँव में आदर्श माने जाते थे। वे हर सभा में कहते, “शिक्षा सबका अधिकार है, इससे ही समाज बदलता है।”

पर अपने घर के दरवाज़े उन्होंने बेटियों की पढ़ाई पर बंद कर रखे थे।

उनका कहना था —

"लड़कियाँ रसोई और ससुराल के लिए होती हैं, किताबों से उनका क्या वास्ता..."

मास्टरजी ने कई बार गौरी से कहा —

“क्यों नहीं आती तुम स्कूल, बिटिया?

तुम्हारी आँखों में तो अक्षरों की चमक है।”

गौरी झेंप जाती, सिर झुका लेती और जल्दी से लोटा उठाकर भाग जाती।

वह जानती थी कि उसके पिता का हुक्म टालना गुनाह है।

बरसात का मौसम था।बादल जैसे गाँव की सीमाओं में ठहर गए थे।कुआँ उफनने लगा था और हवा में मिट्टी की गंध तैर रही थी।गाँव के बच्चे कीचड़ में फिसलते-हँसते स्कूल पहुँचते, और मास्टरजी उन्हें जीवन के पाठ पढ़ाते — “सच्चाई, मेहनत, और ज्ञान का महत्व।”

उसी समय पंचायत भवन में सरपंच जी खड़े होकर भाषण दे रहे थे —“शिक्षा सबका अधिकार है, बेटा-बेटी में कोई फ़र्क नहीं होना चाहिए।”लोग ताली बजा रहे थे।

मास्टरजी वहीं से गुजर रहे थे। वे रुक गए और बोले —

“सरपंच जी, आपकी बात सुनकर अच्छा लगा।

पर क्या ये अधिकार आपकी बेटी गौरी को भी मिला है?”सरपंच जी ने मुस्कुराते हुए बात टाल दी,

“अरे मास्टरजी, हमारी परंपरा कुछ अलग है। लड़कियाँ घर की इज़्ज़त हैं — उनका घर से बाहर निकलना ठीक नहीं।”

मास्टरजी चुप हो गए।पर उनके चेहरे पर कुछ बेचैनी थी। शायद उन्हें अपना अतीत याद आ गया था। 

कई हफ़्ते बीत गए। एक दिन खबर फैली कि सरपंच जी ने गौरी का रिश्ता पक्का कर दिया है — पास के चौधरी परिवार में। लड़की अभी मुश्किल से चौदह साल की थी। गाँव में शहनाई की तैयारी होने लगी। पर गौरी के चेहरे पर मुस्कान नहीं थी। उसकी आँखें हर शाम स्कूल की ओर देखतीं, जैसे मन ही मन पूछतीं —

“क्या मैं कभी उस आँगन में बैठ पाऊँगी?”

गोने वाले दिन, नदी किनारे सुबह का सूरज लाल-लाल था। पानी की सतह पर धूप चमक रही थी, जैसे किसी ने सोने की चादर बिछा दी हो। मास्टरजी नदी में स्नान करने आए थे। वहीं उन्हें गौरी पत्थर पर बैठी दिखी — उसके चेहरे पर उदासी थी और आँखों में हजार सवाल। मास्टरजी ने पास जाकर पूछा,

“क्या हुआ बिटिया? आज स्कूल की ओर नहीं देखा?”

गौरी ने सिर झुका लिया, कुछ नहीं बोली। बस नदी के पानी में छोटे-छोटे गोल पत्थर फेंकने लगी।हर पत्थर के साथ जैसे उसकी कोई चाह डूब रही थी। तभी दूर से सरपंच जी आते दिखे। उन्होंने झुंझलाते हुए कहा,

“अरे, तुम यहाँ बैठी हो? घर पर तेरी माँ तुझे ढूँढ रही है। गोने की तैयारी करनी है।”

मास्टरजी बोले — 

“सरपंच जी, इसे अभी मत भेजिए। यह बच्ची है, इसे पढ़ाइए — यही असली दहेज होगा।”

सरपंच जी हँस पड़े,

“मास्टरजी, आप शहर के लोग समझते नहीं। हमारे यहाँ लड़कियाँ चूल्हा-चौका करती हैं, किताबें नहीं।”

इतना कहकर वे बेटी का हाथ पकड़कर ले गए। उस दिन के बाद मास्टरजी बेचैन रहने लगे। रात को नींद नहीं आती। हर बार गौरी का चेहरा और उसकी आँखों में बुझती चाह उन्हें याद आती। और तभी, अतीत का दरवाज़ा खुलने लगता —

वे खुद एक पिता थे, और उनकी भी एक बेटी थी — रेखा। रेखा को उन्होंने कभी स्कूल नहीं भेजा था। उन्हें भी यही लगता था कि “लड़कियाँ पढ़कर क्या करेंगी।” पर जब रेखा का विवाह हुआ, तो उसकी दुनिया बदल गई। ससुराल वालों ने उसे सिर्फ इसलिए ठगा क्योंकि वो अनपढ़ थी। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने उसकी सारी ज़मीन हड़प ली। रेखा को न कानून आता था, न अपने हक का मतलब। जब मास्टरजी खबर सुनकर वहाँ पहुँचे, तो देखा — उनकी बेटी के हाथों पर जलने के निशान थे। चेहरा सूजा हुआ, आँखों में डर था।

वो कहने लगी —

“अब यही मेरा घर है, बाबा। शिक्षा नहीं थी, तो आवाज़ भी नहीं रही। अब लौटकर क्या करूँगी?”

मास्टरजी अपनी गलती और लड़की की जिद के कारण उसे न लौटा पाए, वे वहीं टूट-से गए... उन्होंने उस दिन जाना कि अज्ञान सिर्फ अंधकार नहीं, बल्कि विनाश है।आज जब सरपंच जी की वही बातें सुनते, तो उनके दिल में पुराना दर्द फिर से ताज़ा हो जाता। उन्हें रेखा की याद आती, उसका दर्द, और अपनी गलती।

कुछ दिनों बाद खबर आई — गौरी ने नदी में कूदकर जान दे दी। गाँव में हलचल मच गई।लोगों ने कहा — “शायद शादी नहीं करना चाहती थी।”

पर मास्टरजी जानते थे कि वो विद्रोह की चिंगारी थी — एक ऐसी चिंगारी जिसे समाज ने बुझा दिया। सरपंच जी पंचायत के आँगन में बैठे थे, पर उनकी आँखें अब शून्य थीं। जब मास्टरजी वहाँ पहुँचे, तो बस इतना कहा —

“सरपंच जी, आपने कहा था — लड़कियों को पढ़कर क्या मिलेगा? देखिए, न पढ़ने का क्या मिल गया।”

सरपंच की आँखें भर आईं। वो कुछ नहीं बोले। सिर्फ इतना कर पाए कि सिर झुका लिया।शाम हो चुकी थी। नदी का पानी लाल हो गया था, जैसे किसी ने उसमें आँसू मिला दिए हों।मास्टरजी उसी घाट पर बैठे थे जहाँ कभी गौरी बैठी थी। हवा में नीम के पत्तों की सरसराहट थी। दूर स्कूल की छत पर बैठा एक तोता “टू-टू” करता जैसे कह रहा हो —

“क्यों जरूरी है शिक्षा लड़कियों के लिए…”

मास्टरजी ने अपनी भीगी आँखों से नदी की ओर देखा। नदी बह रही थी — धीमे-धीमे, पर निरंतर। उन्होंने अपने आप से कहा —

"क्यों जरूरी है शिक्षा लड़कियों के लिए? इसलिए कि उन्हें किसी की दया नहीं, अपनी पहचान चाहिए। ताकि कोई भी उनके सपनों को चौखट के भीतर कैद न कर सके।”

हवा में मानो नदी का जल और उनके आँसू एक हो गए। चाँद निकल आया था — शांत, पर गवाही देता हुआ कि कहीं न कहीं, कोई मास्टरजी अब भी अपने अतीत से लड़ रहा है,और कोई गौरी अब भी किताबों का इंतज़ार कर रही है।

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