आज-कल बस उद्देश्य ही उद्देश्य हैं, हरेक व्यक्ति के पास। परंतु...उन उद्देश्यों की प्रासंगिकता कहीं होकर रह गया हैं। क्योंकि" अब इसका ठोस आधार नहीं हैं ज्यादातर के पास। बस' धन को अर्जित करना हैं, बेशुमार अर्जित करना हैॆ और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना हैं।
आज के संदर्भ में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि" आज कालिदास बनकर रघुवंसम की रचना करने की इच्छा किली में नहीं हैं। आज वाग्गभट" बनकर कोई भी आयुर्वेदाचार्य नहीं बनना चाहता और मानव सभ्यता को रोग मुक्त नहीं करना चाहता। आज तुलसीदास बनकर हरि गुण गाने की और श्रेष्ठ गंथ की रचना करने का परिकल्पना कोई भी नहीं करना चाहता। आज आर्यभट बनकर कोई भी इतिहास के पन्नों में अपने नाम को उकेरने के लिए कोई भी इच्छुक नहीं हैं।
आज विशेष रुप से सुख-सुविधा की चाह तो सभी में हैं, परंतु स्वामी विवेकानंद और सुभाष चंद्र बोस बनने की भावना किसी के मन में उबाल नहीं मारता। बस" आज एक इच्छाओं का प्रबल प्रबाह हैं, सफल हो जाना हैं और खुब धन अर्जित करना हैं। बस' सुख पुर्वक जीवन जीना हैं और कीड़े-मरोड़े की भांति मरकर इस संसार से विदा हो जाना हैं। आज जो इस तरह की भावना ने जो जनमानस में घर कर लिया हैं, खासकप युवाओं में। उसको कदापि उचित नहीं कहा जा सकता।
हां आज के परिपेक्छ्य में यही यथार्थ हैं और यह मानव जीवन के लिए बिडंबना बन चुका हैं। आज जिस तरह से खासकर युवा प्रचारित और प्रसारित होने के लिए रील" बनाते हैं, जिस तरह से आधार बिना कांटेंट को बढ़ाबा देते हैं, उसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता हैं।
आज जीवन कुछ इस तरह से उलझ गया हैं कि" अब उद्देश्यों का घालमेल होने लगा हैं। जो कि" वास्तव ं में उद्देश्य कहा नहीं जा सकता। बस धन कमाना, उसका अंबार लगाना और उसके द्वारा सुख-सुविधा को जुटाना, इसे यथार्थ उद्देश्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि' इससे शारीरिक संतुष्टि तो हासिल किया जा सकता हैं, परंतु आत्मिक संतुष्टि हासिल करना दूर की कौरी हैं।
शायद यही कारण हैं, आज का युवा मन भ्रमित बनता जा रहा हैं। वह इस समझ से परे होता जा रहा हैं कि उसे करना क्या हैं। वह समझ ही नहीं पाता हैं अब, उसे जीवन के केंद्रक पर किस ओर गति करनी चाहिए। जिससे वह अपना कल्याण कर सके और मानव सभ्यता के लिए उपयोगी साबित हो सके। वह यह समझ ही नहीं पाता, जीवन जीने में खुद की इच्छाओं की पुर्ति के अलावा इस संसार के लिए भी कुछ दायित्व निर्धारित हैं।
जीवन जीने की एक कला होती हैं, जो उद्देश्यों के आधार-बिंदु से बल पाता हैं। फिर कुछ कर गुजर जाने की भावना बलबती होती हैं। जिससे वह नित नव अण्वेषण करने के लिए लालायित और तत्पर बनता हैं। इसके बाद वह जीवन यग्ग में अपने श्रम की, मन के लगन की और इच्छाओं की आहुती देता हैं। जिसके फलस्वरुप एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण होता हैं। फिर तो, जीवन के क्रम में इन्हीं में से कोई सूरदास बनता हैं, चैतन्य बनता हैं और इसी श्रम के फलीफूत होकर गौतम बुद्ध का व्यक्तित्व निर्माण होता हैं।
परंतु...आज ऐसा नहीं हो पा रहा हैं, क्योंकि आज शिक्छा का केंद्र रोजगारोन्मुखी हो गया हैं। आज की पढ़ाई हमें बस धन कमाने की कला सिखाता हैं, धन को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता हैं। भले ही इसके लिए पीछे बहुत कुछ छूट जाए। आज की पढ़ाई इतनी भर सिमट कर रह गई हैं कि" अब इसमें चरित्र निर्माण करने के लिए कोई जगह नहीं हैं। आज व्यक्तित्व निर्माण करने के लिए उदाशीनता का माहौल हैं। बस' आज किसी तरह से हम जो कर रहे हैं, वह आय का स्रोत बना सके, बस।
यह उद्देश्यों का ही घालमेल हैं कि" हरेक चीजों का व्यापारीकरण हो गया हैं। आज जब धन का बोलबाला हैं, ऐसे में मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं बचा हैं। बस, जगह बचा हैं तो त्वरित सफलता के लिए, जो कहता हैं कि" जो दिखता हैं, वहीं बिकता हैं।
आज जीवन के परिपाटी पर बस लाभ ही लाभ का बोलबाला हैं। आज वही जीवन के लिए उद्देश्यवान हैं, जो हांकना जानता हो। जो दूसरे के लिए कुआँ और खुद के लिए सरोवर खोदने की चाह रखता हो। आज वही सफल हैं, जो यथार्थ से परे होकर भी यथार्थ वादी दिखने का दमखम रखता हो, बस।