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आज-कल जीवन में प्रत्येक दिन कुछ न कुछ विशेष बदलाव होता हैं और बदलाव ऐसा कि” जिससे हमारी दिनचर्या प्रभावित होती हैं। हां, यह कहने में अब संकोच नहीं कि” हम आधुनिकता के उस दौर में पहुंच गए हैं, जहां दुनिया की तमाम वस्तुएँ अंगुली घुमाने भर पर हमारे सामने हाजिर होती हैं।
आज हम सुख-सुविधा के लिए मोहताज नहीं हैं। कहने का मतलब, अच्छा पहनना, अच्छा खान-पान, अच्छी जीवन शैली और इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने की हमारी स्थिति और परिस्थिति। आज मानव जीवन बोले तो इतना सरल हो गया हैं कि” अब वो जो चाहे कर सकता हैं। मतलब कि” वह खान-पान, पहनावा और सामाजिक व्यवहार से लेकर चरित्र प्रदर्शन, इन सभी के लिए आर्थिक और व्यक्तिगत रुप से समृद्ध और स्वतंत्र हो चुका हैं। वह जो चाहे कर सके, इसके लिए स्थिति का निर्माण करने के लिए सुविधाएँ भी संभव हो गई हैं।
यह तो जीवन चक्र हैं, जिसमें बदलाव की निरंतरता हमेशा बनी रहती हैं। सुख-सुविधाओं को और भी बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास चलता रहता हैं। क्योंकि” मानव मन का स्वभाव ही ऐसा हैं, जो उपलब्ध हैं, वह पर्याप्त नहीं हैं। हां, इसलिए ही तो निरंतर सृजन के लिए संघर्ष चलता रहता हैं। निरंतर ही आविष्कार के लिए मंथन चलता हैं। इच्छित पा लेने के बावजूद और भी बेहतर पाने के लिए।
यह तो हुई आधुनिकता की बात और उसमें होते हुए निरंतर बदलाव और विकास की यात्रा, जो कि” मानव मन के स्वभाव के अनुरूप अपेक्षित हैं। परंतु…इस आधुनिकता के दौर में मानव खुद को ही भूलता जा रहा हैं। वह जो खुद को समझने के लिए, खुद को जानने के लिए उसके मन में ललक होनी चाहिए। उसमें निरंतर ही कमी होती जा रही है।
आज का मानव सुविधाओं का इतना अभ्यस्त हो चुका हैं कि” अब वो खुद को ही भूलने लगा है। वह भूलने लगा हैं उन उद्देश्यों को, जिसको पाने के लिए उसको जन्म मिला हैं। वह भूलने लगा हैं अपने उस मूल स्वभाव को, जिसकी प्रगति से वह अपना आत्मिक कल्याण करता और समाज के लिए हितकारी होता। वह भूलने लगा हैं, मानव जीवन के उन निर्धारित कर्तव्यों को, जिसका विकास करके वो समाज के लिए हितकारी होता। वह” जीवन के लिए श्रेष्ठ आदर्शों को चिन्हिंत करता, जिससे आने वाली पीढ़ी को लाभ मिल सके।
आज का मानव-मानव न रहकर यांत्रिक मशीन की भांति होता जा रहा हैं। तभी तो उसके भावों में वह माधुर्य नहीं हैं, जो किसी को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर सके। आज का मानव समय के आधुनिक होने के साथ आचरण से भी आधुनिक हो गया हैं। तभी तो वो अब रिश्तों में सहज नहीं हैं। उसके मन में वह उर्मित उष्मा नहीं हैं, जिससे रिश्तों को गर्मी प्रदान कर सके। उसके व्यवहार में वो स्वाभाविक संतुलन नहीं हैं, जिससे वो रिश्तों में बिगड़ते हुए बातों को संभाल सके।
आज का मानव मानसिक रुप से इतना आधुनिक बन चुका हैं कि” वह अब वैसा बिल्कुल भी नहीं दिखता, जैसा उसको दिखना चाहिए। बल्कि” अब वो ऐसा दिखना पसंद करता हैं, जो उसके हित के अनुरूप हो। हां, उसको फायदा पहुंचा सके, ऐसा ही व्यवहार करने की इच्छा रह गई हैं उसमें। इसका ही परिणाम हैं, आज दो व्यक्ति आस-पास रहते हुए भी आपस में सहज संवाद नहीं करते और अगर संवाद करते भी हैं, तो किसी तीसरे की बुराई के लिए, अथवा तो व्यवहारिकता निभाने के लिए।
हां, आज का मानव इस आधुनिक विकास के दौर में आत्म-केंद्रित होने की जगह स्व-केंद्रित हो गया हैं। ऐसे में वो कुछ भी करने से पहले, कुछ भी प्रतिक्रियात्मक दायित्व निभाने से पहले लाभ-हानि की गणना कर लेता हैं। वह यह जान लेता हैं, मैंने जो किया, उससे मिलेगा क्या। परिणाम स्वरूप वह भूल जाता हैं, जीवन जो मिला हैं, वह ऐसे ही नहीं मिला हैं।
क्योंकि” शास्त्र की लिखित बातों में, व्यवहारिक जगत में और सामाजिक व्यवस्था में मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ माना गया हैं। मानव होना, मतलब कि” जीवन के पथ पर चलते हुए खुद का आत्मिक विकास करना, खुद को जानना और चलते हुए क्रम में पथ पर अमिट चिन्ह बनाना होता हैं। जिससे पीछे से आने वाले लोग उससे प्रेरणा ले सके। उसके अनुरूप अपना व्यवहार कर सके।
किन्तु” ऐसा अब होता बिल्कुल भी नहीं हैं। आज का आधुनिक युग, जिसमें सब कुछ बदल रहा हैं, जिसकी गति में आकर मानव भी बदल रहा हैं। हां, आज का मानव सुविधाओं का अभ्यस्त बनता जा रहा हैं। जिसके कारण प्रकृति के साथ ताल-मेल बिठाने की उसकी प्रकृति विलुप्त-प्रायः हो गई हैं। जिसके कारण विषम स्थिति आने पर वह संघर्ष करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होता।
आज जो विकास की गति हैं न, उससे उत्पन्न हुए आवेग ने मानव के आत्मिक चेतना” के विकास को अवरुद्ध कर के रख दिया हैं। यही कारण हैं, आज का मानव उन विषयों पर मुखर नहीं होता, जिससे राष्ट्र, समाज और परिवार के हितों की रक्षा हो। वह उन विषयों पर बिल्कुल ही मौन रहना पसंद करता हैं, जिससे समाज में द्वेष का वातावरण बन रहा हो।
वह इस आधुनिक युग में इतना आधुनिक होकर रह गया हैं कि” मोबाइल तक ही सिमट कर रह गया हैं। आज जब सुविधाएँ सहज हैं, वह बस इसको जुटाने के लिए ही निरंतर प्रयत्नशील बना हुआ हैं। वह संचय करने का आदी बनता जा रहा हैं और इसलिए संशय का शिकार हो रहा हैं। वह रिश्तों में नीरसता महसूस करने लगा हैं, इसलिए जीवन को बिल्कुल वे-स्वाद सा अनुभव करने लगा हैं।
आज मानव निर्धारित नियमों को मानना ही नहीं चाहता। आज तो बस, अनुकूल हैं, वही सही हैं, वाली नीति का अनुसरण करने के लिए उद्धत रहता हैं। आज का मानव जीवन के मानक बिंदु पर पिछड़ता जा रहा हैं। वह जो खुद को समझ पाता, इसके लिए मन में अब कोई भी इच्छा नहीं रही।
और अगर ऐसी ही स्थिति रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव कूड़ेदान में डालने वाले कचरे के समान हो जाएगा। क्योंकि” आत्मिक चेतना” के बिना किसी भी सभ्यता का न तो सही से विकास संभव हैं और न ही संरक्षण संभव हैं।
हां, विकास के रफ्तार में बहकर मानव जब खुद को भूलने लगता हैं, तब वह विनाश को निमंत्रण देता हैं। यही ध्रुव सत्य हैं, जिसका प्रमाण मिट चुकी कई सभ्यताएँ हैं। ऐसे में जरूरत हैं, आधुनिक विकास की गति के साथ मानव ताल-मेल बिठाए और अपने आत्मिक चेतना” के विकास के लिए भी प्रयत्नशील बने। वह सुविधाओं के प्रवाह में खोकर मशीन बनने की बजाय आत्मिक चेतना” को जागृत कर मानव बने। तभी समाज का कल्याण होगा, परिवार व्यवस्थित होगा और राष्ट्र खुशहाल बनेगा।