Image by Mo Farrelly from Pixabay

आज पहले की तरह कुछ भी नहीं रहा। पहले मानव जीवन पर महत्वाकांक्षा का इतना दबाव नहीं था। ग्रामीण जीवन का बोल-बाला भी था। लोग रुखी-सुखी खाकर भी मस्त रहते थे। जी भरकर घर के और खेतों का काम संपादन करते थे और चैन की नींद सोते थे। बस’ पूरी तरह से जीवन की स्वतंत्रता का अनुभव करते थे और उसी के अनुरूप ही व्यवहार करते थे।

अब जो ग्रामीण जीवन इस तरह से शांत होकर जीवन जीने का अभ्यासी था, तो शहर पर भी दबाव नहीं था। लोग स्वस्थ और प्रसन्न जीवन को पसंद करते थे और दौलत कमाने की ओर भागते नहीं थे। ऐसे में गांव से शहर की ओर पलायन बिल्कुल भी नहीं था। जिसके कारण जीवन की गतिविधियां धन के आस-पास बिल्कुल भी केंद्रित नहीं था। बस’ खेतों में अन्न उपज गया, घर अन्न से भर गया, लोगों का जीवन संतुष्ट हो जाता था। फिर तो व्यापार भी वायदे पर निर्भर होता था।

लेकिन अचानक ही मानव जीवन के गतिविधियों में बदलाव हुआ। पहले जो अन्न युग था, उसका परिवर्तन हुआ और उसकी जगह अर्थ युग ने ले लिया। अर्थ” युग यानी कि” पूंजीवादी, जिसमें धन कमाने और उसको संग्रहीत करने पर बल दिया जाता हैं। पूंजीवादी” यानी कि किसी भी राष्ट्र पर मुद्रा संचय, विनिमय और संचालन करने का दबाव, जिसने मानव जीवन की प्राथमिकता को ही बदल दिया।

और ऐसा हुआ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गठन, उन्नयन और पदार्पण से। जिनका केवल और केवल एक ही उद्देश्य था, पूंजी का संचय करना और मानव जीवन को खींच-तीर कर बाजार-वाद के आस-पास लाकर केंद्रित कर देना। बस’ मानव जीवन प्राकृतिक सुख-सुविधाओं से कटकर, अलग-थलग होकर कृत्रिम बनाए हुए सुख-सुविधा का आदी हो जाए, अभ्यस्त बन जाए।

जिसका असर भी हुआ। धीरे-धीरे आवश्यकताओं और लालसा में घिरा हुआ मानव जीवन अर्थ युग के विषम जाल में उलझता चला गया। अब सुख-सुविधाओं को एकत्रित करने के लिए उसके मन में अभिलाषा जगी, जिसके लिए आर्थिक गतिविधि को बल मिला। लोग धन कमाने, उसका संचय करने और उस कमाए हुए धन को खर्च करने के लिए मार्ग तलाशने लगे।

ऐसे में निश्चित रुप से मानव जीवन में क्रांतिकारी बदलाव हुआ। लोग अब धन कमाकर सुख-सुविधा को जुटाने लगे, जिसे अर्थ-व्यवस्था को बल मिला और आर्थिक गतिविधियां बढ़ने लगी। जो पहले वायदे का ज्यादातर विनिमय होता था, उसकी जगह पर अब मुद्रा का विनिमय होने लगा। लोग अब बस मुद्रा कमाते थे और उस संग्रहित मुद्रा को भंडारित करने और उसकी मात्रा को और ज्यादा बढ़ाने में जुट गए। जी-जान से लग गए अपने और अपने परिवार के लिए सुख-सुविधाओं को जुटाने में।

जिसके कारण समाज में ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की भावना ने जन्म लिया और धीरे-धीरे विशाल वटवृक्ष सा बनने लगा। जिसका परिणाम हुआ, लोगों में दिखावा करने की भावना भी बलवती होने लगी। अब लोग देखा-देखी सुख-सुविधाओं को जुटाने की होड़ में शामिल हो गए। जिसके कारण ग्रामीण जीवन से पलायन-वाद का युग शुरु हुआ। अब लोग धन कमाने की लालसा में डूब चुके थे, तो ग्रामीण जीवन से ऊबकर शहर की ओर आकर्षित होने लगे। जिससे शहरी जीवन पर दबाव बढ़ने लगा।

हलांकि इन सारी गतिविधियों से मानव जीवन पर सम्यक प्रभाव पड़ा। अब उसके जीवन में अभाव के लिए कोई भी स्थान नहीं था। साथ ही शहरी जीवन पर दबाव बढ़ने के कारण आर्थिक गतिविधि को बल मिला और उसने रफ्तार पकड़ लिया। जिसके कारण बाजार-वाद पर पूंजी-वाद का वर्चस्व स्थापित हो गया। अब छोटी से छोटी चीज का भी क्रय मुद्रा के बिना असंभव हो गया।

साथ ही इस हुए बदलाव ने मानव जीवन की धारणाओं को, जीवन जीने की शैली को और उसके मन में पल रही भावनाओं को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। पहले जो परस्पर सामूहिक सहकार और सहयोग की भावना थी, उसकी जगह पर “एकला चलो रे” जैसी भावनाओं ने जन्म लिया। जिसने मानव जीवन के लिए जरूरी सभी मानक मूल्यों का भक्षण कर लिया।

हां, इस हुए बदलाव का सार्थक असर भी हुआ, जो कि” क्रांतिकारी था। आर्थिक गतिविधि तेज होने के कारण मानव जीवन में अमूल-चूल परिवर्तन हुए, जो सार्थक थे। अब मानव जीवन अभाव के भयावह दलदल से बाहर निकल चुका था। पहले जो उसे छोटी से छोटी चीज के लिए भी अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता था, अब ऐसी कोई बात नहीं थी। अब वो धन कमाकर अपनी जरूरतों को पूरा कर सकता था। धन का संचय करके मन में दबी हुई भावनाओं का पूर्ण रुप से दिखावा कर सकता था।

लेकिन’ इन सार्थक हुए बदलाव के बीच मानव जीवन का वह सहज-रस लुप्त हो गया। अब मानव जीवन पर धन कमाने और धन कमाने का दबाव पड़ा, तो वह खुद को भूलने लगा। वह अपनी मूल भावनाओं को भूलने लगा, जिसमें दया, प्रेम, स्नेह और परस्पर आदान-प्रदान की इच्छा थी। स्वाभाविक था, मन परमार्थ की जगह पर स्वार्थ की जय-जय करने लगा।

लेकिन’ मानव मन की मूल भावनाएँ जो हैं, वह नेचुरल हैं। ऐसे में स्वार्थ ने जब इसको दबा दिया, तो यह अंदर ही अंदर घुटने लगी। एक तो अधिक धन कमाने और सुख-सुविधा जुटाने की लालसा, दूसरे प्रकृति प्रदत्त मन के अंदर उत्पन्न इन भावनाओं का दमन, मानव जीवन एक अलग प्रकार की हताशा और निराशा के साये में जीने लगा। जिसके कारण स्वाभाविक रुप से क्रोध और आवेश ने जन्म लिया।

जिसका प्रभाव बढ़ता गया और व्यापक होता गया। हां, आज सहनशीलता तो मानव जीवन से लुप्त-प्रायः हो गया हैं। अब जिसे देखो, हलकी सी भी कोई बात हुई नहीं कि” तुरंत ही आक्रोशित हो जाता हैं। इतना ही नहीं वह आक्रोश के उस उफान में बहने लगता हैं, जहां पर बात मरने-मारने तक पहुंच जाती हैं। साथ ही अब सहयोग की भावना की जगह पर ईर्ष्या और द्वेष ने ले लिया हैं।

हां, यह ध्यान देने वाली बात हैं कि” मानव जीवन आज बहुत हद तक उलझ गया हैं। वह धन कमाने-अधिक धन कमाने के दबाव-तले दबा हुआ हैं। जिसके कारण स्वार्थ का गहरा आवरण उसके मन पर फैला हुआ हैं। ऐसे में उसके अंदर की मूल-भावनाएं कुंठित हो गई हैं। उसका ही भयावह परिणाम हैं, हमारे आस-पास आक्रोश का ग्राफ बढ़ता जा रहा हैं, जो मानव जीवन के लिए कतई हितकर नहीं हैं।

चलते-चलते फिर कभी…….

.    .    .

Discus