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अब लो, मिटा न पीड़ हृदय का,
हुआ जो पथ पर फिर से द्वंद्व घात,
उलझे-सुलझे से विस्मय की बात,
भ्रमित हुआ मन, उलटा चाल समय का।।
मन, गनना करने बैठा सुख- दुःख को,
पथ पर रिश्ते का गठजोड़ बनाकर,
उलझा अधिक सुलझने के यत्नों से,
जो चोट लगी, गिरा फिर तो बल खाकर।।
चाहक जो था, सुविधा का पथ पर,
लेकर मथने को सुख, थामे हुए बिलोने,
अधिक लालसा के बढ़ने की हुई बात,
उठा गुबार अधिक ऊँचा द्वंद्व वलय का।।
इच्छित वर पाने को, बनकर के लाभुक,
बैठा था, अभिलाषा के महल चुनाकर,
जतन किया था पथ पर, विजयी हो जाऊँ,
आए द्वंद्व की सेना, हर्षित होऊँ शूल चुभाकर।।
अब लो, जीवन का सत्य समझ नहीं पाया,
उद्विग्न हृदय मेरा, कालापन का लिपटा साया,
चला था सोच यही, मंजिल सहज ही पाऊँ,
समय चक्र पर उलझा जो, मेरा मन भरमाया।।
अब लो, जख्म से लहू अधिक रिसते हैं,
तिक्त हुआ हैं भाव, पीड़ा भरे हृदय के कोने,
सांत्वना मिले, जीवन का मिल जाये साथ ,
अपने कष्ट भुलाऊँ, वर लेकर जीवन जय का।।