आज मानव की मानसिकता पूरी तरह से उलझकर रह गई हैं। मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं, इसके पीछे यथार्थ कारण हैं। क्योंकि’ आज का मानव सिर्फ खुद, पत्नी और बच्चे को ही अपना मानता हैं, परिवार मानता हैं। ऐसे में उसके इन अपनो को कोई तकलीफ नहीं होना चाहिए। बाकी तो आस-परोस, स्नेही और रिश्तेदार, इन तमाम लोगों के लिए कमोवेश उसकी धारना सही नहीं रहती। मतलब कि” जिसे वो जानता हैं, वे तमाम लोग किसी न किसी परेशानी में उलझा रहे, उसकी दिली इच्छा रहती हैं।
हां, कमोवेश यही स्थिति हैं आज के मानव की। वो अपना तो भला चाहता हैं, अपनी बिल्डिंग बना लेना चाहता हैं। अपने लिए रुपये-पैसे के अंबार की ख्वाहिश रखता हैं। परंतु…दूसरे के लिए इसके विपरीत उसकी धारना रहती हैं। उसकी माने, तो उसके सभी परोसी कोई न कोई परेशानी में उलझा ही रहे। बस’ अपनी तकलीफों का रोना-रोता रहे और उसके पास आकर अपनी समस्याओं का निदान चाहे, जो कि” कभी मिलनी नहीं हैं।
वैसे तो मानव का स्वभाव ही जलन-खोर का रहा हैं। यह ऐसा इसलिए कि” इस अखिल सृष्टि में भगवान ने केवल उसे ही सामर्थ्यवान बनाया हैं। उसे ही बुद्धि प्रदान की गई हैं, जिससे वो रिश्तों को समझे, परिस्थिति को जाने। जीवन के पहलुओं का संचालन करें और अपना दायित्व निभाए। इसी तरह से अपने कर्तव्यों का संपादन करते हुए वो प्रकृति के कार्यों में सहयोग करते हुए, प्रकृति का संवर्धन करते हुए जीवन जीए। यही कारण हैं प्रकृति के द्वारा मानव का निर्माण करने का। परंतु…रजो गुण-, तमो गुण का ग्राही होने के कारण मानव अपने कर्तव्यों को भूल कर बस ईर्ष्या करने में ही अपना समय बिताता हैं।
खासकर अभी, जब मानव सभ्यता विकास के चरम पर जाने की ओर अग्रसर हैं।
परंतु….सुख-सुविधाओं का तो विकास हुआ, किन्तु” मानवीय मन की चेतना संकुचित होने लगी। उसके अंदर की संवेदना का संवर्धन तो नहीं हुआ, उलटे उसकी संवेदना धीरे-धीरे क्षीण होती हुई मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुकी हैं। जो कि” दुर्भाग्य ही कहा जाएगा जीवन चक्र के लिए।
यही कारण हैं आज का मानव दुखी हैं, अपने दुख से नहीं, अपितु औरो के सुख से। मतलब कि” उसकी माने तो, उसको छोड़कर दूसरा कोई सुखी नहीं रहे, बस। अगर दूसरे के घर सुख की रोटी खाई जाती हैं, तो उसके मन में सहज ही वेदना जागृत हो जाएगी। मन में ढ़ेरों सवाल बनने लगेंगे। वह सोचने में तल्लीन हो जाएगा, आखिर क्या कारण हैं, उसको छोड़कर कोई दूसरा सुख की निंद सोता हैं।
बस’ वह अपने विचार के घोड़े को दौड़ाने लगेगा। मन ही मन उन तमाम बिंदुओं पर गहन अध्ययन करेगा, जिस कारण से उसका परोसी सुख की रोटी चबा रहा हैं। फिर वह लूप-होल खोजने की कोशिश करेगा, जिससे परोसी के सुखी संसार में चिंगारी लगाई जा सके। फिर जो लूप-होल मिल गया तो कोशिश करेगा अपनी योजना को सिरे चढ़ाने की और जब तक वह अपने प्रयास में सफल नहीं होता, जी-जान से लगा रहेगा। तब तक लगा रहेगा, जब तक कि” परोसी के घर से धुआँ उठने न लगे।
अहो!....यह चमत्कार ही तो हैं। जो मानव के लिए चिन्हिंत पथ हैं, उसपर न चलकर वह अपनी मनमानी करने के लिए जीता हैं। उसे मालूम हैं, गलत हैं कुछ बातें, फिर भी उन्हीं बातों को करने के लिए अग्रसर होता हैं। वह उन्हीं चीजों को करता हं, जिससे उसका अहंकार पुष्ट हो। वह उन्हीं आचरण को करता हैं, जिससे औरो का नुकसान और उसे नफा मिले। फिर भी, अगर नफा नहीं मिला, तो कोई बात नहीं, कम से कम मानसिक शांति तो मिले। उसके दिल को एक अजब का सुकून मिलता हैं, औरो के जख्म को देखकर।
यह आज के मानव मन की वास्तविकता हैं। यह विकसित हो रहे परिस्थिति में संकुचित हो रहे मानवीय भावनाओं का स्वरूप हैं। आज मानव जीवन के उन निर्धारित लक्ष्यों भूल चुका हैं, जो प्रकृति ने उसके लिए निर्धारित कर रखा हैं। उसका मन माने तो, उसे अब सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करना याद रह गया हैं। बाकी तो, जीवन के लक्ष्यों का निर्वहन करने के स्थान पर वह पुजा-पाठ करता ही हैं।
अहो! यह चमत्कार ही तो हैं, मानव अब मानव नहीं रहा। बस” एक सिद्धि का मशीन बनकर रह गया हैं। क्योंकि” अगर मानव अगर वास्तविकता में हो, तो उसके अंदर मानवता के गुण भरे रहेंगे। वह जीवंत अवधारणाओं का अनुसरण करेगा। वह अपने लिए उस मार्ग को प्रशस्त करने की कोशिश करेगा, जिसपर चलकर वह जीवंत भावों के मूल्यों को स्थापित कर सके।
फिर वह निर्धारित गति से आगे बढ़ते हुए पथ पर पद चिन्हों को अंकित करें और बस चलता ही जाए। फिर प्रकृति का संवर्धन करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर ले। यही जीवन चक्र का यथार्थ हैं और इसी के लिए मानव को निरंतर ही प्रयासरत रहना चाहिए, बिना थके-बिना रुके।