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सुबह, सूर्य के प्रखर किरण के साथ ही आसमान से धूंध और कोहरे का प्रभाव घटने लगा। इसी के साथ सर्द हवा भी धीरे- धीरे मद्धम होने लगी। सुबह होते ही ठकुराईन अपने कामों को निपटाने में लग गई थी। उन्हें मालूम था, ठाकुर साहब सुबह सवेरे ही अपने कार्यालय की तरफ दौर लगा देंगे। वो बरी तेजी और तन्मयता से ठाकुर साहब के लिए लंच बाँक्स लगा रही थी। तभी ठाकुर साहब पुजा गृह से निकले। शरीर पर पूरे आँफिस के कपङे, पाँव में जूते और माथे पर तिलक। उनको इस हाल में पूजा गृह से निकलते देख कर ठकुरानी अपने कान दोनों हाथ से पकड़ कर शिव-शिव बोल उठी। तो ठाकुर साहब मुस्करा परे,वो ठकुरानी के हरकत का मंतव्य समझ गए थे।

फिर वो गंभीर होकर बोले, मानों कि अंजान हो। क्या हुआ ठकुराईन, बहुत शिव-शिव बोलकर कान पकड़ रही हो।

बस ठाकुर साहब का टोकना था कि ठकुराईन उवल पड़ी। देखो जी,इतने नास्तिक भी ना बनों, मैं ने कितनी बार कहा है, पुजा गृह में जूते उतार कर जाओ। ठाकुर जी की सेवा करो और उनका आशीर्वाद पाओ। लेकिन एक आप हो, सुधरने का नाम ही नहीं लेते। अजी, आपका भगवान से क्या दुश्मनी है, जो आप ऐसी हरकत करते हो?

अरी भोली ठकुराईन,…ठाकुर जी तो भक्ति से रीझते है। उन्हें जूते-चप्पल या नंगे पैरों से कोई मतलब नहीं। ठाकुर साहब गंभीर होकर बोले,फिर मुस्करा पड़े।

उनका मुस्कराना था कि ठकुराइन के तन- बदन में आग लग गई। वो अपने कान पकड़ कर फिर से शिव-शिव बोली। बस ठाकुर साहब समझ गए, वे थोरी देर और रूके,तो घर में महाभारत होना तय है। वे आगे बढे, टीफीन उठाया और तेजी से घर से निकल गए। इधर ठकुराइन ठाकुर साहब के जाने के बाद भी बड़बड़ाती रही। तभी वहां आरव आ गया, शायद वो ठाकुर साहब के जाने का ही इन्तजार कर रहा था। उसे देखते ही ठकुराइन ममता से भर गई। लेकिन आरव तो उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दे रहा था। वो तेजी से गेट के बाहर निकल गया। ठकुराइन आश्चर्य से उसे बाहर जाते देखती रही।

हालांकि ठकुराइन का दिल तो बहुत किया। वो अपने लाडले को रोक ले,उसे रोक कर बोले, बेटा इतनी अहली सुबह कहां जा रहा है?....बेटा खैर तुमको जाना है तो जा, परंतु नास्ता कर के तो जा। पर ठकुराइन इतनी हिम्मत नहीं दिखा सकी। उन्हें तो इसी बात का डर लगा रहता था, वो अगर ज्यादा टोक-टाक करेगी। तो उनका लाडला कहीं नाराज ना हो जाए। बस आरव उनके इस कमजोरी को जानता था,इसलिए ठाकुर साहब के जाते ही वो परम स्वतंत्र हो जाता था।

आज भी ठाकुर साहब के निकलते ही घर से निकला और सीधे वैभव के घर के सामने पहुंच गया और गले से अजीब सी परंतु धीमी आवाज निकाली। वो आवाज ऐसी थी कि” तुरंत ही प्रतिकृया हुई। दरवाजा खुला और वैभव निकल कर बाहर आ गया। फिर क्या था,दोनों सङक पर चलने लगे और चलते-चलते गांव के बाहर आ गये। इस बीच ना तो आरव ही कुछ बोला और ना ही वैभव ने ही अपनी जवान खोली। अमुमन तो वे दोनों जब भी मिलते थे,उछल कूद और मस्ती में लग जाते थे। लेकिन आज ऐसा कुछ भी नहीं था। कोई ऐसी बात तो जरूर थी, जो समुन्द्र के लहरों का मौजा बिल्कुल खामोश सा था। गाँव से बाहर आते ही वैभव ने आरव का हाथ पकड़ा और खेत की तरफ ले गया।

सुनसान जगह,दूर-दूर तक किसी की परछाँई नहीं, हां पशु-पंछी और चारो तरफ हरियाली जरूर थी। तब वैभव ने उसकी आँखों में झांकते हुए पुछा। क्या बात है आरव, आजकल तुम काफी परेशान-परेशान से रहते हो?....वैभव का इतना बोलना था कि” आरव उससे लिपट गया और फफक-फफक कर रोने लगा। वैभव ने उसे चुप करवाने की कोई कोशिश नहीं की।

जब रो-रो कर आरव का दिल खाली हो गया तो वो वैभव से अलग हुआ और अपने आँसू पोछ डाले। फिर एक पल को वो खुद को सामान्य करता रहा, उसके बाद वो धीरे से बोला। अमा यार,मुझे उस मैडम की बहुत याद आ रही है, समझ ही नहीं आता, मैं क्या करूं?

अरे तो!....इसमें रोने बाली बात क्या है?....तू एक बात बता, मैडम के फोन नंबर तो है ना?....वैभव उत्साहित होकर बोला।

हां नंबर तो है।… आरव धीमा बोला।

तो एक काम करना, रात को मैडम को काँल लगाना और अपने दिल की सारी बात बता देना।

सुनते ही आरव खुशी से उछल पड़ा और उसने आवेस में वैभव को गले से लगा लिया। इसके बाद दोनों के बीच अलक-मलक की बातें होती रही,समय का पहिया घुमता रहा।

* * * *

रात हो चली थी, ठंढ का मौसम होने के कारण पूरा का पूरा गांव नींद की आगोश में समा चुका था। नि:शब्दता चारो ओर फैली हुई थी। लेकिन उस कमरे में सब शांत नहीं था। कारण, आरव सोया नहीं था।नींद उसके आँखों से कोसो दूर थी। थी तो सिर्फ बेचैनी,जो उसे तड़पा रही थी। वो समझ ही नहीं पा रहा था कि” उसे क्या हो रहा है। उसे जगी जो है, वो कैसी प्यास है?...वो जीवन के अँधकार रूपी भँवर में डूबता जा रहा है,तो क्यों और किसलिए?...वो आज किस दोराहे पर आकर खड़ा हो गया है?.... आखिर वो मैडम से मिला ही क्यों था?... जिसके एवज में उसे इश्क की ऐसी बिमारी लगी।

नहीं-नहीं यह इश्क की बिमारी नहीं हो सकती है। क्योंकि इश्क में तड़प तो होता है, धड़कन भी धड़कता है,मिलने की बेकरारियाँ भी होती है।….लेकिन इश्क पाक-साफ होता है, शीशे की तरह पारदर्शी होता है। इश्क में दीन-ए-ईमान होता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर इश्क दो आत्माओं का मिलन होता है। लेकिन नहीं,उसकी चाहत इश्क तो नहीं है। उसे अच्छे से पता है, ऐसा नहीं है। तभी तो उसके तन-वदन में आग सी लगी हुई है। ऐसा लग रहा है, वो प्यासा है,उसे बहुत जोरों की प्यास लगी है। हलांकि वो कितनी ही बार पानी पी चुका है,लेकिन महबूबा के होंठों से बुझने बाली प्यास आखिर पानी से बुझे तो बुझे कैसे?....मन है कि” अश्व की भांति वेगवान हो चुके है।

वो इन्ही सारी बातों को सोचता,तौलता करवटें पर करवटें बदल रहा था। लेकिन उसके मन को शांति नहीं मिल रही थी। वो अपनी परेशानियों को खतम कर देना चाहता था। लेकिन वो तो बेचैनी के रूप में बेलगाम घोङे की तरह बढती ही जा रही थी। आखिरकार उसका हिम्मत जबाव दे गया, वो बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया और सधे कदमों से कमरे से निकल कर सिढियों से होता हुआ छत पर चला आया। जब खुले वातावरण की सर्द-सर्द हवा ने उसके वदन को स्पर्स किया, तो एक पल को उसे शांति की अनुभूति हुई। बस फिर क्या था, वो बेवजह ही छत पर चहलकदमी करने लगा। मानोंकि” वो छत की जमीन को माप कर समस्या का समाधान ढूँढ लेना चाहता हो, पर वो अपने इस प्रयास में भी असफल हुआ।

आखिरकार वो अपने दिल की बेचैनी के आगे हार गया। दिल के हाथों मजबूर हो गया वो और उसने अपनी मोबाईल निकाल ली। मन के किसी कोने में कशमकश तो था ही, पर उसने मैडम को काँल मिला दिया। पहली ही घंटी गयी,और काँल उठा लिया गया, मानो उसके काँल का ही उधर भी इंतजार था। काँल उठते ही आरव से नहीं रहा गया,वो पूरी तरह टूट गया। वो अपनी वेदनाओं को, अपने संवेग को बतलाने लगा। लेकिन उधर से बिल्कुल चुप्पी थी, विल्कुल शांत, ऐसा लग रहा था, उधर से उसकी बातों को बहुत ही गंभीरता से सुना जा रहा हो। जब वो अपनी बातों को खतम कर चुका, तो उधर से उसे शहर आने का बुलाबा दिया गया, जिसे वो सहर्ष मान लिया।

इसके बाद दोनों में काफी देर तक बातें होती रही,अलक-मलक की,इधर-उधर की,नयी और पुरानी। आरव का तो दिल ही नहीं भर रहा था,पर उधर से बरे प्यार से काँल डिस्कनैक्ट कर दिया गया।उसके बाद तो आरव का मन-मयूरा खुशी से झुम उठा,थोरे पल पहले की वेदना हर्ष और उल्हास में परिवर्तित हो चुके थेे।उसका जी कर रहा था कि वो खुशी से झूम उठे,पर किसके साथ।उसकी इच्छा तो हुई की वो काँल लगा कर वैभव को सारी बात बताएँ,लेकिन नहीं-नहीं,अभी वो सो रहा होगा,ऐसा सोच कर उसने इस विचार को त्याग दिया और छत से निचे आकर बिस्तर में दुबक गया।

* * * *

सुबह-सुबह ही ठाकुर विला में भागदौड़ सा था।

आज ठाकुर साहब रिस्ते में जाने का मूड बना चुके थे और ठकुराइन उसी की तैयारी में लगी हुई थी। ठाकुर साहब नित्य की भांति उठ कर पुजा-पाठ में लग गए थे। इधर ठकुराइन खुश हो रही थी, उसे अच्छी तरह मालूम था, आरव कहीं जाने के प्रोग्राम पर कितना खुश होता था। वो मन ही मन इठला रही थी, उसका आरव है ना,इतना बड़ा हो गया, लेकिन उसकी बचपना नहीं गई।

ऐसे में जब आरव की आँख खुली, तो उसने घड़ी की तरफ नजर डाली। सुबह के छ: बज गये थे, बस वो तेजी से बिस्तर से उतरा और वाथरूम में प्रवेश कर गया। समय की सुई आगे की ओर बढती रही। वो थोरी देर बाद ही निकला फ्रेश होकर,बिल्कुल तरोताजा। वो अभी खुद को बिल्कुल हल्का महसूस कर रहा था। उसके बाद उसने अपनी काँलेज बैग उठाई और रूम से बाहर निकल आया। डायनिंग हाँल में आते ही उसके कदम ठिठक कर रूक गये। कारण, उसकी मां उसके सामने खड़ी थी और आश्चर्य से उसको देखे जा रही थी।

सुनीता देवी को आश्चर्य चकित अपनी ओर देखते पाकर आरव शकपका गया। वो हिम्मत करके बस इतना ही बोला। क्या हुआ मां,आप मुझे इस तरह क्यों देख रही है?....

मैं देख रही हूं, तू सुबह-सुबह बीना बतलाये कहां जा रहा है?....सुनीता देवी गंभीर होकर बोली।

नहीं मां,ऐसी कोई बात नहीं है,वो क्या है ना, काँलेज में जरूरी काम है, इसलिए पटना जाना होगा। आरव जल्दी- जल्दी में बोला।

लेकिन बेटा,तुम्हारे बाबुजी ने तो साथ मिलकर घूमने जाने का प्रोग्राम बनाया था, ऐसे में तू। ठकुराइन बोल रही थी, तभी बीच में ही रूक गयी।

कारण था, ठाकुर साहब वहां पहुंच चुके थे और वे अपनी रौबदार आवाज में बोल चुके थे। नहीं ठकुराइन नहीं, आप उसे जाने से मत रोकिए। घूमने-फिरने का प्रोग्राम तो फिर हो जाएगा, अभी तो इसकी पढाई जरूरी है।

ठाकुर साहब का इतना बोलना था, आरव मन ही मन अपने पिता को धन्यवाद देता हुआ बाहर की ओर निकल गया। ठकुराइन मन मसोस कर रह गयी। हलांकि वो विरोध करना चाहती थी, लेकिन कर ना सकी। वो समझ चुकी थी, अब घूमने का प्लान गया खटाई लेने। जब तक वो कुछ भी समझती,ठाकुर साहब लंच बाँक्स उठा कर बाहर निकल गए। रह गयी तो सिर्फ वो, इतने बड़े घर में बिल्कुल अकेली।

इधर आरव घर से निकला और सीधा वैभव के पास पहुंच गया। वैभव पहले से ही तैयार होकर गली में उसका इंतजार कर रहा था। फिर दोनों ही गांव के चौक की तरफ रवाना हो गए। सुबह का समय होने के कारण गांव बालों की आवा-जाही नहीं के बराबर थी। ऐसे भी सर्दी के मौसम में गांव में लोग देर सुबह तक बिस्तर में दुबके रहते है। खैर वे दोनों चलते-चलते चौक पर पहुंच गए, तभी पटना जाने बाली बस आ गयी। आरव तो शहर जाने को आतूर था। उसने हाथों द्वारा गाड़ी रोकने का इशारा किया। बस रूकी,तो दोनों चढ गए, बस फिर अपने रफ्तार से आगे बढ गई। बस में दोनों ने खिड़की साईड की खाली शीट देखी, तो बैठ गए। बस कंडक्टर ने उनका टिकट काटा और दूसरी सवारियों में उलझ गया।

बस में चढने के साथ ही दोनों के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वैभव तो इसलिए खुश हो रहा था कि” आज उसकी मनोकामना पूरी होगी। आज तक वो जो रील लाईफ में देखता आया था, आज वो रियल लाईफ में होने बाली थी। इन बातों को लेकर वो काफी एक्साइटेड था। जबकि आरव की हालत उससे जूदा थी। आरव तो जिन्दगी के उन पल को जी चुका था। उसने जीवन के मनचाहे फल का रसाश्वादन कर लिया था। अभी तक उसके सांसों में मैडम के शरीर से उठती हुई भीनी-भीनी सी सुगन्ध समाई हुई थी। वो तो मैडम से मिलकर ही जान पाया था, जिन्दगी का मजा आखिर जीने में है। खुलकर जीने में, जहां सारी सुख-सुविधाओं के साथ शारीरिक सुख भी हो।

दोनों ही अपने-अपने अनुसार कल्पना के पंखों पर सवार होकर सपनों की दुनिया में तैर रहे थे। सच कहा जाता है ना कि” कम-उम्र की ख्वाहिश एक शैलाव के समान होती है, जिसमें इंसान अपने भले-बुरे का मुल्यांकन नहीं कर पाता। वो सामाजिक रिति रिवाजों से बंधा नहीं होता और हर-पल सामाजिक नियमों को तोड़ने पर उद्धत रहता है। वो अपने अंदर शैलाव को समझ ही नहीं पाता कि” यह कैसा है?....इसका प्रकार कैसा है और यह सही दिशा में प्रवाहित हो भी रहा है या नहीं?....बस यंग जनरेसन की मानसिक कृयाएँ एक तरंग उत्सर्जित करती है कि” किसी भी हालात में जो भा जाए,उसे पा लेना, चाहे उसका परिणाम जो भी हो। बस यही हालत दोनों की थी, दोनों ही आने बाले पल की कल्पना कर के उत्साहित हो रहे थे और कल्पना की दुनिया में गोते लगाते-लगाते दोनों ही सो गए। बिल्कुल ही सब से वेफिक्र होकर।

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टन-टन-टन-टन।

आवाज हुई और गाड़ी पटना बस स्टैंण्ड में रूक गई। गाड़ी के रूकते ही झटका लगा और दोनों की नींद खुल गई। उन दोनों ने कलाईं घङी की तरफ नजर डाला,सुबह के नौ बज चुके थे। तब वैभव ने अपनी नजर आरव के चेहरे पर गड़ा दी, मानो पुछ रहा हो, अब क्या करना है?....आरव उसका मंतव्य समझ चुका था। वो धीरे से बोला। चलो सबसे पहले काँलेज पर चलते है, वही से मैडम से बातें करेंगे और मैडम जैसा बोलेगी, वैसा करेंगे।

वैभव आरव की बातों से सहमत दिखा। फिर दोनों बस से उतर गए और सङक की तरफ बढ गए। हालांकि कितने ही आँटोवाले ने प्रयास किया, वे दोनों उनकी गाड़ी में बैठ जाए। लेकिन दोनों को नहीं बैठना था तो नहीं बैठे। आखिर पटना उनका जाना-पहचाना अपना सा शहर था। वो अपने परिवार वालों के साथ कितनी ही बार यहां आ चुके थे। यहां के अनेको गलियों की छान मार दी थी। वैसे भी उनका काँलेज बस स्टैण्ड से ज्यादा दूर ना था और काँलेज खुलने का समय भी नहीं हुआ था। ऐसे में दोनों ने ही निर्णय किया, वे काँलेज तक पैदल ही जाएँगे।

हालांकि सुबह का समय होने के कारण मौसम सुहावना सा लग रहा था। थोरा-थोरा सर्द परंतु सूर्य के गर्म किरणों का एहसास। वे दोनों काँलेज के नजदीक पहुँच चुके थे। तभी वैभव ने उसे याद दिलाया, मैडम को काँल भी करना है। वे दोनों काँलेज गेट के सामने चाय के गल्ले पर रूके और फिर आरव ने मैडम को फोन मिलाया।

* * * *

शहर के बीचोबीच वो बंगला, था तो खास ही पर इतना भी खास नहीं। दीप्तेश अपने ड्राईंग रूम में बैठा लैपटाप से छेड़छाड़ कर रहा था और उसके होंठ गोल वृत में घुम कर शीटी बजा रहे थे। यूं तो वो अब बिजनैस मैन बन चुका था, पर कहने के लिये नाम मात्र को। वो तो मनोरमा देवी की कृपा दृष्टि थी, वो बिजनैस मैन बन गया था। वरना तो उस में भैंस बेचने जितनी भी अक्कल ना थी, ना ही धैर्य और मेहनत ही। आखिर वो मनोरमा देवी का छोटा भाई था और इसी का उसे फायदा मिल रहा था।

इस वक्त भी वो कंप्यमटर में उलझा हुआ जरूर था, किन्तु रात की चढी उतरी नहीं थी। वो अभी भी रात में आई हुई हसीना के ख्वाब में खोया हुआ था। अमीरी के सोहबत में उसमें चाहे और कुछ चेंज हुआ हो या नहीं, परंतु उसे रात को शराब एवं शबाब लेने की आदत जरूर लग गई थी। अभी भी वो रात बाली बातों में उलझा हुआ था, तभी तो उसके होंठ गोल होकर शीटी बजा रहे थे। वो शायद ना जाने कब तक अपनी ख्वाबों की दुनिया में खोया रहता, अगर वहां मनोरमा देवी ना आ जाती। वो अपनी दुनिया में ही खोया हुआ था कि” मनोरमा देवी ने वहां कदम रखा और वो दीप्तेश के हालात को देख कर ही समझ गई कि” वो अभी फिलहाल मन ही मन खयाली पुलाव को धीरे-धीरे पका रहा है।

दीप्तेश!......क्या हुआ,कहां बिजी हो?....मनोरमा देवी आहिस्ता से बोली और उसके सामने बाली कुर्सी पर बैठ गई। हालांकि उसके आने का दीप्तेश पर मानो कोई प्रभाव ना हुआ हो। वो पुर्ववत अपने हरकतों में तल्लीन रहा। जो मनोरमा देवी को नागवार गुजरा। वो तैश में आकर बोली। क्या हुआ दीप्तेश ? आखिर कौन से दुनिया में खोये हो?....मैं तुम्हें कब से आवाज दे रही हूं, लेकिन तुम अनसुना कर रहे हो।

अ-अ-आँ!.....नहीं-नही। दीप्तेश एकबारगी को चौका,फिर खुद को सामान्य करता हुआ बोला। नहीं दीदी!....मैं कहीं खोया नहीं था, बल्कि किसी काम में बीजी था। सच कहूं तो दीदी,मुझे पता ही नहीं चला, आप कब आई।

शटअ्प दीप्तेश!....बहाने भी बनाओ तो ढंग के। यूं अनाप- सनाप बोलने से क्या होता है?...वैसे मुझे अच्छी तरह मालूम है, तुम कितने काबील हो,जो किसी काम में बीजी हो। मनोरमा देवी विफड़ कर बोली। इस वक्त वो काफी गुस्से में दिख रही थी।

मनोरमा देवी के चेहरे पर नजर पड़ते ही दीप्तेश के देवता कूच कर गए। वो तो उनसे इतना डरता था कि” पुछो मत, ऐसे में मनोरमा देवी का गुस्सा। जब वो गुस्से में होती थी, तो किसी रिस्ते- नाते का लिहाज नहीं करती थी। ऐसे में उसके जुबान से सिर्फ जी निकला। उसके हालत पर मनोरमा देवी खिलखिला कर हंस पड़ी। उन्हें बहुत अच्छा लगता था, जब कोई उनकी जी-हुजूरी करे,उनके कृपादृष्टि का याचक हो और उनसे भय खाए।

फिर वो खुद को नियंत्रित करती हुई बोली। तुम्हें मालुम है ना दीप्तेश कि” शिकार शहर में आ चुका है?...

वो तो मालूम है दीदी!....आपने ही तो रात में बतलाया था। दीप्तेश ने छोटा सा उत्तर दिया।

बस इतना ही मालूम है या और भी कुछ मालूम है?....मनोरमा देवी शब्दों को चबा कर बोली।

मालूम है ना दीदी!....मुझे वो सारे निर्देश जो आपने दिए थे, एक-एक शब्द याद है। बोलते-बोलते दीप्तेश रूक सा गया। जबकि मनोरमा देवी के चेहरे के भावों में परिवर्तण हुआ। उनके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था, दीप्तेश की बातें उन्हें नागवार गुजरी है। लेकिन दूसरे ही पल वो संभल गयी और अपने शब्दों में मिठाश लपेट कर बोली। दीप्तेश तुम्हें मालूम है ना कि आज क्या करना है?

हां दीदी,मुझे याद है, शिकार के आते ही उसे दबोच लेना है। दीप्तेश बोला।

अरे नहीं रे!...तुम्हें ऐसा नहीं करना है। तुम्हें तो बस शिकार के सामने चारा फेकना है और उसके बाद हम मौन होकर परी- दृष्य को देखेंगे। मनोरमा देवी धीरे से बोली, तभी उनका मोबाईल वीप करने लगा। वो तुरंत ही गैलरी के तरफ बढ गई। जबकि दीप्तेश मुर्तवत बैठा रहा। समय को अपने रफ्तार से बढना था,सो आगे बढ रही थी। थोरी देर बाद जब मनोरमा देवी अपने काँल को निपटा कर लौटी, तो उनके चेहरे पर विशेष चमक थी।

वो दीप्तेश की ओर मुखातिब होकर सर्द लहजे में बोली। दीप्तेश!.....हमारा शिकार शाम सात बजे बंगले पर आ रहा है। उसने अभी फोन किया था और मैं तुमसे सिर्फ इतना बोलुंगी, ध्यान रखना,चुक ना होने पाए। नहीं तो तुम जानते हो, मैं क्या कर सकती हूं। बोलने के बाद वो तीप्तेश के करीब बैठ गई, जबकि दीप्तेश के कंठ से बस इतना निकला, ज-ज-जी दीदी। इसके बाद दोनों ही बैठ कर आगे की रणनीति बनाने लगे।

* * * *

दिन के ग्यारह बज चुके थे। यूं तो आँफिस टाईम होने के कारण पटना की सड़कों पर ज्यादा चहल-पहल नहीं थी। अभी सङक पर वही लोग आपाधापी कर रहे थे, जो दूर- दराज से आए थे और अपने कार्य को निपटाने की जलदी में थे। इस वक्त उस फार्महाऊस में पुर्णत: शांति थी। फार्महाऊस का गेट अंदर से लाँक्ड था। बाहर से देखने पर ऐसा ही प्रतीत हो रहा था, वो अभी सूनसान है और वहां परिंदे भी नहीं है पर मारने के लिए। परंतु ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं था। अंदर हाँल में वे दोनों लङके मौजूद थे और इस वक्त हाँल में शोफे पर बैठे हुए थे।

उन दोनों के शांत और शपाट चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे दोनों बिल्कुल ही निश्चिंत है। परंतु ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। वे दोनों इस वक्त शांत होकर किसी समस्या का समाधान के निष्कर्श पर पहुंचना चाहते थे। उनके हृदय का तार अंदोलीत था आने बाले पल को लेकर और यही कारण भी था, वे शांत थे। जैसे समुन्द्र में ज्वार-भाटा आने से पूर्व पुर्णत: शांति छाई रहती है, वैसे ही उनके चेहरे पर भी था। वे ससंकित थे आने बाले पल को लेकर और आखिर हो भी क्यों नहीं। उनकी एक छोटी सी भूल एक भयावह परिणाम को जन्म दे सकती थी और वे ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं चाहते थे। यही कारण भी था, वे दोनों शांत होकर योजना के एक-एक पहलू पर गंभीरता से बिचार कर रहे थे। समय सने-सने आगे की ओर बढता जा रहा था और बढती जा रही थी उन दोनों के चेहरे पर छाई गंभीरता। आखिरकार एक लङके से नहीं रहा गया, वो धीरे से बोल पड़ा। क्यों छोटे क्या विचार है, एक-एक कप ब्लेक काँफी हो जाए।

क्यों नहीं-क्यों नहीं, जरूर होना चाहिए, एक कप काँफी शायद हमें बहुत राहत पहुंचाएगी। दूसरा लङका मुस्करा कर बोला, उसके बाद वो अँगङाईयां लेने लगा। उसकी बातें सुन कर पहले बाले लङके के चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी। वो शोफे से उठा और किचन की ओर बढ गया। उसके वहां से जाते ही दूसरे लङके ने अपनी बैग खोली और लैप-टाँप निकाल कर उसपर उलझ गया। इस वक्त उसका चेहरा बिल्कुल सपाट था और वो तेजी से कंप्युटर पर कुछ टाईप कर रहा था। उसके चेहरे के भावों से ऐसा प्रतीत हो रहा था, अभी जो वो कार्य कर रहा है,वो काफी महत्वपुर्ण है। तभी तो वो टाईप करने के बाद उन शब्दों को पढता था, उसके बाद ही आगे लिखता था।

वो अपने कार्य में इतना तल्लीन था, ऐसे में उसे पता ही नहीं चला, पहला लङका कब काफी का मग ले आया और कब उसके बगल में बैठ गया। उसको इतना बीजी देख कर पहले लङके के होंठों पर फिर मुस्कान आ गई। लेकिन वो अपने चेहरे के भाव को छुपाते हुए बोला । छोटे!....काँफी आ चुकी है,अब पी भी ले।

अ-अ-आँ!....दूसरा लङका आवाज सुन कर चौंका, फिर पलट कर देखा और तुरंत ही सामान्य हो गया। लेकिन बोला कुछ भी नहीं। इसके बाद दोनों काफी का मग उठा कर चुश्की लेने लगे। लेकिन इस बीच वहां चुप्पी छाई रही। अभी वहां पर ऐसी शांति छाई हुई थी कि” धोखे से सुई भी गीड़ जाए ना, तो जोङ की आवाज हो। इस बीच पहला लङका अपनी मग खतम कर चुका था और उसने मग को तिपाई पर टिका दिया था। इसके बाद वो दूसरे लङके की ओर मुखातिब हुआ । क्या बात है छोटे?...आज मैं तुम्हें उदिग्न सा देख रहा हूं।

नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। मै तस बस ऐसे ही, तुम तो बस ऐसे ही बोलते हो। दूसरे लङके ने बात टालने के उद्धेश्य से बोला और काँफी का मग खाली करके तिपाई पर टीका दिया। जबकि पहला लङका थोड़ा उत्तेजित होकर बोला। देख छोटे,मैं समझता हूं, हम दोनों अभी ऐसे दो-राहें पर खङे है,जहां उदिग्न होना बड़ी बात नहीं। पर्तु हमें अपने काम पर फोकश करना है कि” हमसे कोई गलती ना हो और हमारा शिकार हम से बच कर ना जा पाए। इसके लिये हमें कार्य करना होगा, एवं मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, ऐसा ही होगा।

हां तुम ठीक बोल रहे हो, हमारी सफलता का राज हमारे काम करने में छिपा है। दूसरा लङका गंभीर होकर बोला।

वो तो है!....पहले लङके ने उसकी बातों का समर्थन किया। तभी दूसरा लङका बोला। तुम्हें मालूम है, अपना शिकार शहर में आ चुका है। सुन कर पहले लङके ने सहमति मे सिर हिलाई, लेकिन बोला कुछ नहीं। तभी दोनों की नजर खिड़की से बाहर गेट की तरफ गई। जहां से अभी-अभी ब्लैक रंग की इनोवा ने प्रवेश किया था। गाड़ी को अंदर आते देख कर दोनों की बांछे खिल गई, दोनों शोफे से उठे और बाहर की तरफ बढ गए।

* * * *

शाम के छ: बजने को आ गये थे। सर्द मौसम होने के कारण सूर्यदेव अश्ताँचल में कब के चले गए थे और पूरा शहर रोशनी में नहा कर दुल्हन की तरह सज गया था। सड़क पर गाड़ियों की अवर-जवर बढ गई थी। ऐसे में उस चाय के दुकान पर आरव और वैभव चाय की चुस्की ले रहे थे। अमुमन तो शहर में भागदौड़ का बोलबाला रहता है। हरेक इंसान को अपने मंजिल पर पहुंचने की जल्दी रहती है। पर दोनों ही टाईम काटने के उद्धेश्य से यहां बैठे थे और दोनों को ही इंतजार था, कब शाम के सात कब बजे। हलांकि आरव तो वेफिक्र नजर आ रहा था, लेकिन वैभव चींतित था। उसके चेहरे से प्रतीत हो रहा था, वो अंदर से काफी भयभीत है, आने बाले पल को लेकर।

समय अपनी रफ्तार में बढती जा रही थी, उसी हिसाब से वैभव की बेचैनी भी। आखिरकार वैभव से ना रहा गया और वो गंम्भीर होकर बोल पड़ा। देखो आरव!....हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है ना कि हम लोग गलत करने जा रहे है और किसी मुसीबत में फंसने बाले है। मेरी बात मानों तो आज का प्लान कैंसल कर दो और चलते है तुम्हारे मौसा जी के घर पर।

सुन कर आरव को झटका सा लगा। वो समझ गया, वैभव आने बाले पल को लेकर शशंकित हो चुका है। ऐसे में अगर वो पीछे हट गया ना, तो उसके सारे प्लान चौपट हो जाएंगे। अगर धोखे से भी उसके मौसा जी को मालुम चला ना, वो शहर में क्या करने आया है। तो वो उसका जीना हराम कर देंगे। उसके मौसाजी शीटी एस.पी. है और वो अपने मौसा जी से डरता है, बहुत डरता है। आरव मन ही मन काफी भयभीत हो चुका था। परंतु उसने चेहरे पर मुस्कान को सजाया और वैभव को बांहों में दबोचता हुआ बोला। अमा यार!....तू भी ना,एक नंबर का डरपोक है। अरे यार करना क्या है, मजे लुटेंगे और मौसाजी के पास चले जाएंगे।

नहीं-नहीं आरव!....मेरी बात मानों तो आज का प्लान कैंसल करते है। वैभव आशंकित होकर बोला।

नहीं यार!....तू भी ना एक नंबर का फट्टू है। मैडम ने सात बजे बुलाया है, वहां चलेंगे, थोड़ा मौज-मजे लेंगे और वापस चले आएंगे। आरव अजीजी करता हुआ बोला।

एक बार फिर से सोच ले आरव!....मेरे विचार से हमें आज नहीं जाना चाहिए। पहले शहर में रह कर मैडम के बारे में पता करते है, फिर चलेंगे। कहीं ऐसा ना हो, हम मौज-मजे लेने जाए और उल्टा हमें ही लेने के देने पर जाए। वैभव बोलने के बाद गंभीर हो गया।

सुनकर आरव ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया और उसका हाथ पकड़ कर खड़ा हो गया । चाय के पैसे चुकाए और सड़क पर आ गया। वैभव समझ चुका था, उसके सिर पर मैडम का भूत सवार है। अब तो जो भी होगा,भगवान ही मालिक है। वो मन ही मन देवताओं की अराधना करने लगा, जबकि आरव तो अपनी ही धून में था। उसे तो जैसे किसी बात की परवाह नहीं थी। वो एक पल रूक कर वैभव के चेहरे को देखना भी गवारा नहीं किया। सड़क पर आते ही उसने एक टेक्सी बाले को इशारा किया। टेक्सी रूकी और उसमें वो वैभव को खींचता हुआ चढ गया और दरवाजा बंद कर दिया।

तब ड्राईवर ने उसकी तरफ देखा!....मानों कि पुछ रहा हो "कहां चलना है साहब। आरव ड्राईवर का मंतव्य समझ गया और मुस्करा कर बोला। चौधरी लक्ष्मी निवास ले लो भईया। ड्रायवर तो मानों इसी बात का इंतजार कर रहा था। तभी तो गाड़ी को गेयर में डाला और सड़क के शीने पर दौड़ा दी। इस बीच दोनों ही चुप थे, हां ये बात जरूर थी कि आरव के आँखों में वासना और बेचैनी के डोरे तैर रहे थे, तो वैभव के आँखों में भय के। समय अपनी रफ्तार से भागती रही और थोड़ी ही देर बाद गाङी रिहायसी इलाके में थी।

अरे साहबान!....उतरो भी,आपका ठिकाना आ गया। ड्रायवर एक भव्य बंगला के सामने गाड़ी रोकता हुआ बोला। सुन कर दोनों पर तेज प्रतिकृया हुई, लेकिन उन्होंने ड्राँईवर पर इसका इजहार नहीं होने दिया। वे दोनों गाड़ी से उतरे और आरव ड्रायवर के करीब आकर बोला। आपके कितने पैसे हुये अंकल?....

सौ रुपयें!...लेकिन भाई आपलोग शहर में नये लगते हो?.....ड्रायवर गंभीर होकर बोला।

नहीं-नहीं अंकल!...वैसे छोड़ो इन बातों को और यह अपना किराया पकड़ो। आरव तनीक रूष्ट होकर बोला।

उसकी बातों से ड्राईवर समझ गया, उस लङके को उसकी बातें नागवार गुजरी है। अतएब वो मुस्कराया और रूपये लेकर धीमे से बोला। वैसे बोलूं भाया!... अपना इरादा नहीं किसी के फटे में टांग अङाने का, वो तो भले घर के लगते हो इसलिए बोल दिया। यह शहर है भाया, यहां अपनी परछाँई भी अपनी नहीं होती, आगे तुम्हारी मर्जी। इतना बोलकर ड्रायवर ने गाड़ी मोड़ कर वापस सड़क पर दौड़ा दिया और थोड़े ही पल बाद दोनों के नजर से ओझल हो गयी। ड्राईवर की बातों ने वैभव के मस्तिस्क पर गहरा अशर किया था। वो भयवीत होकर एक बार फिर से आरव को समझाने लगा। लेकिन आरव पर उसकी बातों का कोई अशर नहीं हुआ। वो वैभव के हाथों को पकड़ कर लगभग खींचता हुआ बंगले के अंदर ले गया।

गार्डण की लंबी क्यारियों को पार कर जब वे दोनों बंगले के मुख्यद्वार पर पहुंचे। तब तक वैभव का हिम्मत जबाव दे चुका था। उसने आरव के हाथों से अपना हाथ छुरा लिया था और वो ढृढ लहजे मे बोला। देख आरव!...तुमको अंदर जाना है तो जा, मैं तेरे साथ अंदर नहीं आ सकता। इतनी बातें सुनते ही आरव की भौंहे तन गई। वो हिकारत भरी नजरों से वैभव को देखा और मेन गेट पर हाथ रखा। हाथ रखना था, मुख्यद्वार खुल गया और आरव अंदर प्रवेश कर गया। अंदर वो बड़ा सा हाँल था, जहां सुख सुविधा की तमाम बस्तुयें करीने से सजाकर रखी हुई थी। आरव ने जब वहां की सजावट और भव्यता को देखा, तो उसकी आँखे खुली की खुली रह गयी। आखिर यह बंगला भव्य हो भी क्यों नहीं, शहर के जाने-माने व्यपारी लक्ष्मी निवास चौधरी की हवेली जो ठहरी।

आरव आश्चर्य चकित होकर वहां की एक- एक बस्तु को देख रहा था। विदेशी लाईटों की रोशनी में वो हाल स्वर्ग सी प्रतीत हो रही थी। तभी उसके विचारों को तेज झटका लगा और लगे भी क्यों नहीं। उसके सामने संगेमरमर सी तराशी मुरत तरूणी बिल्कुल नग्ण अवस्था में उसके सामने खङी थी। वो लक्ष्मी निवास की एकलौती पुत्री श्रधा थी। सुन्दरता की बेमिसाल मुरत, उम्र उन्नीस के करीब, कटीले नयन-नक्स और शलीके से गढा बदन। कुल मिला कर बेहतरीन हुश्न की मलिका, लेकिन अभी वो हैवी नशे के डोज में थी और आरव को मुस्करा कर देख रही थी।

जनाब!...यह दिल ही तो है,छोटी सी बात को लेकर बेकरार हो जाता है। इसमें हसरतों की बारिशें जमा रहती है और मौका मिलते ही बरस परने को बेताव हो जाती है। यह जिस्म का आकर्षण ना,बड़े-बड़े मुनियों की तपस्या को डिगा चुका है, तो आरव किस खेत की मुली था। उसके भी हृदय सागर में अरमान अंगङाईंया लेने लगा। वो आगे बढा, हौसला किया और उस लङकी को बांहों में भर लिया। उसके अंदर जज्बात हिलोरे लेने लगे और उसने अपना बस्त्र उतारा और लङकी पर छाता चला गया। बड़े अजीब हालात और शर्मनाक परिस्थिति थी, एक लङका और एक लङकी पुर्णत:आदम अवस्था में एक दूसरे में समाये हुए।

तभी वहां की लाईट चली गयी। वहां घुप्प अँधेरा छा गया,एक पल को आरव विचलित हुआ। फिर वो संभला और अपने कार्य में जुट गया। तभी वो हाँल रोशनी से जगमगा उठा। फिर क्या था,आरव के होश उड़ गए और उड़े भी क्यों नहीं। सामने हाँल में पुलिस फोर्स की पूरी बटालियन के साथ थी। वो हिम्मत कर के उठा, तो उसकी नजर लङकी पर गयी, जो कि बिल्कुल शांत पड़ चुकी थी। शायद वो मर चुकी थी। बस उसके तो हौसले ही पस्त हो गये। उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि” वो क्या करें। वो तो बुरी तरह फंस चुका था, ना जाने किस चक्रव्यूह में।

बस, वो बुत बना खड़ा रह गया। हलांकि पुलिस बाले ने उसके शरीर पर चादर डाल दी थी। पर उसे इन बातों की होश कहां थी। वो तो आगे की सोच कर ब्याकुल हो रहा था। उसने देखा, जिस मैडम से वो मिलने आया था वो आई और उस लङकी से लिपट-लिपट कर दहाङें मार-मार कर रोने लगी। इस बीच पुलिस ने अपनी कार्यवाही की, लाश को पोश्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। अब तक तो वह कुछ भी नहीं समझा था, या यूं कहें कि” उसे अंदाजा नहीं था, उससे क्या हो गया है।लजब उसे गिरफ्तार किया गया, तो उसे एहसास हुआ, वो गंभीर क्राईम कर चुका है। वो पुर्ण रूप से भयभीत हो चुका था, उसको और उसके दोस्त वैभव को गिरफ्तार कर लिया गया।

क्रमश...

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