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भटक रहा मन जग में कब से,
भ्रम की अंधियारी बीते ना ये रैन,
ये माया जग की भूल भरी हैं,
ऐसे ही आए नहीं हृदय को चैन,
ऐसे में कुछ पाने की आशा छोड़,
ओ मन मेरे तू राधे-राधे बोल।।

तू जो कब से अपना-पराया करता,
मन मैला बन छूटी तृष्णा को धरता,
जो रुठेगा जग, इसी बात से डरता,
फिर इच्छाओं का बल, आते-जाते मरता,
हैं सत्य यही, हैं कच्ची जीवन डोर,
ओ मेरे भोले मना, तू राधे-राधे बोल।।

चले ये जो तेरा मैं-मैं का राग उठाना,
शाम-सबेरे ऐसे ही अनहद स्वार्थ जगाना,
औरो से छल कर के तुम्हें बहुत कुछ पाना,
जीवन जो हैं क्छणिका, छोड़ इसे हैं जाना,
हैं सत्य यही, जीवन रस ऐसे ना ढ़ोल,
ओ मेरे मूरख मना, राधे-राधे बोल।।

ये मन मेरे जग की भटकन भूल भरी हैं,
यहां सभी खिलौने हैं, चल रही समय घड़ी हैं,
ऐसा ही हैं जग, खेलता बस अटपटे खेल,
तू जो भटक रहा, जग में कपट भरी हैं,
हैं सत्य यहीं, जीवन पाया मानव का अनमोल,
ओ मेरे मना भटकन छोड़, राधे-राधे बोल।।

ये जो तेरा रिस्तों के लिए स्नेह पुराना,
अपना लाभ मिले बस, बात यही दुहराना,
जीवन हैं क्छणिका और तुम्हें बहुत हैं पाना,
ये जीवन जो अर्ध-सत्य, हैं इसे छोड़ के जाना,
हैं केवल हरिनाम सत्य, करना अब भी गौर,
ओ मेरे मना तू जिद्द छोड़, राधे-राधे बोल।।

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