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चिन्मय, तुम अब मंद-मंद हंस दो,
कब तक ऐसे आँखों के नीर कहोगे,
कब तक मन में उठते पीड़ कहोगे,
पलकों पे ठहराव का कब तक नाजिर कहोगे।।
चिन्मय, अब तुम उन्मुक्त-भाव दिखला दो,
जीवन के अधरों पर मधुर हास्य बिखरा दो,
या फिर तुम बनकर ऐसे ही अधीर रहोगे,
कहने की बातें हैं तुम यादों का प्राचीर कहोगे।।
चिन्मय, तुम अब शांत-सौम्य बन जाओ,
मुखरित हो कर मधुमय रस-गीत सुनाओ,
या तुम बातों से चुभते हुए तीर कहोगे,
मैं कहने कहता हूं तुम शब्दों के मीर कहोगे।।
चिन्मय, अब तुम सलिल भाव से बह लो,
मुखरित हो कर अपने लक्ष्यों को कह लो,
या तुम ऐसे ही भावों के बढ़ते चीर कहोगे,
जीवन उपमानों का तूणीर इसको शरीर कहोगे।।