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धरा भूमि का हुआ दग्ध हृदय,
आने बाले अंजाने प्रलय का भय,
हो रहा स्वार्थ से जीवन का क्षय,
फिर भी मानव गाए लोभ की जय।।
वन-उपवन के हास से उपजा हैं सन्नाटा,
हुआ आसमान दग्ध, हैं कुदरत का चांटा,
आएगा निश्चित प्रलय, हो रहा हैं तय,
स्वार्थ में डूबा मानव खाता नहीं भय।।
मानव जनित प्रदूषण का बल भीषण,
कहीं हो रहा धुआँधार जल-प्रपात,
कहीं गर्मी के तांडव से हो रहा विस्मय,
मानव मद में चूर चाहता विश्व-विजय।।
आज नभ में दिवाकर हुए हैं अति उग्र,
करेंगे जीवन का संहार, कर रहे शंखनाद,
हुआ हैं अतिशय कराल-कुठार समय,
धरा भूमि के आँचल में जैसे पल रहा प्रलय।।
यह विकास की धारा, छिपाए हुए हैं विनाश,
प्रकृति भाव के स्वरूप में हो रहा हास,
होना हैं बीता काल-खंड, हो रहा हैं तय,
सच, धरा भूमि का हृदय दग्ध हुआ अतिशय।।
जो लड़ रहे राष्ट्र कर रहे अहं का घर्षण,
हैं सत्य, जीवन का क्षय करता हैं प्रदूषण,
माने जो बातें, हरियाली हैं जीवन का लय,
फिर भी मानव गाए लोभ-स्वार्थ की जय।।

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