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इस लेख को लिखने का उद्देश्य कदापि नहीं हैं कि” किसी धर्म की आलोचना की जाए, अथवा तो उसको नीचा दिखाया जाए। परंतु यथार्थ सत्य यही हैं कि” धर्म का अर्थ होता हैं धारण करने योग्य। जिसके द्वारा चिन्हिंत मार्ग पर चलकर हम अपना और जीव जगत का कल्याण कर सकें।

जो हमें जीवन के प्रमाणिकता के बारे में बतलाए। हमें बतलाए कि” हमने जो धरा-भूमि पर जन्म लिया हैं, वह किस उद्देश्य से हैं। साथ ही जीवन पद-क्रम के मौलिक सिद्धांतों को प्रतिपादित करें और हमें अवगत करवाए कि” मैं कौन हूं? जो जीवन के लिए मुल प्रश्न हैं। जब तक हम खुद को नहीं जान लेते, धरा-भूमि पर खुद के होने का अर्थ और उन उद्देश्यों का कभी भी संपादन नहीं कर सकते।

धर्म, जो संप्रभुता, सहनशीलता और सामर्थ्य-शीलता के त्रीगुणों से समृद्ध हो। जो कि” सनातन अपने-आप में विद्यमान हैं। इसमें संप्रभुता हैं, जो इसको परिभाषित करता हैं और कहता हैं, मैं अखंड हूं, तेजोमय हूं, ज्ञान पुंज का विशाल भंडार हूं। तभी तो, सत्य-सनातन का आभा मंडल इतना विशाल हैं कि” इसकी ज्योति में अज्ञान रुपी तिमिर पल भर के लिए भी नहीं टिक सकता।

साथ ही इसका गुण जो सहनशीलता का हैं, इसको विशेष बनाता हैं। इस गुण के कारण ही विश्व-बंधुत्व की भावना को यह प्रोत्साहित करता हैं, प्रतिपादित करता हैं। इस विशेष गुण के कारण ही क्षमा, करुणा और प्रेम की अद्भुत धारा इसमें से प्रवाहित होती रहती हैं, निरंतर ही और इस गुण का ही प्रभाव हैं कि” जीवन को यह विश्व-कल्याण के लिए प्रेरित करता हैं।

और सामर्थ्य-शीलता, जो कि” विशेष और सार्थक गुण हैं इसका। हां, सत्य-सनातन सामर्थ्यवान हैं, अपने-आप में परिपूर्ण हैं, युगों-युगों से। यह अपने जीवंत भाव को, अपने अमिट प्रभाव को निरंतर ही मानव को दे रहा हैं, उसे पोषित कर रहा हैं, जीवन की सार्थकता को प्राप्त करने के लिए। जीवन जीने के लिए आवश्यक उष्मा, जीव-जगत के लिए निरंतरता और जीवन को सहज बनाने के लिए ज्ञान-विज्ञान के सिद्धांतों को बतला रहा हैं, मानव को इस के लिए मार्ग-दर्शित कर रहा हैं।

यह जो सत्य-सनातन हैं, इसने अनेक सभ्यताओं को कुछ न कुछ जरूर दिया हैं। यह इसकी सामर्थ्य-शीलता ही हैं कि” जो भी इसके आभा-मंडल में एक बार आ जाता हैं, बस इसका ही होकर रह जाता हैं। वह अपने पहले के तमाम उन गुणों को भुला देता हैं, जो विघटनकारी थे। फिर सनातन के निर्मल गुणों को अंगीकार कर लेता हैं। चाहे फिर वो मानव हो, अथवा मानव द्वारा निहित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए संचालित संस्था। इसके प्रभाव में आने के बाद वो इसका ही होकर रह जाता हैं।

हां, ऐसा युगों से ही हो रहा हैं। क्योंकि’ मानव मन अति चंचल हैं। ऐसे में वो तनिक तुच्छ ज्ञान से भरता हैं, भरे हुए घड़े की तरह डामाडोल होने लगता हैं। ऐसे में वो अपने विचारों को गति देने के लिए अलग विचार-धारा, एक अलग पंथ का निर्माण करता हैं।

फिर अपने मन के निहित स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए इस विचार-धारा, इस पंथ को धर्म का अमली-जामा पहना देता हैं और मानव पर थोप देता हैं। वह घोषणा कर देता हैं कि” मैंने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया हैं, वही धर्म हैं। अब तुम इसका ही पालन करो और इसको विस्तार देने के लिए प्रयासरत हो जाओ। तुम मेरे अगुआई हो, इसलिए यही तुम्हारा धर्म हैं।

लेकिन यथार्थ में ऐसा पूर्ण सत्य नहीं हैं। क्योंकि’ पंथ का निर्माण व्यक्ति की विचार धारा से होती हैं। ऐसे में स्वाभाविक हैं, यह त्रुटियों से भरा हुआ हो। इसलिए ही यह घोषित विचार-धारा धर्म नहीं हो सकता। क्योंकि’ धर्म का आधार तो परिपूर्ण होना चाहिए, तभी तो वह धारण करने योग्य होता हैं। ऐसे में घोषित विचार-धारा/पंथ को धर्म कहना यथार्थ से परे हैं।

क्योंकि’ उसमें संप्रभुता, सामर्थ्य-शीलता और सहनशीलता का सदा ही अभाव पाया जाता हैं और ऐसा इसलिए होता हैं कि” प्रतिपादित विचार धारा, पंथ सत्य सनातन का ही टू-काँपी हैं। जबकि’ सत्य सनातन वेद वाणी हैं, जो ईश्वरीय शक्तियों द्वारा प्रतिपादित हैं।

ऐसे में स्पष्ट होकर कहा जा सकता हैं कि” द्वेष बस जिस विचार-धारा/पंथ का निर्माण किया गया। उसमें सनातन के सम्यक दृष्टिकोण, इसका जीवन के प्रति विशाल मानदंड और जीव-जगत के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण को समाहित नहीं किया गया। बस’ विचार-धारा का छलावा भरा हुआ आवरण था, जिसे ऐसे ही मानव जीवन पर थोप दिया गया।

क्योंकि’ जो धारण करने योग्य हैं, वही धर्म हैं। जो जीवन के उद्देश्यों के प्रति समर्पित हो, वही धर्म हैं। जो हमें जीवन के पद-क्रम में इच्छाओं पर नियंत्रण, जीव जगत के प्रति उदारता और स्नेह, साथ ही संयम और सहिष्णुता के बारे में मुक्त होकर बतलाए। हमें जीवन के क्रम में मानवता के शिखर तक पहुंचने के लिए मार्ग-प्रदर्शित करें और इसके लिए बल प्रदान करें।

सत्य-सनातन, जो कि” ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध हैं, संवर्धित हैं और हमें वैज्ञानिक अन्वेषण करने के लिए प्रेरित करता हैं। जिससे जीवन को सहज बनाया जा सके, समृद्ध किया जा सके। सत्य-सनातन धर्म हैं, क्योंकि इसमें शस्त्र और शास्त्र, दोनों के प्रति व्यापक दृष्टिकोण हैं।

सत्य-सनातन इसलिए धर्म हैं कि” यह क्षेत्र-भूमि से परे विश्व-बंधुत्व की भावना को बल देता हैं। इसके अंदर जीव जगत के प्रति प्रेम, करुणा और वात्सल्य कूट-कूट कर भरा हुआ हैं। यह हिंसा के मार्ग का तब तक पोषण नहीं करता, अथवा तो स्वीकार करने के लिए नहीं कहता, जब तक मार्ग निकल आने की संभावना बिल्कुल ही खतम न हो गई हो।

धर्म का उद्देश्य धार्य होता हैं। जिसे हम अंगीकार कर ले और उसके द्वारा चिन्हिंत मार्ग पर चलकर मानव जीवन के श्रेष्ठ चिन्हों को पथ पर अंकित कर दे। हमारा इस धरा-भूमि पर आने का उद्देश्य पूर्ण हो और हम जीवन के पथ में मानक बिंदुओं पर प्रतीक चिन्ह अंकित करने में सफल हो सके।

धर्म का उद्देश्य ही यही हैं कि” जीवन क्रम में चलते हुए मानव मूल्यों को संवर्धित करने के लिए प्रेरित करना और जीवन के बाद, जो शक्ति इस प्रकृति का नियंत्रण कर रही हैं, उससे तादात्म्य बिठा देना। उस शक्ति से एकाकार करवा देना, जिसे हम ईश्वर कहते हैं।

सत्य-सनातन, जो ऋषि-मुनियों द्वारा परिमार्जित हैं। सनातन का शाब्दिक अर्थ होता हैं, सदा से। जो युगों-युगों से, अनंतकाल से निरंतर ही गतिमान हैं। जो युगों-युगों से मानव जीवन के लिए आवश्यक नैतिक मूल्यों का निरंतर ही संवर्धन कर रहा हैं।

जो सदा से ही मानव मन में उत्पन्न हो रही जिज्ञासा का निराकरण कर रहा हैं। उसे जीवन के लिए श्रेष्ठ शिखर तक जाने के लिए प्रेरित कर रहा हैं। जो मानव को मानव बनने के लिए उत्साहित कर रहा हैं। जो ज्ञान-विज्ञान कौशल में अन्वेषण करने के लिए मन का मार्ग-दर्शन कर रहा हैं, साथ ही प्रोत्साहित भी कर रहा हैं।

जो कला-कौशल, संगीत, दर्शन और जीवन रस से समृद्ध हैं, परिपूर्ण हैं। यह धर्म इसलिए हैं, क्योंकि इसमें अपूर्णता नहीं हैं। भले ही आज के समय में निहित स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए इसपर प्रश्न-चिन्ह लगाने की कोशिश किया जाता हो, परंतु यह कोशिश हास्यास्पद और तथ्यों से कोसों दूर हैं।

क्योंकि” सनातन ही सत्य हैं। सृष्टि के आरंभ से हैं और तब तक रहेगा, जब तक यह धरा-भूमि रहेगी। सनातन स्निग्ध हैं, कोमल और लचीला हैं और सुंदर भी। तभी तो अपने संपर्क में आने बाले को यह पूर्ण रुप से अपना बना लेता हैं। उसे मानव होने के सार्थकता से अवगत करवाता हैं। क्योंकि” सनातन ही सत्य हैं, सुंदर हैं और यथार्थ भी।

चलते-चलते फिर कभी...

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