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हे नभ' तुम सहज अति गंभीर'
निराकार तेरा हृदय लिए आवरण'
निराकर ही तेरा लगता रुप-शरीर'
हुए मन प्रश्न मेरे उत्कंठा बन जागृत।
मन दुविधा के जाल फंसा हूं कब से।
बतलाओ तो' अब कौन धराए धीर?

काश मेरे पंख लगे हो' होऊँ प्रमुदित'
उड़कर आ जाऊँ तेरे संग नेह लगाने'
बीता काल जो विस्मय में लिपटा था'
आऊँ पास तेरे, हर इक वो बात बताने।
मन भ्रमित हो नहीं हंसा हूं कब से।
बतलाओ तो' अब कौन धराए धीर?

हे नभ' देखूं तो, लगते हो तुम नीले-नीले'
जैसे श्याम रंग है गिरिधर नटवर का'
जैसे प्रीति रस डुबा रंग है सीता के वर का'
वैसा ही तेरा रंग श्यामला, रंग अति चटकीले।
तुमसे आशाएँ अब तो बांध रहा हूं कब से।
बतलाओ तो' अब कौन धराए धीर?

हे नभ' आतुर हूं, तुम मौन बने हो जब से'
प्रश्न जटिल जो' जीवन से ही लगा हुआ है'
आशा मन की, नभ मंडल, तुमसे बंधा हुआ है'
यह परिहास नहीं है, बातें जो बढा हुआ है।
अब की तो प्रश्न यही है, पुछ रहा हूं कब से।
बतलाओ तो' अब कौन धराए धीर?

हे नभ' गंभीर हो ऐसे, कठोर पाषाण हो जैसे'
प्रश्न जो हृदय में भ्रम का जाले बुनते जाए'
उत्तर जो दोगे तुम' हम गहरी बात बताए'
तुम एक जो सही कहोगे, विश्वास ढृढता पाए।
बोलो कर्त्यव्य पथिक का, रटे बैठा हूं कब से?
बतलाओ तो' अब कौन धराए धीर?

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