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हो भाव मेरे मन के अति निर्मल,
आगे बढ़ता चलूं बनकर निश्छल,
चाहे इसका कोई भी हो प्रतिफल,
मन शांत होऊँ, नहीं हो कोई हलचल।।
पथ का पथिक हूं जीवन का श्रृंगार करूं,
आगे बढ़ने के क्रम में संतुलित व्यवहार करूं,
चाहे फिर सामने हो द्वंद्व समूह का दल-बल,
मानक नियम निभाऊँ जीवन का पल-पल।।
हो अब भाव मेरे मन के अतिशय शुद्ध,
जीवन के नियमों से विलग नहीं रहूं अब,
समताओं का बल पाकर बनूं और सबल,
हृदय कुंज में सरिता बहती रहे कल-कल।।
करुं उचित व्यवहार मानवता के नियमों का,
तनिक नहीं पथ पर अपना ध्येय भुलाऊँ,
परिमार्जित हो बनूं पुष्प सुगंधित-परिमल,
अडिग हो बढ़ता जाऊँ आगे बन निश्चल।।
नैतिकता का करुं वरण निर्धारित नियमों से,
भ्रमित नहीं होना हैं पथ पर अब आगे,
सत्य-तत्व पोषित करने को बनूं शीतल-जल,
जीवन के संग ताल मिला कर बनूं और सबल।।
हो भाव मेरे मन के अब अधिक-सुढ़ृढ़,
अब जीवन-गरिमा का बुनना हैं ताना-बाना,
सार्थकता के भावों से कुछ करूं नया पहल,
जीवन का हाथ थाम चलूं पथिक बन निश्छल।।