हृदय कुंज में बनने लगे जो दूषण,
मन में द्वंद्व का होने लगे जो घर्षण।
फिर वाणी का रुप पकड़ विष वमन करें,
अति कठोर उद्गार बने, ज्वाला सा तीव्र जले।
हानि हैं-हानि हैं, पथ पर ऐसा भाव न हो,
हो विचार नूतन, जिसका तीक्ष्ण प्रभाव न हो।।
जीवन के जातक का गुण, बन सरिता जल,
छल से दूर हो बहूं धरा पर निर्झर-निर्झर।
कोमल पुष्प बन खिलूं, जीवन का कर लूं वंदन,
मलय गिरी हो जीवन, बनूँ सुवासित चंदन।
दर्पण सा बन जाऊँ, कहीं छिपाव न हो,
पथ पर चलूं सभान बन, अहं भाव न हो।।
चिंतन का हो ध्येय, वंचना जनमें नहीं हृदय,
चलता रहूं निरंतर आगे, पथ पर नहीं हो भय।
दल-बल से अलग चलूं, धरते हुए धैर्य का डग,
काफिला निकल गया जो, चलता रहूं विलग।
बनकर चलूं जीवंत पथिक, चाहे लाभ न हो,
समय केंद्र पर सीधा चल दूं, कोई घुमाव न हो।।
अब नितांत शीतल हो, जीवन से स्नेह करूं,
बातों के नहीं ताग बनाऊँ, नहीं इसे उलझाऊँ,
औरो की बात भूला कर आगे को बढ़ता जाऊँ,
पथ हैं यह कर्म योग का, मन नहीं द्वेष बढ़ाऊँ।
संभल कर चलूं, मन पर दुविधा का दबाव न हो,
नाहक जो पहले बीता, ऐसा कोई भुलाव न हो।।
नियम सत्य हैं जो, पढ़ लूं गीता के पूरे अध्याय,
कर्म का हो समय, कोई उलझन नहीं बच पाए।
जीवन का संग करूं, निर्भय हो मनोयोग से,
सार्थकता का हो बोध, मन दुविधा नहीं सताए।
जो बीते का बचा अवशेष, बनने को घाव न हो,
बन जाऊँ चैतन्य, भ्रम का मन पर पड़ाव न हो।।