जीवन क्या है, यह समझने की जरूरत है' खासकर आज के समय में, जब चारों ओर एक अजीब सी निराशा और हताशा का वातावरण बनता जा रहा है। लगता है कि" आज मानव जैसे दिशाहीन होता जा रहा हो। आज जीवन पर जिस तरह से उपभोक्ता वाद हावी होता जा रहा है, उसने परिस्थिति को और भी जटिल कर दिया है। हां, जटिल कहना ही उचित होगा, क्योंकि" परिस्थियां आपस में विरोधाभास उत्पन्न कर रही है।
आज' मानव के पास सुख-सुविधा के संसाधनों में वृद्धि हुई है। स्पष्ट कहा जा सकता है कि" पहले की अपेक्षा आज हम और आप सुख के साधनों का उपभोग सरलता के साथ कर सकते है। किन्तु" इस उपलब्धता ने जैसे मानव जीवन को भ्रमित कर दिया है। आज मानव अनेकों समस्या से उलझ सा गया है और परिस्थिति की विडंबना देखिए कि" मानव जिस जाले में उलझ सा गया है, वह उसका खुद से ही तैयार किया हुआ है। हां, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा और इस बात को हमें मुक्त मन से स्वीकार करना चाहिए। आज-कल जिस तरह से जीवन" के चरित्र को कठोरता पूर्वक चित्रित करने की कोशिश हो रही है, वस्तुतः जीवन उतना कठोर भी नहीं है। हां, माना कि" जीवन परीक्षाएँ लेती है और इस दौर में हमको और आपको एक कठिन हालातों से गुजरना होता है। किन्तु" इस परीक्षा का ध्येय होता है, हमें परिपक्व करने की। यह सत्य है कि" जीवन के परीक्षा से गुजर कर ही मानव अनुभव रुपी अमृत को पाता है। जिससे वह खुद का और दूसरों का भी कल्याण कर सकें, वह मानव के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर सकें।
परन्तु' आज की परिस्थिति जरा सी उलझ कर रह गई है। अब ऐसा भी नहीं है कि" सकारात्मक विचारों' की कमी है। किन्तु" सकारात्मक लोगों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है। जबकि' सकारात्मक विचार तो पूरी मानव सभ्यता की होनी चाहिए। आज जिस तरह से एक हताशा-निराशा का प्रवाह अविरल गति से वर्तमान को ग्रसित करता जा रहा है, उसने भयभीत करने बाली स्थिति बना दी है। हां, बात करना है आज हो रहे विश्व में उन तमाम हलचल , उन परिस्थियों की, जो मानव मन को उद्वेलित करने के लिए कारक तत्व बन गया है। आज जिस तरह से विश्व अनेकों समस्याओं से उलझा हुआ है, वह मानव मन को अक्रांत करने बाला है। आज' जिस तरह से अघोषित युद्ध की स्थिति बनी हुई है, उसने मानव सभ्यता पर ही प्रश्न चिन्ह सा लगा दिया है।
आज' खासकर युवाओं की बात करें, तो आज युवाओं में धैर्य की कमी को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। जी हां, बात करते है युवाओं द्वारा उठाए जा रहे घृणित कदम, जिसे आत्म हत्या कहते है, उसके बारे में। आज जिस तरह से सफलता और असफलता के बोझ तले दबा हुआ, निरा व्यर्थ भय से ग्रसित युवा परिस्थिति से हारने लगता है, उसे अनुचित ही कहा जाएगा। आज जिस तरह से अचानक ही सुर्खियों में आत्म हत्या" का न्यूज चमक उठता है, वह डराने बाला है। हां, आज युवा इस आधुनिकता के व्यूह जाल में फंस सा गया है और इसका सदुपयोग करने की जगह इससे अक्रांत हो रहा है। ऐसे में माना जा सकता है कि" यह आज के उपभोक्ता वाद की देन है। किन्तु" ऐसा भी नहीं है, इस उपभोक्ता वाद के प्रवाह को सकारात्मक रुप से उपयोग करें, तो यह प्रगति का कारक ही बनेगा। परन्तु....होता ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
अब' इस विषय को' वर्तमान की पीढी और बीते हुए कल के बीच तादात्म्य की कमी के रुप में भी देखने की जरुरत है। क्योंकि' आज आधुनिक होने की होङ में जिस तरह से हम और आप अपने संस्कृति-अपने सामाजिक दायित्व के बंधन से आजाद होते जा रहे है, वह कदापि भी हितकर नहीं कहा जा सकता। आज' पैरेंट्स और नौनिहाल के बीच एक अदृश्य विरोधाभास" की दीवार खड़ी हो गई है। हां, हमारे पीढ़ियों के बीच खाई निरंतर ही चौड़ी होती चली जा रही है। वर्तमान बीती हुई पीढी को भूलता सा जा रहा है और आगे बाली पीढी से सामंजस्य बिठाने में भी असफल होने लगा है। हां, आज ज्यादातर पैरेंट्स यही समझ लेते है कि" उन्होंने बच्चों को खर्चे के लिए पैसे दे दिए, उनकी जरूरतें पूरी कर दी, बस जिम्मेदारी खतम। परन्तु.... ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। आज जिस तरह से एक अदृश्य अहं भाव ने एक-दूसरे को जकड़ लिया है, उस अहंकार को तोड़ फेंकने की जरूरत है।
जी हां, आज आलम यह है कि" लोगों के बीच आपसी संवाद की कमी हो गई है। जबकि" पहले ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। पहले' बिना कारण के भी लोग एक- दूसरे के पास जाते थे, उनसे बातें करते थे। उनके बीच संवाद सेतु इस तरह से बंधा हुआ था कि" रिक्तता का कोई स्थान ही नहीं होता था। किन्तु" आज परिस्थिति ठीक इसके उलट बन चुकी है। आज दूसरों की बात को छोड़िए, अपनो के बीच भी बातचीत नहीं हो पाती। अगर बातें हो भी, तो इतनी सीमित कि" हाल-चाल पुछने के अलावा आगे बढे ही नहीं। हां, आज अहं ने एक-दूसरे के बीच एक दरार सी बना दी है, जो नुकसान के अलावा कुछ भी नहीं दे सकता और नुकसान भी ऐसा, जिसकी भरपाई नहीं की जा सके। ऐसे में कहा जा सकता है कि' जरूरत है, अब तो हम और आप चेत जाए और जीवन को सकारात्मक रुप से समझने की कोशिश करें। समझने की कोशिश करें कि" वर्तमान के साथ किस तरह से कदम मिला कर चले, जिससे कि" हमारा भी कल्याण हो और औरो के हित भी साधे जा सके।
जरूरत इन बातों की है, हम और आप, परस्पर बातों के दायरे को बढाए। माना कि" डिजिटल युग आ गया है और अब सभी चीजे हमारे अंगुलियों पर ही आ गई है। परन्तु....यह कदापि भी भूलना नहीं चाहिए कि" इस डिजिटल दुनिया से अलग भी एक विश्व है। प्यारा और मनोहारी, मधुर संबंधों से ओतप्रोत। हम जरूर सीखें कि" इस डिजिटल युग" को किस तरह से उपयोग करें, जिससे कि" तरक्की के रास्ते पर हमारे कदम निरंतर ही आगे को बढते जाए। परन्तु.....इसका मतलब यह कदापि भी नहीं हो सकता' हम डिजिटल युग" के रंग में रंग कर अपने स्वभाव को ही डिजिटल कर ले। हम यह भी भूल जाए कि" हम मानव है, कोई यंत्र नहीं, जिसकी कोई संवेदनाएँ नहीं होती। हम मानव है और हमारे मन में संवेदनाएँ है, प्रेम है और सहजता है। हम' इन नेचुरल गुणों से अलग कभी भी नहीं रह सकते और जब हम इन प्राकृतिक गुणों से अलग रहने की कोशिश करते है, तभी से समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। जब' हम इन गुणों को दबाने की कोशिश करते है, एक अजीब सी कुंठा हमें ग्रसित कर लेती है। फिर तो' हम यह समझ ही नहीं पाते है कि" हम आखिर चाहते क्या है और हमें करना क्या चाहिए?
यह महज प्रश्न ही नहीं, हमारे जीवन का उद्देश्य भी है। जिसका बोध हमें होना चाहिए और इसके लिए सब से पहले जरूरत है कि" खुद को समझे। ठीक है, आधुनिकता का स्वागत-सत्कार किया जाए, जरूरत भी यही है। परन्तु.... आधुनिक हमारे कार्य हो, आचरण नहीं। आचरण तो वही होना चाहिए, जो नेचुरल" है और सहज ही हमारे हृदय में उत्पन्न हुई है। हमारा आचरण कर्तव्य पथ पर चलते हुए श्रेष्ठ पथिक जैसा हो। हम अपने-आप को अपने संस्कृति- अपने समाज से जुड़े रहे। हमें सामाजिक और पारिवारिक बंधन कभी बोझ न लगे और इन संबंधों को निभाने के लिए हम सार्थक प्रयास करें। हम" सिर्फ आधुनिक हो गए है, तो ऐसा क्यों करें?...इस अहं भाव से मुक्त होकर जीवन को सही से समझे और जीवन के अनुकूल होने के लिए प्रयत्न करें। फिर' स्पष्ट कहा जा सकता है कि" आज की ज्यादातर समस्याएँ स्वतः ही हल हो जाएगी और हमारे और आपके चेहरे पर मंद-मधुर मुस्कान होगा।