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जीवन के आलिंगन में सुख पाऊँ,
चिन्ह उकेरूं फिर उसे अमिट बनाऊँ,
हे समय तुम प्रहरी रहना मेरे भावों के,
मैं निज-आनंद के लहरों में गोते खाऊँ।।

मन के संग व्यापक संवाद करुं,
जो भ्रम उपजे तो उसका निस्तार करुं,
तुम प्रहरी बनना मेरे बनते हुए सपनों के,
मैं हृदय कुंज में उपवन मधुर सजाऊँ।।

हृदयंगम कर लूं मानक नियमों को,
आधार बिना ही बातों को नहीं छेड़ूं,
हे समय तुम प्रहरी रहना मेरे गरिमा के,
मैं निज में खोकर निजानंद बन जाऊँ।।

जीवन के आलिंगन में अमृत-रस की आशा,
जीवन से लिपट पड़ूं था जो जन्मो से प्यासा,
हे समय तुम प्रहरी रहना कहवाने वाले अपनो के,
मैं तो बस जीवंत बनूं और अमृत रस पाऊँ।।

बनता हुआ जो क्षणिक आवेश के बादल,
ऐसे ही शांत हृदय में भर देने को हलचल,
हे समय तुम प्रहरी रहना इन दु:स्वप्नों के,
मैं तो बस निर्भयता से आगे कदम बढ़ाऊँ।।

यह जो चिर-संवाद मेरे मन का तुम से,
विस्मित करने वाले हैं किन्तु हैं यथार्थ,
हे समय तुम प्रहरी रहना मेरे उन लक्ष्यों के
जिसे पाने की खातिर नित ही चलता जाऊँ।।

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