जीवन, कुछ जो वह अनुरक्ति के पल,
तेरे आंगन में मैं बना हुआ भाव-विह्वल,
मन के कोने में भी मचा हुआ हलचल,
तुम अपने हो, ऐसे में तुझसे मिले संबल।।
समय जो विस्मयकारी हैं, भ्रम उपजाए,
चलने के क्रम में घटनाएँ विचित्र दिखलाए,
साधक के मन में संशय की घटा बनाए,
ऐसे में घटने वाली घटनाएँ बनती धार प्रबल।।
मैं देखूं तुमको जी भरकर मन की आँखों सें,
तुम चलने के क्रम में ऐसे ही निराश मत करना,
चाहूं जो पुष्प, दामन में अंगार मत भरना,
जो भिन्नता उपजे भावों में, तुम दे देना हल।।
जीवन, मन में तुम संग मधुर स्नेह की इच्छा,
पथ पर तुम कर्मों का उपदेशक बन भी जाना,
मैं जो विह्वल बनूं तुम मुझे संभालने आना,
देखना पथ निर्देशक बन, होऊँ नहीं अधिक चंचल।।
मन जो उपमानों के अलंकार का अभिलाषी,
मधुर भाव-व्यंजना से सेबूं कितनी ही आशाएँ,
तुम मुझे संभाले रखना कहीं हाथ छूट न जाए,
जो कठिन समय की धारा हो, आ कर देना बल।।
जीवन, कुछ अनुरक्ति के पल में लिपटा हूं,
भ्रांतियों का दलदल बनने से वेध्यान बना हूं,
पथ के उन मानक मूल्यों से अंजान बना हूं,
ऐसे में तुम्ही एक हो अपने, मुझे थामकर चल।।